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फिर कोई अन्याय करने वाला खड़ा न होना सके— इसका इंतजाम होना चाहिए। यह सब इसलिए करना है ताकि संपूर्ण समाज एक हो सके। आपस में दुर्भावना बढ़ाने वाली भाषा नहीं होनी चाहिए। फिर व्यवस्था में इस दृृष्टि से जो-जो प्रावधान किए जाते हैं, या करने के सुझाव आते हैं, वे प्रावधान लागू हों। इस प्रक्रिया में सबको समाहित करते हुए, किसी की राह देखे बिना, नित्य व्यवहार में इसका प्रकटीकरण शुरू कर दें, तो फिर ये कार्य जल्दी हो जाएगा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत के ‘एक मंदिर, एक श्मशान और एक कुआं’ के भेदभाव दूर करने के आह्वान ने सामाजिक समरसता और सौहार्द के लिए एक नई कार्य दिशा दिखाई है। संघ से बाहर के बहुत से लोग भी इस पहल का स्वागत कर रहे हैं। तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस, जिन्होंने इस सुधारवादी विचार को सामाजिक बल प्रदान करने हेतु जो गति दी थी, उसे आज श्री भागवत आगे ले जा रहे हैं। कोयम्बटूर में संपन्न रा.स्व.संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के अवसर पर पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर एवं आर्गेनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर ने उनसे बालासाहब देवरस, समरसता में उनके योगदान और आगे की दिशा में बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश :-
समरसता संघ के स्वभाव में 1925 से ही रही है। आगे चलकर इस आग्रह के पीछे बालासाहब देवरस बड़ी प्रेरणा रहे। उनके योगदान को आप कैसे देखते हैं?
हिन्दू संगठन समरसता के बिना असंभव ही है और इसलिए संपूर्ण हिन्दू समाज को एक करने के लिए उसकी दृष्टि भेदविहीन होनी, आवश्यक है। इसलिए समरसता की दृष्टि संघ के स्वभाव में ही है। परंतु संघ की शक्ति क्रमश: बढ़ी है। संघ में तो संघ के जन्म से ही यह व्यवहार है, परंतु बालासाहब जब सरसंघचालक बने, उस समय समाज द्वारा संघ से कुछ सुनने और कुछ मात्रा में उस पर विचार करने और प्रयोग करने की स्थिति भी बन रही थी। आज संघ की बात समाज सोचेगा, करेगा इसका परिमाण बहुत बड़ा है, तब उतना बड़ा नहीं था, लेकिन इसका प्रारंभ हो चुका था। संघ का यह समतामूलक, समरसतामूलक दृष्टिकोण समाज के लिए भी आवश्यक है। (यह दृष्टिकोण) समाज में भी जाना चाहिए। इस दृष्टि से सरसंघचालक बनते ही बालासाहब ने विषय रखा कि अब संघ का मुख्य ध्येय सामाजिक समरसता है। इसकी स्पष्टता स्वयंसेवकों में भी हो और समाज में भी हो, इसलिए बालासाहब ने बहुत सोच-समझकर वसंत व्याख्यानमाला का भाषण कुछ महीनों तक तैयारी के बाद दिया। संघ का इसके बारे में विचार, व्यवहार तो पहले से था लेकिन पीछे जो विचार प्रक्रिया थी, वह स्वयंसेवकों को भी स्पष्ट हो गई और समाज में भी एक संदेश गया।
संघ के इस आग्रह का समाज पर कैसा प्रभाव रहा?
यह सबको पता है कि संघ हिन्दुत्ववादी है। अब हिन्दू के साथ यह भेदभाव वाली बात चिपकाई जाती है तो फिर संघ का दृष्टिकोण क्या होगा? ऐसा मानने वाले लोग समाज में थे कि निश्चित ही यह जात-पात का समर्थन करने वाला, भेदभाव का समर्थन करने वाला संगठन होगा। तब संघ में इस बारे में, समाज के लिए सार्वजनिक रूप से बहुत चर्चा की गई। इस तरह के प्रश्न भी थे और समाज में उन प्रश्नों का लाभ लेकर संघ की खाल उधेड़ने वाले लोग भी थे। किन्तु जब बालासाहब ने (वसंत व्याख्यामाला, 8 मई, 1974, पूना में) स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह भेदभाव जड़-मूल से खत्म (छङ्मू‘, २३ङ्मू‘ ंल्ल िुं११ी’) हो जाना चाहिए, तो ये सारे प्रश्न एकदम समाप्त हो गए। इससे समाज में अपनी भूमिका रखने के लिए स्वयंसेवकों में एकदम हिम्मत आ गई। व्यवहार तो दिख ही रहा था परंतु इसके पीछे वैचारिक कल्पना कौन सी है, क्या है, इसकी स्पष्टता सामान्य स्वयंसेवकों को नहीं थी। (बालासाहेब का) भाषण है, जिसमें यह सारी बातें हैं कि वैचारिक परिकल्पना क्या है, क्या व्यवहार अपेक्षित है, क्या-क्या होना चाहिए। इससे स्वयंसेवकों के सामने विषय स्पष्ट हो गया। हमारा कहना क्या है, उस बारे में भी उनका आत्मविश्वास बढ़ गया। समाज में शंकाओं पर प्रामाणिक लोगों के लिए विराम लग गया। इस प्रकार एक बहुत बड़ी सुविधा बन गई। सामाजिक समता के संघर्ष में अन्य लोग स्पष्ट भूमिका नहीं ले पाए, लेकिन भेदभाव के शिकार समाज के साथ संघ के स्वयंसेवक स्पष्ट रूप से खड़े रहे, ऐसे अनेक प्रसंग हैं।
वसंत व्याख्यानमाला में बालासाहब के ऐतिहासिक उद्बोधन के बाद संघ कार्य में कौन-कौन से नए आयाम जुड़े?
समाज के साथ जब कार्य शुरू हुआ तो स्वाभाविक रूप से अनेक बातों में नए आयाम जुड़े। समाज के इस भेदभाव के शिकार वर्ग की समस्याएं क्या हैं? उनका मन क्या है? और जो समाज में एक खाई उत्पन्न हुई है, उसके बारे में, उसे पाटने के उपाय क्या होने चाहिए, इस बारे में चिंतन शुरू हुआ। उसमें से सामाजिक समरसता मंच जैसी गतिविधि शुरू हुई। विशेषकर जो वर्ग हिन्दू समाज, हिन्दू वगैरह बातों से दूर रहने की मानसिकता में था, उसके साथ संपर्क करना, उसको समझाना-बुझाना, उसको शाखाओं में लाना, इसके प्रयत्न ज्यादा बड़े हो गए। इसके फलस्वरूप ऐसे वर्गों का आत्मसम्मान का जो संघर्ष था, उसमें हिन्दू संगठन करने वालों की धारा का बल भी कहीं-कहीं जुड़ने लगा।
सामाजिक विभेदों को दूर करने के लिए और उपाय
होने चाहिए?
एक सदा के लिए चलने वाला उपाय है कि अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, आजीविका के और सामाजिक आचरण में, सभी भेदभावों को नकारते हुए उचित भूमिकाएं लेना। प्रत्यक्ष व्यवहार की बातों के लिए अपनी आदत बदलना। जैसे अनेक भाषाओं में जातिवाचक मुहावरे हैं। भेदभाव का जो युग था, उसमें तथाकथित ऐसी जातियों, जिनको पिछड़ा कहा जाता था, अस्पृश्य कहते थे, ऐसी जातियों को जरा छोटा स्थान देने वाली कहावतें, मुहावरे हैं। हम उनका उपयोग करते हैं, तो उसके पीछे निहित द्वेषभाव चाहे नहीं लाते हैं, परंतु शब्द तो अस्तित्व में है और जो भेदभाव के शिकार हुए हैं, उनके हृदय में घर कर गए हैं। हमको ऐसी आदतें बदलनी पड़ेंगी। मन और विचार सहमत होने के बावजूद शरीर की आदत हो जाती है, वह बदलनी होगी। बोलने की आदत बदलनी पड़ेगी। हमारा व्यवहार पुरानी विषमता को त्यागकर समतायुक्त हुआ कि नहीं -लोग इसकी परीक्षा करेंगे। खासकर वे लोग इसकी परीक्षा करेंगे, जिनको हमको जोड़ना है, जिन अपनों को फिर से अपना बनाना है। सहज व्यवहार में भी अपने आप को परिष्कृत बनाकर प्रयोग करना होगा। उदाहरणार्थ- मान लीजिए, मैं किसी के घर गया। मुझे प्यास नहीं है, पानी आया और मैंने कहा, पानी नहीं पीना है, तो मेरे हृदय में भले ही कुछ न हो, लेकिन वहां शंका खड़ी होती है कि हमारे यहां पानी नहीं पीना चाहते। पूजनीय गुरुजी ने एक बार बहुत अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया। एक स्वयंसेवक ने कहा कि मेरी झोंपड़ी में आएं, चाय पीने के लिए, पास में ही है। वह झोंपड़ी में रहने वाला स्वयंसेवक था। गुरुजी ने कहा, चलो। एक तो ऐसा वर्ग, दूसरा बहुत गरीब। गुरुजी गए तो एक-दो कार्यकर्ता भी साथ थे। आधी झोंपड़ी में यह भी दिख रहा था कि घर की माता चाय बना रही है। बर्तन गंदा जैसा था, छलनी नहीं थी, कपड़े से चाय छानी गई, कपड़ा भी कैसा था, चाय आई तो एक ने कहा, मैं चाय नहीं पीता, दूसरे ने कहा, सुबह से बहुत चाय पी चुका हूं। गुरुजी ने चाय पी ली। बाहर जाने के बाद कार्यकतार्ओं ने पूछा, गुरुजी आपने ऐसी चाय कैसे पी ली? गुरुजी ने कहा, आप लोग उसकी चाय देख रहे थे! मैं तो उसका प्रेम पी रहा था। यही सहजता रखिए। प्रेम-सम्मान समाज की जरूरत है। तो अपने व्यवहार को ऐसा रखना चाहिए जिससे उनकी प्रेम-सम्मान की अपेक्षा की पूर्ति हो। ऐसे व्यवहार की आदत डालनी पड़ेगी। दूसरा, सार्वजनिक जीवन में ऐसे प्रश्न आते हैं। अंतरजातीय विवाह होता है, विरोध भी खड़ा होता है। संघ के स्वयंसेवक उसके समर्थन में खड़े दिखने चाहिए। होना भी चाहिए और सामान्यत: ऐसा है भी। यदि कोई अंतरजातीय विवाहों के संदर्भ में सर्वेक्षण करे तो सबसे ज्यादा स्वयंसेवक ही मिलेंगे। अनौपचारिक चर्चा में कई बार यह अनुभव देखने में आया है। महाराष्ट्र का जो पहला अंतरजातीय विवाह था उससे दो संदेश गए थे। एक डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का और दूसरा गुरुजी का। गुरुजी ने संघ के स्वयंसेवकों को ये लिखा था कि जो शारीरिक आकर्षण के चलते नहीं, बल्कि समाज में जो जाति प्रथा है, उसका विरोध दर्ज करने के लिए अंतरजातीय विवाह कर रहे हैं, मैं उनके इस अंतरजातीय विवाह का समर्थन भी करता हूं और अंतरजातीय विवाह को शुभकामनाएं भी देता हूं।
संघ के स्वयंसेवकों की इस प्रकार की भूमिका सार्वजनिक रूप से होनी चाहिए। स्वयंसेवक को किसी तात्कालिक भावनाओं में न बहते हुए, अहंकार में, इधर-उधर की चपेट में नहीं आना चाहिए। संघ के स्वयंसेवक समाज की एकात्मता, अखंडता, समरसता को ध्यान में रखकर भूमिका तय करें और उसका निर्भय रूप से निर्वहन करें, इसकी आवश्यकता है।
समरसता की राह में कठिनाइयां क्या हैं?
सबसे बड़ी जरूरत आदत बदलने की है। दो हजार वर्षों से हम जो कर रहे हैं, उसमें कई बातों में धर्म के नाम पर अधर्म हो रहा है। अपनी पुरानी बातों का मोह यदि छोड़कर नहीं जाता, तो उस मोह को तोड़कर, सत्य के साथ खड़ा होना पड़ेगा। बालासाहब ने सिरे से कह दिया – जड़-मूल से खत्म (छङ्मू‘, २३ङ्मू‘ ंल्ल िुं११ी’)। भेदभाव का विषय सामने ऐसे आता है कि प्राचीन ब्राह्मण व्यवस्था ने मुझ पर अन्याय किया। वे स्वार्थी लोग थे, अहंकारी लोग थे। पहली प्रतिक्रिया में पूर्वजों का बचाव करना स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। वह कह रहा भेदभाव के निषेध की बात, उसके मन में हजारों वर्ष से चिढ़ है। चिढ़ को अनदेखा कीजिए। उसकी समता की बात का समर्थन कीजिए। क्योंकि अगर पूर्वज और परंपरा श्रेष्ठ है तो किसी के कहने से कोई आंच आने वाली नहीं है। अन्याय हो रहा है, तो उसका तो विरोध करना ही पड़ेगा। एक कार्यकर्ता से किसी ने एक बार कार्यक्रम में पूछा कि हिन्दू धर्म में प्रभु श्रीरामचन्द्र को आप बड़ा प्यारा मानते हैं, पर उन्होंने शंबूक वध किया, क्या उसका समर्थन करते हैं? तो हिन्दू के लिए यह बहुत टेढ़ा प्रश्न है। राम का निषेध करना, शंबूक वध का समर्थन करना-ये पेच फंसता है। संघ का जो कार्यकर्ता था उसने कहा कि पहले तो मैं आपका अभिनंदन करता हूं क्योंकि जिन्होंने आपको प्रश्न पूछने के लिए पढ़ा कर भेजा है, तो इस प्रश्न के जरिए उन्होंने भी मान लिया कि राम नाम के कोई हुए भी थे। यह बहुत बड़ी बात है। दूसरी बात है कि राम ने शंबूक वध किया या नहीं किया? क्योंकि अनेक लोग मानते हैं कि यह पूरा प्रकरण ही उत्तरकांड का पक्षिप्त भाग है। लेकिन हम जिस राम की पूजा करते हैं, उस राम ने एक अन्यायी राक्षस का वध किया था। शंबूक वध हमारे लिए राम के आदर का विषय नहीं है और अगर कल ऐसा सिद्ध हुआ कि ऐसा किया था तो हम शंबूक वध के लिए राम का धिक्कार भी करेंगे। ऐसा उसने सीधा उत्तर दिया। एक स्पष्ट भूमिका लेनी चाहिए। इसमें पूर्वजों का अनादर नहीं होता है। सावरकरजी कहते थे कि गलत बातों के लिए पूर्वजों को दोषी मत कहो, लेकिन पूर्वजों की गलत बातों का आदरपूर्वक धिक्कार करो। परंपराओं के बारे में अपनी भूमिका आदरपूर्वक धिक्कार की होनी चाहिए। ऐसा वे कहते थे। ऐसी बातों में कठिनाई आती है, संकोच होता है। ऐसे व्यावहारिक प्रश्नों में यदि स्वार्थ मार खाता हो, तो स्वार्थ छोड़ कर भी, जो उचित है उसका समर्थन करना चाहिए। उसमें कई बार समाज भी विरोध में खड़ा होता है। तो इसको सीखना पड़ता है, इसका आदर करना पड़ता है। अपने मन में आवश्यक साहस बना रहे, इसका प्रयास करना चाहिए। दूसरी बात आती है कि हजारों वर्ष अन्याय के कारण वहां क्रोध है, द्वेष है ये जानते हुए भी अपना प्रेम बनाए रखते हुए धैर्यपूर्वक व्यवहार करना। भड़ास निकलने के बाद वह शांत होगा-इस विश्वास के साथ सोचना पड़ेगा। इसका लाभ लेकर वहां सतत मन कलुषित करने वाले लोग और प्रवृत्तियां रहती हैं। यह षड्यंत्र चल रहा है। इसका ठीक से बंदोबस्त हो जाए। इसलिए अपने स्नेह से वहीं पर इसको समझने वाले लोग खड़े हों। यह बाधा नहीं, व्यवस्था की आवश्यकता है। यह सतत कार्य है।
आपने कहा कि समरसता सतत चलने वाला काम है। इसमें समाज के विभिन्न घटकों की क्या भूमिका हो सकती है?
ल्ल एक तो बड़ा अच्छा उदाहरण दीनदयालजी ने रखा है कि गढ्डे में कोई गिरा है और उसको निकालना है तो ऊपर वाले को झुकना होगा। तभी वह हाथ दे सकता है। और नीचे वाले को अपनी ऐड़ियां उठाकर हाथ ऊपर उठाने होंगे। तभी वह उस हाथ को पकड़ सकता है। यह प्रयत्न शुरू हुआ है। ऊपर से झुकने का संकोच हटना चाहिए। ये एक बात है। ऊपर वाले घटक को झुकने का प्रयास रना चाहिए। और नीचे वाला घटक अपनी ऐड़ियां उठा कर हाथ ऊपर कर रहा है, उसमें उसकी जितनी मदद हो सकती हो, वह करनी चाहिए। दूसरा, ठंडे दिमाग से सोचना, बोलना, करना चाहिए। बालासाहब ने उस व्याख्यान में यह बात कही है कि अस्पृश्यता, अन्याय बहुत साफ है। आखिर अपना समाज एक है, यही मान्यता है न। समाज को एक रखना है, न कि अस्पृश्यता के शिकार लोग और अस्पृश्यता चलाने वाले लोग, इस प्रकार के दो वर्गों को हमेशा बनाए रखना है या झगड़ा बनाए रखना है। अगर झगड़ा नहीं बनाए रखना है, सर्वत्र शांति बनाए रखनी है, तो अपने-अपने विषय को भूलने वाले दोनों तरफ के लोगों को गाली-गलौज की भाषा छोड़नी पड़ेगी। इधर के लोगों को समझना पड़ेगा कि यह हजार वर्षों की चिढ़ बोल रही है। बहुत कठोर भाषा सुनने के बाद भी गुस्सा नहीं आने देना, यह इनको करना पड़ेगा। और इधर के लोगों को धीरे-धीरे समाज को गुस्सा आएगा, दूरी बढ़ेगी, ऐसा न करते हुए, यह अंतर कम हो ऐसी भाषा रखनी पड़ेगी। अन्याय का स्पष्ट उल्लेख करते हुए भी हम यह कर सकते हैं। नेतृत्व करने वाले लोगों को भी विवेक होना चाहिए कि यह अन्याय है, इसे समाप्त होना चाहिए, पूरी तरह समाप्त होना चाहिए। और फिर कोई अन्याय करने वाला खड़ा न होना सके- इसका इंतजाम होना चाहिए। यह सब इसलिए करना है ताकि संपूर्ण समाज एक हो सके। आपस में दुर्भावना बढ़ाने वाली भाषा नहीं होनी चाहिए। फिर व्यवस्था में इस दृष्टि से जो-जो प्रावधान किए जाते हैं, या करने के सुझाव आते हैं, वे प्रावधान लागू हों। इस प्रक्रिया में सबको समाहित करते हुए, किसी की राह देखे बिना, नित्य व्यवहार में इसका प्रकटीकरण शुरू कर दें, तो फिर ये कार्य जल्दी हो जाएगा।
सामाजिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया में संघ की भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
ल्ल संघ की सबसे मूलगामी योजना प्रत्यक्ष व्यवहार के आधार पर सबको जोड़ना है। बाहर की परिस्थिति कुछ भी हो, समाज के सब वर्गों के लोग आपस में मित्र बनें। और जैसे एक वर्ग के लोगों में जो मित्र बनते हैं, फिर उनके परिवार भी मित्र बनते हैं, आना-जाना शुरू होता है, पारिवारिक आत्मीयता का व्यवहार होता है, उसी तरीके से सभी वर्गों के परिवार आपस में मिलते-जुलते रहें। ये जहां-जहां इस प्रकार का व्यवहार होता हो, ‘रोटी व्यवहार-बेटी व्यवहार’ तक में समता लाने का प्रयास होता हो, वहां-वहां अपना हाथ लगे, मदद हो, उसको बल मिले, उसकी विजय हो। यह हमारा कार्य है। अन्यायग्रस्तों का अन्याय जल्द से जल्द दूर हो। अपने व्यवहार के इस उदाहरण का समाज भी अनुकरण करे, इस उद्देश्य से समाज से बातचीत हो। इसलिए सर्वे करो, दुनिया के लोगों को बताओ कि यह ठीक नहीं है। उनको समझाओ। आपका व्यवहार भी लोग देखेंगे। उसके आधार पर समझेंगे तो उपाय होंगे।
एक कुआं, एक मंदिर, एक श्मशान के आपके आह्वान के बाद आपको समाज के विभिन्न मत संप्रदायों के अग्रणी नेतृत्व से किस प्रकार की प्रतिक्रियाएं मिलीं?
लगभग सारी प्रतिक्रयाएं अनुकूल रही हैं। विचार के तत्व को तो सौ प्रतिशत ने स्वीकार किया, लेकिन जिनको संघ की जानकारी नहीं है, अथवा जिनको विरोध ही करना है, उन्होंने इसके साथ ही जोड़ दिया कि अच्छा, अब जाग गए क्या? अब तक कहां थे? यह एक प्रकार है। यानी मंदिर, पानी, श्मशान एक हो- इस बात का विरोध नहीं किया, लेकिन मेरे कहने पर शंका का एक प्रश्नचिन्ह लगा दिया। अथवा यह कहा कि यह केवल बोलने की बातें हैं। विषय का सीधा विरोध कहीं नहीं हुआ। बहुत सारा समाज इससे आनंदित हो गया। संघ के सरसंघचालक ऐसा कहते हैं- इस बात से अन्यायग्रस्त समाज में तो एक आशा का संचार हुआ। इसके पीछे एक वृत्तांत है। मेरे भाषण में यह बात आने के पहले मैं पलामुरू गया था, जो तेलंगाना में है। वहां बहुत बड़ी संख्या ऐसे वर्गों की है, उनमें स्वयंसेवक भी हैं। यहां तथाकथित वाम विचारों के, तथाकथित दलित कहलाने वाले एक नेता मंच पर थे। पहले मेरा भाषण और बाद में उनका भाषण हुआ। मैं तब सरकार्यवाह था। मुझे सामाजिक समरसता का विषय रखना ही था। उसके बाद उन्होंने सार्वजनिक भाषण में कहा कि मैं तो मानता था कि संघ सवर्णों का है। लेकिन यहां तो मैं देख रहा हूं संघ में बहुमत तो हमारा हो गया और वह भी पूर्णकालिक लोगों में। और संघ के ‘जनरल सेक्रेटरी’ का भाषण मैंने सुना है। संघ भी सार्वजनिक तौर पर ऐसा बोलता है, यह मैं पहली बार सुन रहा हूं। उन्होंने प्रश्न भी किया कि वास्तव में संघ की भूमिका है क्या? भाषण होने के बाद हम सब बैठे हुए थे तो मैंने उनको कहा, हमारी यही भूमिका पहले से है, उनको आश्चर्य हुआ। फिर बाद में संवाद भी बढ़ा। कार्यकर्ताओं से और कभी-कभी मेरे साथ भी। इसी तरह की गप-शप में मैंने एक बार कहा कि मंदिर, पानी, श्मशान का विषय समाज में पहले जाना चाहिए, क्योंकि समाज को इस विषय में रोज की अनुभूति होती है। उन्होंने कहा, यह बात आप बोल नहीं सकते। मैंने कहा, मैं बोलने वाला हूं, आप आइए। उस विजयादशमी के उत्सव में वे आए। यह देखने के लिए आए कि मैं यह बोलता हूं या नहीं। इसके बाद उन्होंने अपने लोगों को संबोधित करते हुए बहुत बार यह कहा कि संघ इस प्रकार सोचता है। संघ वालों को दूर मत रखो। इस तरह जो वास्तव में प्रामाणिक नेतृत्व है, जो किसी राजनीति का भाग नहीं है, लेकिन जो पक्का तथाकथित दलित है, उसको यह सुनकर आनंद होगा। संघ के प्रति आशा जगेगी। संघ में विश्वास जगेगा। सारे देश में संदेश जाएगा।
राजनीतिक अनुकूलता इसमें कितनी सहायक होती है?
राजनीतिक अनुकूलता इसमें एक ही पहलू में सहायक हो सकती है। जो लोग राजनीति में हैं, वे सोचकर कुछ करें तो सहायक होती है। जहां समता चाहने वाले लोग सत्ता में हैं, वहां अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए संविधान प्रदत्त अधिकारों के साथ जगह-जगह पर जो कानूनी प्रावधान हैं, वे ठीक से लागू हो जाएं। यदि सरकारें इतना ही देख लें कि समय पर उनका धन आवंटित हो रहा है, योग्य व्यक्ति द्वारा कार्य हो रहा है, तो बहुत बड़ा काम हो जाएगा। यानी पचास प्रतिशत से ज्यादा उनकी दुर्व्यवस्था दूर हो सकती है। यह प्रावधान पहले से ही हैं। हम मानते हैं जहां-जहां सरकारों में स्वयंसेवक हैं, वहां उनका ध्यान इस ओर ज्यादा रहे। यह करना उनके हाथ में है, हम इसके लिए आग्रह कर सकते हैं, और कर भी रहे हैं।
समाज समरस हो, एकात्म हो, इसके लिए समाज अपने सामने क्या उदाहरण रख सकता है, उसकी प्रेरणा क्या होगी?
वास्तव में जो प्रेरणा है वह हमारी संस्कृति में है- सत्य, करुणा, शुचिता, तपस्या-धर्म के ये चार पात्र हैं। सत्य क्या है? सत्य हमारी सबसे बड़ी मान्यता है कि सबमें एक ही तत्व है और उसी का आविष्कार सब हैं। कोई छोटा-बड़ा नहीं, कोई अपना-पराया नहीं। सब अपने ही हैं। अब इसका स्वभाविक परिणाम है कि यदि कोई दुर्व्यवस्था हो तो अपनों के लिए करुणा मन में होनी ही चाहिए। धर्म यानी समाज की धारणा इन दो तत्वों से शुरू होती है कि सब मेरे ही अपने हैं, मैं ही सब में हूं, सब मुझमें हैं और इसलिए कोई दुर्व्यवस्था में न रहे, यह देखना मेरा काम है। यह करुणा आत्मीयता से उपजती है। ऐसा व्यक्ति यदि पवित्र है, स्वार्थी नहीं है, विकारों से दूषित नहीं है, लोभ-दंभ, मोह, काम-क्रोध उसमें नहीं है तो वह अपना जीवन लोक कल्याणकारी ही बनाएगा। लोक कल्याणकारी जीवन उसे धर्म की धारणा देगा। इसलिए धर्म यानी समाज की धारणा-इन चार बातों का ध्यान रखना चाहिए। यह हमारी संस्कृति का आदेश है। तथागत ने यही कहा है, भगवद्गीता में यही बात कही गई है। श्रीभगवत्पुराण यही कहता है। शिवपुराण यही कहता है। हमारी जितनी भारतीय विचारधाराएं हैं, उनके दर्शन अलग-अलग हैं। जगत के मूल में जड़ है या चेतन है, इसका चिंतन अलग है। लेकिन प्रत्यक्ष व्यवहार में सभी का आदेश सत्य है। यह केवल लिखित नहीं है। हमारे हजारों संतों ने ऐसा जीवन व्यतीत किया है। यह पुरानी बात नहीं है। आधुनिक संतों ने भी यही कहा है। स्वामी विवेकानंद ने वाराहनगर मठ के काम करने वाले मजदूरों को अपने हाथ से सुग्रास भोजन करवाया। उसका उत्सव मनाया। सबको बताया कि असली नारायण तो यही हैं। पीड़ा कैसी होती है, यह अनुभव करने के लिए गाडगे बाबा किसी बावड़ी पर जाते थे और पानी मांगते थे। किसान कहता था कि अभी मैं आराम कर रहा हूं, पानी पीना हो, तो तुम रस्सी से खींच लो। वह पानी खींचते थे। कई बार उनके पानी पीते समय किसान को याद आती थी कि वह किस जाति के हैं। गाडगे बाबा अपनी जाति जान-बूझकर नहीं बताते थे और मार खाते थे। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने भी ऐसा बहुत बार किया। ऐसे संत आधुनिक समय में भी हमारे यहां हैं। उनका प्रत्यक्ष जीवन है। सब त्याग करके और सब दुख सहन करके भी इस रास्ते पर चलते हैं। यह बहुत बड़ी प्रेरणा है। ये समाज मेरा अपना है। देश मेरा अपना है। यह क्या कम बड़ी प्रेरणा है! मेरे अपने लोग ऐसे ही रहे, तो मेरा नाम किस काम का। क्या रहेगा दुनिया में? मैं भारत से विदेश में जाता हूं, तो भारत में जात-पात का इतना बड़ा भेद है, यह बात मेरी गर्दन झुकाएगी या ऊंची करेगी? समाजभक्ति, देश भक्ति, संस्कृति भक्ति यह बहुत बड़ी बातें हैं।
भारतीय दर्शन की बात करें, तो विविधता में एकता हिन्दू समाज की शक्ति है, इसमें भेद पैदा करने की होड़ क्यों बढ़ रही है?
भेद पैदा होने का एक कारण तो अपनी आत्मविस्मृति है। मैं आपको अपना प्रतिद्वंद्वी मानने लगूं, तो स्वाभाविक तौर पर, अपनी हित रक्षा के स्वार्थ में मैं आपकी हित रक्षा की अनदेखी करने लगूंगा, कभी-कभी आपके हित का विरोध भी करूंगा। देश पर आक्रमण करने वाला, जो कम से कम उस दिन तो आपका और मेरा दोनों का विरोधी होता है। लेकिन आपस में भेद होने के कारण मैंने ऐसा नहीं माना, और आपको नीचा दिखाने के लिए मैंने उसको बुला लिया। बाबासाहब आंबेडकर ने भी संविधान सभा की बहस में यही कहा कि किसी ने अपने बल पर भारत को नहीं जीता। हमारे अपने भेदों के कारण वे जीते और गद्दारी के कारण हमने अपना देश उनके हवाले किया। यह हमारे देश के इतिहास का हिस्सा रहा है। इसकी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए। यह हमारी आत्मविस्मृति की पराकाष्ठा है। फिर से हम उस ज्ञान का स्मरण करें कि हम एक हैं। इन भेदों को और चौड़ा करने वाली निहित स्वार्थी शक्तियां देश के अंदर और देश के बाहर बहुत हैं। जहां-जहां लोगों को बांट कर लाभ हो सकता है, वहां-वहां लोगों को बांटना और उनके बंटवारे की आग पर अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकना— ऐसा करने वाले लोग और स्वार्थी शक्तियां रहती हैं। ये लोग उसका लाभ लेते हैं। मैं समझता हूं कि बार-बार ऐसा करने वाले लोगों के बजाए ज्यादा उचित होगा कि हम लोगों का ध्यान इस पर हो कि हमको यह याद रखना है और याद रखके उचित व्यवहार करना है।
आप देश में लगातार प्रवास करते हुए समरसता का विषय रख रहे हैं। आप इसका फलित कैसे देखते हैं?
ल्ल देखिए, मुझे लगता है कि समरसता पर आग्रह रखें और इन बातों के पीछे अपना व्यवहार सब पहलुओं पर स्थापित करें, वही हम लोग कर रहे हैं। इससे एक दिन यह बात सिरे चढ़ेगी और समाज इसको मानेगा। क्योंकि लोगों को बांटने वाले और उस पर अपना खेल खेलने वाले लोग बहुत थोड़े दिन के हैं। और ऐसे थोड़े लोग हैं जो ये सारी बातें समझकर एकदम आदर्श व्यवहार अपने आप कर रहे हैं। बीच का जो अस्सी प्रतिशत या नब्बे प्रतिशत समाज है, वह हवा के साथ इधर उधर झूलता है किन्तु मूल में मनुष्यता से परिपूर्ण है। इसलिए वह सद्प्रवृत्त है। सद्प्रवृत्ति की राह मिलेगी तो वह उधर जाएगा। सद्प्रवृत्ति की हवा जितनी जल्दी बनाएंगे, उतना जल्दी समाज उसी पर आ जाएगा, जो उचित है, सत्य है और न्यायपूर्ण है। मुझे लगता है कि, जैसा कि बाबासाहब कहते थे भेदरहित, समतायुक्त, शोषणमुक्त राष्ट्र व समाज का सपना लेकर हजार सालों में बहुत उठापटक हुई है। बहुत लोगों ने काम किया है। लेकिन तब से लेकर अब तक चले सारे प्रयासों का सम्मिलित फल आने वाले समय में हमें मिलने वाला है और भेदरहित समाज का निर्माण होने वाला है।
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