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संगठन यानी सबको एकत्रित करना। सबको साथ लेकर चलना। कोई द्वेष नहीं, मत भिन्नता नहीं, सब समान हैं का भाव लोगों में भरना। उन्हें यह समझाना कि एकत्रित या एकजुट क्यों रहना है। यह काम कोई आसान नहीं है, बहुत कठिन है
8 मई, 1974 को पुणे की सुप्रसिद्ध वसंत व्याख्यानमाला में बालासाहब देवरस का ‘सामाजिक समता तथा हिन्दू संगठन’ विषय पर भाषण हुआ। बालासाहब ने भाषण से पहले बारीकियों में जाकर विषय का अध्ययन किया। संस्कृत और दर्शनशास्त्र के छात्र होने के बावजूद बालासाहब ने नागपुर के कृष्णशास्त्री बापट से पुरुष सूक्त को समझा और भाषण-आलेख कई कार्यकर्ताओं को पढ़कर सुनाया। भाषण देने से पहले उसकी टाइप प्रति पुणे में रहने वाले प्रांत संघचालक बाबाराव भिड़े को दिखाई। इसलिए संघ ही नहीं, भारत के जन जागरण के इतिहास में इस भाषण का असाधारण महत्व है। प्रस्तुत है बालासाहब का वही सारगर्भित व्याख्यान
सामाजिक समता तथा हिन्दू संगठन इस विषय का प्रारंभ होते ही ‘हिन्दू कौन?’ यह प्रश्न सामने आता है। हिन्दू संज्ञा की अनेक परिभाषाएं उपलब्ध हैं। किंतु वे परिपूर्ण नहीं हैं। इसमें कुछ परिभाषाएं स्वीकृत भी हैं। किन्तु ऐसी परिभाषाओं को लेकर जब चर्चा प्रारंभ होती है तो वह बिखर जाती है एवं विवाद में उसकी परिणिति होती है, ऐसा अनुभव में आता है। कोई भी परिभाषा कितनी भी ध्यानपूर्वक बनाई गई हो, अव्याप्ति या अतिव्याप्ति उसमें बनी रहती है। इस संदर्भ में हमारा यह अनुभव है कि इसीलिए हिन्दू संज्ञा को लेकर ही विवाद खड़ा करने का प्रयास चलता है। मैं स्वयं हिन्दू संज्ञा की परिभाषा देना नहीं चाहता। क्योंकि परिभाषा करना कठिन है। उसमें उपरोक्त त्रुटियों में से कुछ कमी अवश्य होगी। किन्तु हिन्दू संज्ञा की परिभाषा नहीं हो पाती, इस कारण हिन्दू समाज के अस्तित्व को नकारने का विचार करना भूल होगी। परिभाषा न होने पर भी हिन्दू समाज का अस्तित्व तो प्रत्यक्ष है, यह हम सभी अनुभव करते हैं। अंग्रेजों के शासनकाल में एक विचित्र विभाजन बनाया गया था। कुछ समष्टियां मुसलमान तथा बाकी सारी गैर मुसलमान, ऐसी वह रचना थी। हम सभी इसमें, गैर-मुसलमान संज्ञा में समाविष्ट थे। फिर भी हम अपने समाज के संबंध में इस प्रकार नहीं सोचेंगे, हम सभी हिन्दू हैं, फिर परिभाषा में इसे व्यक्त करना संभव हो या न हो। हम सभी हिन्दू हैं इसका प्रकटीकरण भिन्न-भिन्न पहलुओं के माध्यम से होता है। भिन्न-भिन्न स्थानों पर, समय-समय पर इसका अनुभव भी होता है। हिन्दू समाज इस संज्ञा के अंतर्गत कौन-कौन समाविष्ट है, इस विषय में भी सभी घटकों की एक निश्चित एवं समान धारणा है।
कुछ वर्ष पूर्व अपने देश में एक ‘कोड’ बनाया गया—हिन्दू कोड। संसद ने इसे पारित किया। वह पारित हो इसलिए जिन्होंने नेतृत्व किया उसमें पं. नेहरू, डॉ. आंबेडकर थे। कोड प्रस्तुत होने के बाद जिस बहुसंख्यक तबकों में वह लागू करना था, उसे कौन-सी संज्ञा देना, यह समस्या उनके सम्मुख खड़ी हुई तो उन्हें कोई नाम सूझा नहीं। उन्हें इस कोड को ‘हिन्दू कोड’ ही कहना पड़ा। इस कोड में कौन समाविष्ट है यह कहते समय प्रारंभ में ही उन्हें कहना पड़ा, मुसलमान, ईसाई, यहूदी तथा पारसी यह चार तबके छोड़ हिन्दुस्थान के अन्य सभी तबकों को जैसे सनातनी, लिंगायत, जैन, बौद्ध, सिख, आर्यसमाजी आदि सभी पर यह कोड लागू होगा। हिन्दू संज्ञा के अंतर्गत कौन समाविष्ट है, यह स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि यह सभी पर लागू होगा तथा और भी आगे बढ़कर कहा कि उपरोक्त सूची में से बाहर भी जो शेष होंगे, उन सभी पर भी यह लागू होगा। तथा जो अपने आपको इसके बाहर मानता है, या जिसे लगता है कि हम पर यह लागू नहीं होता है, उसे यह प्रमाणित करना होगा। यही कारण है कि हिन्दू संज्ञा की निश्चित परिभाषा न होने के कारण हिन्दू यह समाज ही नहीं है, ऐसा विवाद जो समय-समय पर खड़ा किया जाता है, वह उचित नहीं है। हिन्दू कोड के दायरे में यह सभी लोग आते हैं, ऐसा पं. नेहरू और डॉ. आंबेडकर कहते हैं। इसका निष्कर्ष यह हुआ कि इसकी पृष्ठभूमि में कुछ ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक कारण होंगे। किसी व्यक्ति विशेष की इच्छा के फलस्वरूप यह नहीं हुआ। यही कारण है कि इन सभी जन-समुदायों को ‘हिन्दू’ इस संज्ञा में समावेशित कर मैं आगे विषय रखूंगा।
ऐसे सभी हिन्दुओं को हमें संगठित करना है। संगठित करना इसके मायने यह कि उन सभी को साथ लाना। संगठन; भीड़, मोर्चा या कोई सभा इस अर्थ से नहीं। संगठन का अर्थ सभी को साथ लाना, साथ रहने का महत्व उन्हें विशद करना और एक साथ रहें इसलिए प्रयास करना। यह कार्य साधारण नहीं, दुष्कर है। कुछ आधार तो भावनात्मक रहेगा, यह पक्का है। कारण मनुष्य स्वभावत: ऐसा ही बना है। इसलिए यह हमारी मातृभूमि है, हम इसके पुत्र हैं। हजारों वर्षों से हम यहां बसे हुए हैं, हमने इस देश को बनाया है- बिगाड़ा है, अतीत में हमने इस देश का उज्ज्वल इतिहास निर्माण किया, विश्व को भी हमारी कुछ देन है, यह श्रेय भी हमारा है, कुछ बिगड़ा है तो उसके दोषी भी हम ही हैं; यह कारण-परंपरा है कि इस मातृभूमि के पुत्र होने के कारण हम सभी एक साथ रहें। एकसाथ व्यवहार करें, ऐसा भावनात्मक आह्वान तो अवश्यंभावी है। जो स्वयं को ‘प्रामाणिक’ समझते हैं, व्यवहारी समझते हैं, तर्कसंगत मानते हैं, उन्हें भी ऐसा भावात्मक आधार आवश्यक हो जाता है और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। द्वितीय विश्वयुद्ध में रूस पर गहरा संकट छा गया तब स्टॉलिन को भी ‘हम एक राष्टÑ हैं’ इसका स्मरण रूसी जनता को कराना पड़ा। राष्टÑीयता तथा मातृभूमि का आह्वान करना पड़ा।
ऐसे भावात्मक आह्वान की आवश्यकता अनिवार्य है। किन्तु इतना ही पर्याप्त है क्या? इस विषय में भी विचार की आवश्यकता है। कार्य करते समय यह ध्यान में आता है कि, इतने मात्र से काम नहीं चलेगा। भावात्मक आह्वान तो अनिवार्य है ही, किन्तु साथ-साथ जिनके लिए यह भावात्मक आह्वान है, ऐसे सभी बन्धुओं को समाज में चलते-फिरते इसका व्यावहारिक अनुभव होना चाहिए कि, हम सब एक हैं, हम सब समान हैं। इस एकत्व का अनुभव सदैव सहजता से होना चाहिए। भावात्मक आह्वान के साथ-साथ व्यवहार में भी यह अनुभव सभी घटक पाएंगे तभी संगठन की, एकता की नींव दृढ़ होगी, चिरस्थायी होगी। इसी कारण भावात्मक आह्वान के साथ ही समाज के सभी घटकों को ऐसा समानता का व्यवहार अनुभव हो, यह आवश्यक है। यह दृष्टिगत रखकर विचार होना क्रमप्राप्त है।
विगत कई शतकों के इतिहास से हमने यह जाना है कि मुट्ठीभर मुसलमान यहां आये, अंग्रेज तो बहुत ही अल्प थे, फिर भी दोनों यहां शासक बने। हममें से कई लोगों का उन्होंने कन्वर्जन किया। उन्होंने हमारे बीच तरह-तरह के भेद निर्माण किये। ब्राह्मण-अब्राह्मण विवाद खड़ा किया, सवर्ण-अछूत विवाद खड़ा किया। इसके लिए हम मुसलमान तथा अंग्रेजों को दोषी ठहराते हैं। उन्होंने ऐसा कुछ किया होगा, वे दोषी थे और है— दायित्वमुक्त नहीं हो सकते। कुछ लोग ऐसा मत प्रदर्शित करते हैं कि इसके लिए अंग्रेज-मुसलमान उत्तरदायी हैं। उन्होंने यह भेद, विकृतियों को उभारा। इसमें कुछ अत्यांश है। बर्लिन में जैसी एक दीवार खड़ी की गई है, क्या वैसी दीवार खड़ी कर हम अन्य राष्टÑों से, विचारों से, संस्कृति से अपने-आपको अलग रख पाते? यह तो असंभव था। दीवारें कौन खड़ी करते हैं? दीवारें वे लोग खड़ी करते हैं जो स्वयं के संबंध में सशंक्ति हैं, जो अन्य लोगों के तत्वज्ञान से भयभीत हैं। जो परंपरा साथ-साथ अस्तित्व में होती है, उसमें जो उत्तम होगी, उसका ही श्रेष्ठत्व सभी मानेंगे।
इसलिए औरों को दोष देना छोड़कर, अन्तर्मुख होकर, हमारे भीतर क्या कमियां थीं कि जिसके फलस्वरूप हमारे दोषों का लाभ अन्य लोग उठा सके, यह चिंतन भी हमें करना होगा। संघ-संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार इस विषय में कुछ अलग रीति से सोचते थे। जब-जब यह विषय उनके सामने उपस्थित होता, तब वे कहते कि मुसलमान या अंग्रेजों को दोषी ठहरा कर ही हम मुक्त नहीं हो सकेंगे। हमारे भीतर की कमियां, दोष भी पहचानना होगा। इस रीति से हम भी सोचने लगें तो हमें भी यह स्वीकार करना होगा कि हमारे समाज में स्थित विषमता एक ऐसा प्रभावी कारण था कि जिसके कारण अनेक लोगों ने धर्म को त्याग दिया। कई विवाद हमारे समाज में फैलाकर पराये लोग हमारे समाज को तोड़ सके। वर्ण-भेद, जाति-भेद, छुआछूत, यह सामाजिक विषमता के ही कुछ दृश्य परिणाम है। हिन्दू समाज का संगठन करने वाले तथा औरों का भी यही अनुभव है कि समाज में विचरण करते समय पग-पग पर यह प्रश्न बाधाएं उत्पन्न करता है। इसलिए औरों पर दोष न थोपकर सामाजिक वैषम्य की चिंता का वहन हमें ही करना होगा।
हिन्दू संगठकों का चिंतन इस विषय में कैसा हो? उनके लिए तो यह एक जटिल विषय है। क्योंकि हमें अपनी संस्कृति पर गर्व है, धर्म पर गर्व है। हमारी यह धारणा है कि जिस पर हम गर्व करें, ऐसा बहुत कुछ हमारे पास है। दुनिया के लोग भी इसे मानते हैं कि हमने यहां इस प्रकार का जीवन दर्शन निर्माण किया, ऐसी जीवन विषयक धारणा निर्माण की कि जो मानवी जीवन के उपयुक्त है, इष्ट है। अनेक शतकों की उथल-पुथल के बाद भी इस देश के निवासियों ने अपने शाश्वत जीवन-मूल्य अबाधित रखे। वे भविष्य में भी बने रहें, यह हम सभी की चाह है। यह शाश्वत जीवन-मूल्य, संस्कृति पर गर्व करना, गर्व करने योग्य जो परंपराएं हैं, उनका जतन करना और इन बंधनों का ध्यान रखकर हमारे अंदर विद्यमान दोष, कमियों, वैषम्य के संबंध में चिंतन करना ऐसी यह विचार पद्धति है। यह तो सभी समझते हैं कि पुरानी परंपराओं पर गर्व करते हुए भी, पुराना सभी अनुकरणीय, परिवर्तनीय शास्त्रोक्त ऐसा सोचकर नहीं चलेगा। ‘पुराणमित्येव न साधु सर्वम्’, कोई परंपरा प्राचीन है, इसीलिए वह अनुकरणीय है यह कहा नहीं जा सकता। फिर भी कभी-कभी हिन्दू संस्कृति के समर्थक यह भी सोचते हैं कि, पुरानी अनेक रूढ़ियां हमारे समाज में अब भी विद्यमान हैं, अपने पुरखों ने उन्हें जीवित रखा, इससे उनका तो कुछ बिगड़ा नहीं, फिर अब नये सिरे से सोचने का कारण क्या? किन्तु यह सोच भी उचित नहीं है। ‘तातस्य कूपोड्यमिति ब्रुवाण:। क्षारं जलं कापुरुषा: पिबन्ति।’ यह सुभाषित हम जानते ही हैं। ‘हमारे दादा-परदादाओं का कुआं है, पानी खारा है, फिर भी हमारे दादा-परदादा इसे ही पीते रहे, उनमें यदि कोई दोष उत्पन्न नहीं हुआ, फिर हमें वह पीने में क्या आपत्ति है?’ यह विचार करने की जो एक पद्धति है, वह ठीक नहीं है। हमारे सुभाषितकारों ने ऐसे व्यक्ति की सराहना नहीं की है। उसे ‘कापुरुष’ कहा है। जल का आधुनिक प्रबंध उपलब्ध है, नल लगे हुए हैं, फिर भी हम पुराने कुएं का जल ही पीते रहेंगे और इसके लिए दादा-परदादा की गवाही देते रहेंगे, यह कार्य इष्ट नहीं है, यह तो स्पष्ट ही है। इसीलिए, पुराना सब सही तथा जो अबतक चलता आया है और जिस कारणों से वह चलता आ रहा है इस कारण वह आगे भी चलेगा, ऐसी सोच समाज के संबंध में हितकारक नहीं होगी। यह हिन्दू संगठन का कार्य करने वालों को ध्यान में लेना अत्यंत आवश्यक है। समाज में सभी प्रकार के लोग रहेंगे। उसमें कुछ लोग ऐसे होते हैं कि किसी भी नई चीज देखने में आई तो उनके लिए वह ग्रहणयोग्य, आदर्श, श्रेष्ठ प्रतीत होती है। अन्य एक तबका समाज में ऐसा है कि कोई भी आधुनिक उपक्रम उन्हें त्याज्य, बेकार, अनुपयुक्त लगता हैं। ऐसे दोनों वर्ग के लोग समाज में होना स्वाभाविक है। परंतु जिन्हें समाज को दोषरहित बनाना है एवं समाज को संगठित करना है, उन्हें इस संबंध में किसी भी प्रकार की इकतरफा भूमिका ग्रहण न करते हुए, ‘परीक्ष्यान्तरत भजन्ते’ यह दृष्टिकोण रखना चाहिए। संतुलित व्यवहार करना, जो ग्राह्य है, उसे रखना, जो त्याज्य है, उसे छोड़ना, उसमें दुख का कुछ कारण नहीं ऐसा सोचकर आगे बढ़ते रहना चाहिए। जितनी अधिक मात्रा में लोगों में यह विचार दृढ़ होगा, उस मात्रा में हम हिन्ूद संगठन का कार्य और अच्छी भांति बढ़ा पाएंगे, वैषम्य का निर्मूलन कर पाएंगे, ऐसी मेरी धारणा है। इसलिए अधिकाधिक लोग इस पद्धति से सोचेंगे तथा व्यवहार करने उद्युत्त होंगे, इस ओर ध्यानपूर्वक प्रयास करना चाहिए।
कुछ समय पूर्व मैंने यहूदी लोगों के संदर्भ में एक पुस्तक पढ़ी। इस पुस्तक में ऐसा लिखा है कि यहूदी लोग हर सौ-दो सौ वर्षों के बाद सम्मिलित होकर अपने पुराने ग्रंथों का विश्लेषण किया करते थे। उस ग्रंथ के तथा अपने आचार-विचारों को परखते थे। धर्म-ग्रंथ की भाषा बदलना तो अपेक्षित नहीं था, इसलिए समय-समय पर वे उन धर्म-ग्रंथों पर भाष्य किया करते। कालानुरूप लिखित इन भाष्यों का उन्होंने लोगों में प्रचार किया। इसीलिए यहूदी समाज सारे विश्व में बिखरा होने पर भी उनका व्यवहार कालानुरूप सुसंगत रहा। कालान्तर के बाद ऐसा भाष्य उनका अभ्यास बन गया। तात्पर्य यह कि धर्म का शाश्वत अंश कौन-सा तथा परिवर्तनीय अंश कौन-सा, इसका उन्होंने विचार किया। मेरी ऐसी धारणा है कि कभी किसी कालखंड में हमारे देश में भी ऐसा विचार निश्चित रूप से होता होगा। अन्यथा इतनी सारी स्मृतियां लिखी नहीं जातीं। शाश्वत अंश एवं परिवर्तनशील अंशों को अलग कर उचित परिवर्तन पूर्वकाल में हुए होंगे। हमारी देवताओं में कितने सारे परिवर्तन आये हैं। प्राचीन काल में इंद्र, वरुण, अग्नि आदि देवता पूजे जाते थे, तो आज विष्णु, शिव आदि की उपासना चलती है। एक समय ऐसा था कि शैव और वैष्णव एक दूसरे की ओर देखते भी नहीं थे। आद्य शंकराचार्य ने इनमें समन्वय साधा। पंचायतन पूजा रूढ़ हुई। और अब घर-घर में शिवरात्रि के साथ शयनी तथा प्रबोधिनी एकादशी का भी आयोजन होता है। प्राचीन काल में भी समन्वय साधन, नये भाष्यों का निर्माण ऐसे प्रयास चलते थे। जो कुछ पुरातन है उसका अक्षरश:, शब्दश: पालन हो, यह आग्रह उन दिनों नहीं होगा ऐसा लगता है। प्राचीन ग्रंथ कहानियों से भरे पड़े हैं। क्या उन कहानियों पर हम अक्षरश:, शब्दश: विश्वास रखते हैं? नमूने के लिए देखेंगे, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण क्यों होता है? इसके साथ एक कहानी जुड़ी हुई है। वह यह कि, राहु-केतु च्रद्र-सूर्य को निगल जाते हैं, इसलिए ग्रहण लगते हैं। क्या बालकों के पाठ्यक्रम में ऐसा लिखना उचित होगा? जो कुछ शास्त्रोक्त, विज्ञान द्वारा प्रमाणित है, उसे ही पाठ्यक्रम में समाविष्ट किया जाएगा।
किन्तु रूढ़िप्रियता तथा धर्म-ग्रंथों पर शब्दश: विश्वास यह दोष मात्र हिन्दुओं में ही है, ऐसा मानना भूल होगी। अमेरिका को हम बड़ा विज्ञानवादी देश मानते हैं। वहां एक राज्य में 1925 में एक मामला कोर्ट में दाखिल हुआ था। ‘रीडर्स डायजेस्ट’ के जुलाई 1962 की संख्या में यह जानकारी आयी थी। ‘ट्रायल दैट रॉक्ड द वर्ड’ यह उसका शीर्षक था। प्रकृति-सृष्टि-मनुष्य की उत्पत्ति के संबंध में एक पाठ एक शालेय पुस्तक में था। नये क्रम-विकास के सिद्धांत पर आधारित वह पाठ था। एक शिक्षक यह पाठ पढ़ा रहे थे। इसे लेकर एक ईसाई सज्जन ने, बाइबल में सृष्टि एवं मनुष्य की उत्पत्ति का जो सिद्धांत है, उसके विपरीत शिक्षा इस पाठ में है, ऐसा आक्षेप लिया। उस अभियोग की बहुत चर्चा हुई तथा बाइबल के विपरीत पढ़ाने के लिए शिक्षक को दंड भी मिला। आज ईसाइयों ने बाइबल में कथित सृष्टि तथा मनुष्य की उत्पत्ति के सिद्धांत को त्याग दिया है। परंतु इतना सारा होने पर भी उनके मन में बाइबल के प्रति श्रद्धा-भाव कायम है। अन्यों को यह बड़ा विचित्र लगता है। परंतु सृष्टि-निर्माण विषयक बाइबल का प्रतिपादन त्यागने पर भी ईसाइयों ने बाइबल के प्रति श्रद्धा-भाव का त्याग नहीं किया। इसका तात्पर्य इतना ही है कि अन्य देशों में भी ऐसी समस्याएं उपस्थित होती हैं तथा उनके समाधान का मार्ग ढूंढा जाता है। हमें भी अपने देश में ऐसी अवस्था में सही हल निकालना होगा। कई लोग यह सारा ईश्वर प्रणीत है, ऐसा कहने की चेष्टा करते हैं। ऐसा करने का उनका हेतु यह प्रमाणित करने का होता है कि यह अपरिवर्तनीय है, क्योंकि भगवान ही ऐसा कह गए हैं।
किन्तु ऐसा सोचकर चलना कब तक संभव है? वैसे तो भगवान, जब-जब धर्म की हानि होती है तब मैं बारंबार अवतार लेता हूं, ऐसा कह गए हैं। क्या इसका निष्कर्ष ऐसा निकलेगा कि जब आप अवतार ग्रहण करते हैं, पूर्व स्थिति को ही बनाये रखते हैं? उसमें थोड़ा भी परिवर्तन नहीं करते? इसका ऐसा निष्कर्ष उचित नहीं होगा। इसका दूसरा अर्थ, वह आवश्यक परिवर्तन करते हैं यह भी निकाला जा सकता है। इस्लाम में पैगम्बर कहते हैं,‘‘मैं अंतिम पैगंबर हूं।’’ हमारे किसी अवतार ने इस तर्ज पर,‘‘मैं अंतिम अवतार हूं’’ ऐसा नहीं कहा। इस आधार पर, यह अपरिवर्तनीय है, ऐसी भूमिका लेना कहां तक सही होगा इसे सोचना चाहिए। जब-जब धर्म का पुनर्स्थापन होता है उसमें प्राण-तत्व पुराना ही होता है, मात्र अभिव्यक्ति एवं आविष्कार ही बदलते हैं, यही अर्थ हमें अभिप्रेत होना चाहिए और ऐसे सुधारों की सराहना होनी चाहिए, ऐसा मुझे लगता है। प्राचीन समय से जो व्यवस्थाएं बनीं उस विषय में हमारी सोच सटीक होनी चाहिए। ऐसा चिंतन करने वाले पुरातन लोग नासमझ थे, उन्होंने मनमानी की, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं, इसके विपरीत उस कालखंड में समाज की जो आवश्यकताएं थीं, जिससे समाज की योग्य धारणा बनेगी, प्रगति होगी ऐसा समाज के पुरोधाओं के ध्यान में आया। तदनुसार देश-काल-परिस्थिति को सामने रखकर उन्होंने यह किया, यह ध्यान में लेना चाहिए। उस कालखंड की परिस्थिति में यह करना पड़ा होगा, ऐसा विचार करना चाहिए। आज उसकी जरूरत न हो, उपयुक्तता न हो तो हम उसे बदलेंगे, किन्तु उस परिस्थिति में यह रूढ़ि क्यों चल पड़ी, यह भी हमें अच्छी तरह समझना आवश्यक है।
यह विचार करते समय स्वभावत: हमारे सम्मुख वर्ण-व्यवस्था का विषय उपस्थित होता है। ऐसा कहने में आता है कि प्राचीन काल में वर्ण-व्यवस्था नहीं थी, परंतु बाद में समाज की उचित प्रगति हो, योजनापूर्वक प्रगति हो ऐसा ध्यान में आया, तब उस समय के मनीषियों ने ऐसा चिंतन किया कि समाज में चार प्रकार के काम व्यवस्थित हों। वे यदि सुचारु रूप से, व्यवस्थित हो सकेंगे तभी समाज की धारणा होगी, ऐसा सोचकर उन्होंने समाज-घटकों के गुणों का निरीक्षण कर, क्षमता का आकलन कर, व्यक्ति-समूह की क्षमता का मूल्यांकन कर वर्ण-व्यवस्था लागू की होगी। ऐसा किसी ने कहा है। व्यवस्था में वर्गीकरण अनिवार्य है। किन्तु वर्गीकरण का अर्थ भेद नहीं था। भेद यह एक भिन्न पहलू है। उस व्यवस्था के पीछे स्पष्टीकरण अभिप्रेत था, भेद नहीं। इसीलिए प्रारंभ में उसका आधार जन्म नहीं था ऐसा अनेक लोगों का मत है। किन्तु इस व्यवस्था में ऐसे विशाल देश में, इतनी अधिक जनसंख्या के होते हुए, आवागमन के साधनों के अभाव में, किसकी क्या गुणवत्ता है, सोचा क्या है, ऐसे प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक था। इसके निर्णय के लिए कोई कसौटी या जांच नहीं थी। संभवत: यही कारण होगा कि गुण जन्म से जुड़े होते हैं, यह उनकी भूमिका बनी होगी तथा यह विचार ही आगे रूढ़ हुआ होगा। फिर भी, उस समय भी ऊंच-नीच यह भाव उनके मन में नहीं था। समाज का वर्णन उन्होंने सहस्रशीर्ष, सहस्रपाद, सहसाक्ष ऐसा किया है तथा हम सभी इस समाज-पुरुष के अंग है, येभव्य, उदात्त विचार रखा। पैरों से क्या जंघाएं श्रेष्ठ होती है? जंघाओं से क्या हाथ श्रेष्ठ होते हैं? हाथों से क्या मुंह श्रेष्ठ होता है? ऐसा नहीं होता। यह सारे घटक समाज की धारणा के लिए अनिवार्य हैं यही विचार इसमें अंतर्भूत था। एक-दूसरे में कौन बड़ा है, सही है यह भावना उसमें नहीं थी। यह सभी विराट समाज-पुरुष के अंग हैं, यह वह मान्यता थी। इस कारण आज हम जिस प्रकार के भेद उसमें देखते हैं, वैसे भेद ढूंढना उस काल में कल्पना से परे था। उसे उन पर लादना अन्याय होगा। इसमें भेदभाव नहीं था। यही कारण है कि यह व्यवस्था उन दिनों सर्वमान्य थी तथा सर्वमान्य होने के कारण सदियों तक बनी रही। वह सुचारु रूप से चलें इसलिए कुछ ‘चेक एंड बैलेंस’ का प्रबंध था। जैसे, ज्ञान-शक्ति जिनको दी उन्हें निर्धन रखा, दंड शक्ति व धन शक्ति को भी एक दूसरे से अलग रखा। यह सभी ‘चेक एंड बैलेंस’ ही थे। जब तक इनका नियंत्रण ठीक रहा, यह व्यवस्था चलती रही।
उन लोगों ने कितनी भी चुस्त व्यवस्था बनायी हो, आगे चलकर उनके वंशज यह सारे चेक एंड बैलेंस का उचित नियोजन नहीं कर पाये, जिसके कारण उसमें दोष उत्पन्न हुए। दोष कहां उत्पन्न नहीं होते? साम्यवादी सारी दुनिया से विषमता नष्ट करने निकले हैं, सभी को समान स्तर पर लाने वाले है, जो गत पचास सालों में एक नया प्रयोग है। यह होते हुए भी मिलोवन जिलास ने ‘द न्यू क्लास’ पुस्तक में कहा है कि साम्यवादी देशों में ही एक नयी श्रेणी खड़ी हुई। साम्यवादी शासन व्यवस्था के मात्र पचास वर्ष की कालावधि में ही ऐसा लिखने के लिए जिलास बाध्य हुए। जो सारी विषमता समाप्त करने के लिए अग्रसर है, उनके ही विषय में यह लिखना पड़ा। क्योंकि मनुष्य स्वभाव ही कुछ इस प्रकार का है, उसका व्यवहार ऐसा कुछ है कि कालांतर के बाद इस प्रकार के दोषों को वह जन्म देता है। कहीं पर हित-संबंध उत्पन्न होते हैं। ऐसे ही कुछ दोषों के फलस्वरूप यह व्यवस्था टूटी, बिगड़ी। किंतु उसके प्रणेताओं को यह अभिप्रेत नहीं था, इसे स्वीकार करना ही होगा।
इतने बड़े विशाल देश में, विशाल समाज में गुण निर्धारण के लिए किसी कसौटी के अभाव में जन्म पर आधारित व्यवस्था को उन्हें अपनाना पड़ा, इसमें तथ्यांश है, फिर भी हमारे पुरखे इस बात के विषय में पूर्णरूपेण सतर्क थे कि जन्मजात गुणवत्ता की अपनी मर्यादा होती हैं। वह उसे समझते थे। प्राचीन धर्मग्रंथों में ऐसे वचन सर्वत्र बिखरे हुए है, जिससे प्रतीत होता है कि इन संभावनाओं की उन्हें कल्पना थी। ‘शूद्रोड्पि शीलसंपन्नो गुणवान ब्राह्मणो भवेत। ब्राह्मणोड्पि क्रियाहीन: शूद्रात प्रत्यवरो भवेत।’ ऐसे वचन प्राचीन ग्रंथों में उद्धृत हैं। व्यवहार के आधार पर शूद्र भी ब्राह्मण बन सकता है तथा ब्राह्मण भी शूद्र में परिवर्तित हो सकता है। यह अर्थ इससे प्रकट होता है। ‘जातिर्ब्राह्मण इति चेत न’ यानी ब्राह्मणत्व जन्म के साथ जुड़ा हुआ था, यह भी नहीं कहा जा सकता, ऐसा प्रतिपादन कर ऋषिशृंग, वशिष्ठ, विश्वामित्र सहित अन्य जातियों में जन्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति भी धर्माचरण के फलस्वरूप, तपस्या के बल पर ब्राह्मण कहलाने लगे, यह हमारे प्राचीन धर्म-ग्रंथों में विदित है। शूद्र माता का पुत्र महीदास अपनी गुणवत्ता के बल पर द्विज हुआ तथा उसने ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ की रचना की। जिसके जन्मदाता का अता-पता नहीं था, ऐसे जाबालि का उपनयन संस्कार कर उसके गुरु ने उसे ब्राह्मणत्व प्रदान किया, यह उपनिषद् में वर्णित कथा सभी जानते हैं। इसका तात्पर्य प्राचीन परंपरा में भी जन्म से प्राप्त गुणों की सीमाएं वह समझते थे। इस कारण उस व्यवस्था में लचीलापन था। यही कारण रहा कि यह सदियों तक निर्बाध रूप से चलती रही।
अब सारा परिवेश बदल चुका है, यह स्पष्ट दिख रहा है। इसलिए अब कालानुरूप, नये सिरे से, समय से सुसंगत विचार करना सही होगा। वह काल ऐसा था कि उस समय छपाई का तंत्र नहीं था, यन्त्रयुग का आगमन नहीं हुआ था, अध्ययन के लिए गुरु के पास रहना होता। यन्त्रयुग न होने के कारण लुहार, सुनार, बुनकरों के पुत्र बचपन से अपने घरों में बाप-दादाओं को काम करते अपनी आंखों से देखते थे। इस कारण आनुवंशिकता के साथ-साथ सारा परिवेश भी ऐसा होता था कि उस कला में वे लड़के प्रवीण हो जाते। फिर भी आनुवंशिकता के साथ-साथ वातावरण की भी भूमिका है। मात्र आनुवंशिकता का आग्रह नहीं चलेगा। पहले आनुवंशिकता की ऐसी गहरी छाप थी। कारण परिवेश भी अनुकूल होता था। बच्चों की पढ़ाई घर में होती, काम-धाम घर में ही सीखता। अब छपाई का तंत्र विकसित हुआ है। पढ़ाई के लिए शिक्षा संस्थाएं हैं, घर नहीं। अभी कारखाने में चीजें बनती हैं, घर पर नहीं। इसके कारण परिवेश बदल गया है, अड़ोस-पड़ोस का वातावरण बदल चुका है। इसलिए मात्र आनुवंशिकता का आग्रह लेकर, जन्मना वर्ण-व्यवस्था का आग्रह नये जमाने से सुसंगत नहीं है।
हमें परिवर्तित समय के साथ सुसंगत विचार करने की क्षमता विकसित करनी होगी। अब नये अनुसंधान हुए हैं, नये विज्ञान का बोलबाला है, सारा परिवेश पूर्णत: बदल चुका है। इस कारण आनुवंशिकता जैसा ही महत्व नये वातावरण का है, यह ध्यान हमें रखना होगा। कुछ मित्र आनुवंशिकता तथा प्रकृति प्रणीत विषमता के पक्षधर हैं। उनका कहना है, कुछ गुणवत्ता का कारण आनुवंशिकता है, प्रकृति ही विषमता की जननी है। कुछ मात्रा तक इसमें तथ्य नहीं है, ऐसा नहीं। परंतु आनुवंशिकता, प्रकृति के कारण जो विषमता दिखाई देती है, मनुष्य का उसका शास्त्र बनाना ठीक होगा क्या? गुण-दोषों का कारण कुछ मात्रा में आनुवंशिकता है, इसे कोई नकार नहीं सकता। फिर भी विषमता को शास्त्र में बदलने में मनुष्य की महानता, पराक्रम नहीं है। प्रकृति के नियमों का अध्ययन कर यह प्राकृतिक एवं आनुवंशिक विषमता, इसे कैसे दूर किया जाए, इस दिशा में मनुष्य का चिंतन होना चाहिए। इसी में उसकी महत्ता, उसका श्रेष्ठत्व है। विषमता यह शास्त्र में परिणत न हो। कुछ लोग आनुवंशिकता के गुण का शास्त्र बनाते हैं, दर्शन बनाते है, यह उचित नहीं। चरम पिछड़े परिवार के बालक की देखभाल समाज द्वारा हो, यह विचार प्रगतिशील राष्टÑ कर रहे हैं। समाज उसका दायित्व वहन करें यह विचार अब चल पड़ा है। किसी पिछड़े परिवार के विषय में सोचना हो, किसी जाति में जन्म ग्रहण करने के कारण उसमें कुछ कमियां, दृष्टिगोचर होती होंगी, तब आनुवंशिकता का बहाना बनाकर ऐसे विकलांगता का, कमियों का बवंडर मचाना गलत है।
जापानी लोग वंश परंपरा तथा जन्मत: नाटे होते हंै, ऐसी धारणा विद्यमान थी। लेकिन अब यह प्रमाणित हो चुका है कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापानी लोग अमरीकी लोगों के संपर्क में आये, जिसके फलस्वरूप उनके रहन-सहन, खान-पान में बदलाव आया जिससे जापानी मनुष्य की औसत लंबाई बढ़ी। किसी समय हमारा देश तथा विदेशों में भी ‘लड़ाकू जाति’ ऐसा शब्द प्रयोग बहुत प्रचलित था। प्रथम तथा द्वितीय विश्वव्यापि महायुद्धों में ‘स्टैडिंग आर्मी’ के साथ औरों को भी बाध्य होकर सेना में भर्ती की आवश्यकता उत्पन्न हुई। इस स्थिति में जिन्हें कभी युद्ध का अनुभव नहीं था, वे लोग राष्टÑ के लिए वीरता से लड़े। तभी से आज कोई भी मार्शल रेस, लड़ाकू जाति इस तत्व के आधार पर वर्गीकरण को मान्य नहीं करते। इसीलिए आनुवंशिकता को शास्त्र या दर्शन बनाने का प्रयास भी न करें।
आगे बढ़कर यह भी कहा जा सकता है कि समाज धारणा के लिए वर्ण-व्यवस्था, जाति व्यवस्था का अस्तित्व आज भी है, यह कहना भी हास्यास्पद है। जाति आज भी विद्यमान है, किंतु समाज-धारणा के साथ उसका संबंध टूट गया है। यह मात्र विवाह के संदर्भ तक सीमित रह गई है। लड़का कहां से लाना, लड़की कहां ब्याहना, ऐसे कुछ संबंधों के संदर्भ तक ही जाति अस्तित्व में है। समाज-धारणा के साथ अब उसका कुछ भी रिश्ता नहीं रहा। फिर भी कुछ महानुभाव शताब्दियों से व्यवस्था को आदर्श मानकर बड़े गर्व के साथ उसका समर्थन करते हैं या कुछ कटु भाषा में इसकी आलोचना करते हैं। दोनों तबकों को ऐसा सोचना चाहिए कि समाज धारणा के लिए जातिसंस्था या वर्ण-व्यवस्था का अब अस्तित्व ही नहीं है। आज जो कुछ है वह अव्यवस्था है, विकृति है। समाज-धारणा के साथ उसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। इस कारण यह व्यवस्था टूट चुकी है, बिखर रही है, इसलिए उसका जाना ही ठीक है। वह अब ठीक तरह से कैसे विदा होगी यही हमें सोचना है। और उस दृष्टि से हमारा क्या योगदान हो सकता है, यह देखना उचित होगा, यह मेरा मंतव्य है।
हमारे बीच रोटी-बेटी व्यवहार ऐसा शब्द-प्रयोग रूढ़ है। पुराने जमाने में रोटी व्यवहार भी जाति के अंतर्गत ही चलता था। लेकिन आज रोटी-व्यवहार सर्वत्र हो चुका है। रोटी-व्यवहार के बंधन खुल गये हैं। उसका श्रेय आप किसे भी दें। अंग्रेजी शिक्षा, समाज सुधारकों की चेष्टाएं, रा.स्व.संघ या सहभोजन। कुछ श्रेय राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ को भी आप देंगे, क्योंकि हमारे भी शिविर लगते हैं, कार्यक्रम चलते हैं। श्रेय किसी का भी हो, लेकिन अब रोटी-व्यवहार सामान्य हुआ है, उसके बंधन खुल चुके हैं। इसलिए जातिभेद की तीव्रता कम होने में बड़ी मदद मिली है। कुछ मात्रा में अब बेटी व्यवहार का भी प्रचलन चला है, यह भी हम अनुभव कर रहे हैं। खुलकर ऐसा कहने में कोई हिचकिचाहट न हो कि रोटी-व्यवहार के साथ-साथ अब बेटी-व्यवहार में भी बिना संकोच हम सहभागी हों। इसे खुलेआम कहना चाहिए। जिस प्रकार रोटी-व्यवहार के बंधन समाप्त हुए उसी प्रकार जातिभेद की तीव्रता समाप्त होने के लिए बेटी व्यवहार के बंधन भी समाप्त होने चाहिए। इसमें यह सावधानी अवश्य बरतनी होगी कि रोटी-व्यवहार के बंधन जितनी सहजता से खुलते हैं, बेटी-व्यवहार ऐसा सहज नहीं होगा। क्योंकि विवाह के लिए परस्पर अनुरूप जोड़ी देखनी होगी। किसी का विवाह किसी के साथ संभव नहीं है। या कानून के द्वारा किसी का विवाह किसी के साथ होगा, धन के लोभ से होगा, ऐसा नहीं। इसमें से हम चाहते हैं वैसा परिणाम नहीं निकलेगा। इसलिए ऐसा करना भूल होगी। इस विवाह यानी अनुरूप दंपत्ती इसे ही प्रधानता मिलेगी। शिक्षा, उपार्जन, रहन-सहन का स्तर इसमें समानता होने पर ही उस स्तर पर विवाह होगा। आज भी अपने परिचितों में जो अंतर जातीय विवाह हो रहे हें वह साधारण तौर पर इसी स्तर पर हो रहे हैं, वे ध्यान में आता है। जिस मात्रा में लोग घुल-मिलकर बसेंगे, उस मात्रा में, जाति के आधार पर बस्तियां समाप्त होंगी, तब इसका प्रचलन बढ़ेगा। जैसे-एल.आइ.सी. कर्मचारियों की कॉलोनी, बैंक कर्मचारियों की, रेल कर्मचारियों, अध्यापकों की कॉलोनी बनती है। जातिगत आधार पर बस्तियां न होकर इस आधार पर वह खड़ी होगी, सभी प्रकार के लोग एक जगह रहेंगे, पढ़ाई एक साथ होगी और सभी की आर्थिक अवस्था जाति निरपेक्ष समान स्तर पर आएगी, तब इस माध्यम से विवाह के लिए सुविधा होगी। जोर-जबरदस्ती, जल्दबाजी, प्रचार का अतिरेक करने से यह होगा ही, ऐसा नहीं। यह एक गंभीर विषय है। इसके लिए संयम आवश्यक है, धीरज आवश्यक है। लेकिन ऐसा होकर ही रहेगा। अपनी क्षमतानुसार सभी को इस प्रयास में हाथ बंटाकर सामाजिक अभिसरण कैसे होगा, इसकी चिंता करनी चाहिए।
इससे भी एक दु:खद समस्या है। सामाजिक वैषम्य का एक परिणाम ‘छूूत-अछूत’ यह भाव है। अपने समाज के लिए यह अत्यंत दर्दनाक तथा लज्जा का विषय है। कुछ विद्वानों के कथनानुसार यह प्राचीन समय से अस्तिव में नहीं थी, अपने आप प्रचलित हुई। जो भी हो, सदियों से हम ‘छूूत-अछूत’ का अस्तित्व अनुभव कर रहे हैं। फिर भी अभी सभी समझ रहे हैं कि अस्पृश्यता एक कलंक है। वह जड़मूल से नष्ट होनी चाहिए इसे लेकर किसी के भी मन में संदेह नहीं है। अमरीका से दासता का निर्मूलन करते समय अब्राहम लिंकन कहते हैं,‘‘अगर दासता गलत नहीं है फिर कुछ भी गलत नहीं है।’’ हमें भी ऐसा ही कहना होगा और कहते भी हैं,‘‘अगर अस्पृश्यता कलंक नहीं है तो फिर विश्व में कुछ भी कलंक नहीं है।’’ तो ‘छुआछूत’ जब कलंक है तो वह जड़मूल से नष्ट होनी चाहिए, इस विषय में मतभेद को स्थान नहीं। इसलिए सभी कोे प्रयासरत होना चाहिए।
वर्ण-व्यवस्था, जात-पात के कारण हमें जो सामाजिक वैषम्य का अनुभव हो रहा है वह वेदनादायक है। यह वैषम्य नष्ट हो यही भाव हमारे मन में सदैव जागृत हो। इस वैषम्य के कारण ही समाज विघटित हो रहा है, कमजोर हुआ है, इसे हमें समझना चाहिए। उसे हटाने के उपाय तलाशने होंगे। इस प्रयास में सभी का सहभाग अपेक्षित है।
इस कार्य में सभी का सहयोग प्राप्त करना चाहिए। संयम के साथ उचित व्यवहार से ऐसा प्रयास होगा तभी सफलता हाथ लगेगी। हमारे समाज में धर्माचार्य हैं, संत-महात्मा हैं, पण्डित है। जनमानस पर उनका बड़ा प्रभाव है। मुझे लगता है कि विषमता निवारण के कार्य में उनका सहयोग बड़ा महत्व रखता है। कभी-कभी हम सोचते हैं कि वह पुरातन परम्परा के ही पक्षधर हैं और वह बनी रहे, ऐसा आग्रह वे रखते हैं। किन्तु इसे लेकर हमें उनके प्रति गलतफहमी नहीं रखनी चाहिए। विदेशों में भी प्राचीन परम्पराओं पर श्रद्धा रखने वाले धर्माचार्य विद्यमान हैं। उनके प्रति लोग तिरस्कार की भावना रखते हैं, या वैसा व्यवहार करते हैं, ऐसा देखने में नहीं आता। हम भी यदि ठीक प्रकार से प्रयास करें तो उनके निकट पहुंच सकते हैं। उनसे प्रार्थना कर सकते हैं कि,‘‘धर्म के अन्तर्गत शाश्वत अंश कितना है तथा कालानुरूप परिवर्तनीय अंश कितना है यह निश्चित कर आप वैसा प्रतिपादन समाज में करें। आपके प्रतिपादन से ही समाज के अन्दर गहराई तक व्यापक असर होगा।’’ शास्वत एवं परिवर्तनीय इसका सन्तुलन रखने वाले आचार्य, संत-महात्माओं की पुकार इस भावना से दूर-दूर तक गूंजती रहे, ऐसा भी प्रयास हो। ‘‘समाज-रक्षा का दायित्व आपका है, पीठासीन होकर यह संभव नहीं। पीठ के बाहर निकलना होगा, समाज के साथ मिलना होगा तथा लोगों के सामने विचार अपनी शैली में समझाने होंगे।’’ बहुत सज्जन इसे दुष्कर मानते हैं। परन्तु वैसा नहीं है। अपने संघ के प.पूजनीय श्रीगुरुजी के द्वारा विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से ऐसा प्रयास किया गया। हमने यह देखा कि श्रीगुरुजी सभी धर्माचार्यों को एक साथ लाए, उनसे वार्तालाप किया जिसके परिणामस्वरूप वह सभी महात्मागण, संत-सज्जन समाज की पिछड़ी बस्तियों में जाकर सभी के साथ समान व्यवहार करते हैं। उनके बीच उठने-बैठने लगे हैं। मतांतरित लोगों की घरवापसी की स्वीकृति दी है। इसका तात्पर्य यह है कि सही तरीके से समझाने पर वह कार्य में सहभागी हो सकते हैं। इसलिए उनके विषय में अनाप-शनाप फिजूल बातों को छोड़कर उनका भी सहयोग प्राप्त हो ऐसी चेष्टा करनी चाहिए। इस प्रकार से प्रयास करने पर उनका सहयोग निश्चित प्राप्त होगा और अपना कार्य आगे बढ़ेगा।
समाज का एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है कि जिन्हें जन्माधारित वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, छुआछूत समाप्त हो तथा सारा समाज एकता के सूत्र में गूंथा जाए, समता का व्यवहार हो, इससे सहमत है। उन पर बड़ी जिम्मेदारी है। वे जैसा बोलते हैं, उतनी जिम्मेदारी से उनका सारा व्यवहार होता ही है, ऐसा नहीं। इलाज सुझाने वालों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि ‘उपायं चिन्तयन प्राज्ञ: अपायमिप चिन्तयेतु’ अर्थात् इलाज करने वालों को उसके कारण उत्पन्न होने वाले अपाय का भी ध्यान रखते हुए बात करनी चाहिए। क्योंकि समाज में सौहार्द्ध, सामंजस्य, सहयोग अच्छी प्रकार बढ़े, इसीलिए हमें समता चाहिए, यही हमारा अन्तिम लक्ष्य है। हमारे प्रयास इस दिशा में हैं इसे भूलकर जो लोग आचरण करेंगे, बोलेंगे, लिखेंगे, जिससे हमारे उद्ष्टि की ही हानि होगी। इसीलिए ऐसे समझदार लोगों का व्यवहार बातचीत, लेखन में बाधा निर्माण न हो ऐसा होना चाहिए। कभी-कभी लिखने के दौरान हिन्दुओं की किसी वर्गविशेष की कटु आलोचना होती है। वे अन्याय, अत्याचार के चलते-फिरते प्रतीक हंै। ऐसा कहा जाता है, उन्हें प्रताड़ित और अपमानित, आत्महत और तेजोभंग किया जाता है। ऐसा व्यवहार उचित नहीं। उनका मनोबल बनाए रखते हुए, उन्हें समझाकर, उनके सामने सामाजिक व्यवहार का आदर्श रखकर, उनके भीतर परिवर्तन लाना, इस प्रकार यह काम हो ऐसा प्रयास हो। दुर्भाग्यवश आज भी जो इसे समझ नहीं पाते, जो छुताछूत, जातिप्रथा मानते हैं, उनके पास पहुंचना चाहिए। उनको बदलना हमारा दायित्व है। इस प्रकार के भेद जो लोग मानते हैं, उन पर टूट पड़ना, संघर्ष करना, इसके बजाय उन्हें मिलकर समझाना चाहिए। यह भी कार्य की एक दिशा हो सकती है। क्योंकि ऐसे सभी लोगों को हम अपने बंधु मानते हैं तथा उनके विचारों में परिवर्तन हो यह हमारा प्रयास है। विषमता सबके मन से हटनी चाहिए!
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार अनूठी पद्धति से कार्य करते थे। मुझे बचपन से उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। शुरू में हमें कई अनूठे अनुभव आए। (संघ स्थापना ई. सन् 1925) पहले संघ शिविर में मैं था। उसमें अनेक हरिजन बंधु सहभागी हुए थे। भोजन के समय कुछ स्वयंसेवकों को लगा कि हरिजनों के साथ भोजन में सहभागी होना या नहीं? क्योंकि पहले कभी ऐसा अवसर उन्हें नहीं आया था। उन्होंने डाक्टर जी के सामने अपनी दुविधा प्रकट की। डाक्टर जी ने कहा कि, ‘‘अपनी यह रीति है कि सभी के साथ मिलकर भोजन करना, एक साथ बैठना। हम यही करेंगे।’’ फिर डाक्टर जी, मैं तथा अन्य सभी उन हरिजन स्वयंसेवकों के साथ भोजन करने बैठे और जो 2-4 बंधुओं को हरिजन स्वयंसेवकों के साथ बैठने में संकोच हो रहा था उन्हें कहा, ‘‘आप अलग पंक्ति बना लो।’’ वे अलग बैठे। दोपहर के भोजन के समय तो यह हुआ किन्तु रात्रि के भोजन के समय क्या हुआ? वह जो चार स्वयंसेवक अलग पंक्ति बनाकर बैठे थे वे स्वयं डॉक्टर जी के पास आए और कहा, ‘‘डाक्टर जी, सुबह हमने भूल की। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था।’’ फिर डाक्टर जी को शिविर में यह बात दोहरानी नहीं पड़ी। बाद में वे सभी, सभी के साथ भोजन में सहभागी होने लगे। तात्पर्य, उनके भीतर जो परिवर्तन चाहते थे वह हुआ। डॉक्टर जी यदि उन्हें शिविर से बाहर निकालते तो उनमें यह परिवर्तन सम्भव नहीं था।
हमें समाज में ऐसा परिवर्तन अपेक्षित है। परिवर्तन के माने किसी पर टूट पड़ना, उसे कोसना, अनुशासनात्मक कार्रवाई करना ऐसी कुछ बंधुओं की धारणा है। फिर प्रयास के कई तरीके होते हैं तथा इस पद्धति से भी कई अधिक परिणामकारक उपाय उपलब्ध हैं। इस सन्दर्भ में एक प्रसंग स्वत: बच्छराज जी व्यास से जुड़ा है। मैं जिस शाखा का कार्यवाह था उस शाखा के वे स्वयंसेवक थे। शिविर आया। वे तो नए थे और उनके लिए यह पहला ही श्वििर था। उन्होंने मुझसे कहा,‘‘देखो मैं शिविर में भोजन नहीं करूंगा। कौन खाना बनाएगा, कौन परोसेगा, कुछ ठीक नहीं।’’ उनके घर का रहन-सहन एकदम पुरातनपंथी तथा कर्मठ था। मेरे मित्र होते हुए भी वे कभी मेरे घर भोजन करने नहीं आते। मैंने बच्छराज जी से कहा,‘‘मैं डॉ. जी से पूछता हूं।’’ मैंने डॉ. जी से कहा,‘‘ बच्छराज शिविर में आना चाहते हैं, परन्तु उनके भोजन का प्रबंध कैसे होगा? वह तो बड़े कर्मठ हंै और सबके साथ बैठकर भोजन नहीं करेंगे। आपकी क्या राय है?’’ आपको क्या लगता, डाक्टर जी ने बच्छराज जी को, ‘शिविर में मत आना, उन्हें शिविर से बाहर निकाल देना चाहिए। ऐसा कहा होगा क्या? डाक्टर जी ने ऐसा कुछ नहीं किया। क्योंकि बच्छराज जी की पात्रता वे जानते थे। उनके अंदर विद्यमान कार्यक्षमता को समझते थे। वह व्यक्ति असामान्य प्रतिभा की धनी है, कर्तव्यवान हैं, नि:स्वार्थी हैं, इसे डॉक्टर जी ने पहचाना था। डाक्टर जी ने कहा, ‘‘आने दो बच्छराज को शिविर में। हम सभी भोजन के लिए एक साथ बैठेंगे। उसे राशन तोलकर दे देंगे और कहेंगे कि यह बर्तन रखो और अपना खाना खुद बनाकर खाओ।’’ इस प्रकार पहले शिविर में बच्छराज जी का भोजन संपन्न हुआ। अगली बार जब बच्छराज जी शिविर में सहभागी हुए तो उन्होंने स्वयं ही डाक्टर जी से कहा, ‘‘घर में क्या प्रतिक्रिया होगी देख लूंगा। जाति लोग क्या कहेंगे, उसे भी देख लूंगा, लेकिन इस समय शिविर में मैं सबके साथ भोजन करूंगा।’’ बच्छराज जी बाद में संघ के कार्यकर्ता बने, राजस्थान प्रदेश के प्रांत प्रचारक हुए। भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हुए। धार्मिकता में कर्मठ होते हुए भी वे सभी के घर जाते। बाद में उनके मन में कभी भी ऐसा विचार नहीं आया। तात्पर्य यह है कि, भेदाभेद दूर करने के कार्य का अर्थ सभी पर टूट पड़ना नहीं होता, तब भिन्न प्रकार से भी हम इसे साध्य कर सकते हैं।
कई बार हिन्दू समाज के कुछ घटकों में वैर पैदा होता है। मारपीट होती है। सच में देखा जाए तो मारपीट के कारण राजनीति से जुड़े होते हैं। कोई मारपीट चुनावी राजनीति के कारण होती है। कभी-कभी स्वार्थ का व्यक्तिगत संघर्ष होता है। कुछ झगड़े खेती और घर के होते हैं लेकिन वे जिन झगड़ों से जुड़े होते हैं उन्हें जातीय रंग देने में उनका स्वार्थ होता है। और उसमें दूसरों को शामिल करने की कोशिश होती है। राजनीतिक वजहों और व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण झगड़ों को सांप्रदायिक रूप दिया जाता है। दुर्भाग्यवश इन बातों का विचार किए बगैर कई सज्जन लोग, पत्रकार भी अनजाने इन बातों का ठीक से विचार किए बिना सनसनीखेज शीर्षक देकर प्रचारित करते हैं। अधिकतर पत्रकार जल्दबाजी में खबरों की प्रतिस्पर्द्धा में घटनास्थल पर जाकर क्या हुआ यह जानने के बजाए सुनी-सुनाई बातों पर खबर बनाता है। उसे सनसनीखेज शीर्षक हैडिंग देता है। हिन्दू-मुसलमान की मारपीट होते ही एक समुदाय की दूसरे समुदाय से मारपीट के रूप में उसका वर्णन किया जाता है। लेकिन हिन्दू समाज के अंदर कुछ मारपीट हो तो उन्हें भडकाऊ शीर्षक दिया जाता है। लेकिन ऐसा करना सही नहीं है। सामाजिक समता लाने, विषमता को दूर करने के लिए हम पर यह जिम्मेदारी है कि हम किस तरह बर्ताव करते हैं, कैसे बोलते हैं, कैसे लिखते हैं, इस सबकी चिंता करना जरूरी है।
दलित बधुंओं के साथ समाज ने सदियों से अत्यंत कटु व्यवहार किया। उन्होंने कष्ट व अपमान सहा है। वह वेदना उनके मन में है, वह पीड़ा हम सभी के मन में भी है। अब इस अवस्था से राह निकालनी है। यह विषमता दूर होनी चाहिए, समाप्त होनी चाहिए, यह दलित बंधु और हम-आप सभी चाहते हैं। इसलिए दलित एवं अन्य सभी का व्यवहार ऐसा हो कि यह वैषम्य मिट जाएगा। इस दृष्टि से यह अन्याय कैसे हटेगा, उसके लिए अनुकूल माहौल कैसे बनेगा, इस प्रकार के प्रयास करने होंगे। दलित बंधु भी इसे ध्यान में रखें यह मेरी प्रार्थना है। समाज में दिखने वाले अन्याय, जो गलतियां अनुभव आती हैं उसकी आलोचना अवश्य हो, फिर भी आलोचना में भी संयम बरतना चाहिए। अपने समाज में विद्यमान कमियों की आलोचना जब हम करते हैं उसमें से वेदना, व्यथा का दर्शन होता है। इसके ठीक विपरीत पराए लोग जब हमारी आलोचना करते हैं, उसमें तुच्छ, हीनता का भाव भरा होता है। आलोचना की इन दो विधाओं में जमीन-आसमान का अंतर है। इसलिए आलोचना करते समय उसमें से दलितों के प्रति अपनत्व की भावना प्रकट हो, यह अपेक्षा है। बीते कालखण्ड के गड़े मुर्दे उखाड़कर भविष्य को बिगाड़ने वाला यह व्यवहार होगा, फिर उसके कारण हमें जो अभिप्रेत है कि यह वैषम्य समाप्त हो, सभी एकजुट हों, एक स्तर पर आएं, वह उद्देश्य बाधित होगा। हम इसी समाज के अंग हंै एवं सभी अंगों को साथ मिलाकर कार्य करेंगे, यह विचार करना चाहिए। समाज के अन्य घटक जो ऐसी ही सोच रखते हैं, उनके साथ वह खड़े होंगे तब दोनों की सम्मिलित शक्ति से यह कार्य और आसान होगा। इसलिए यह कैसे साध्य होगा इसे दृष्टिगत रखकर विचार करना होना चाहिए। पूर्वकाल में कुछ महान सुधारकों ने किसी जाति विशेष को लेकर, कुछ धर्म-ग्रंथों पर कड़ा रुख अपनाया था। उस समय वह ठीक ही था। क्योंकि ऐसा विषय जनता के बीच नए सिरे से उभर रहा था। जब कोई विवादास्पद विषय लोगों के सामने पहली बार रखना है, तो ऐसी कटु भाषा का व्यवहार करना भाष्यकारों को सही लगा होगा, परन्तु उन्होंने कठोर भाषा का प्रयोग किया। इसलिए हमें भी ऐसी भाषा का प्रयोग करने पर ही लोग समझ सकेंगे, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं। अब समय में परिवर्तन आया है। सभी को इस समस्या की गंभीरता का ज्ञान हुआ है। अब परिवर्तन को वास्तव में बदलना है। यह परिवर्तन लाने के लिए उचित भाषा का उपयोग कैसे करें, इसी दिशा में अब सभी को विचार करना चाहिए।
मेरी ऐसी धारणा है कि हमारे दलित बुंधु दया नहीं चाहते, उन्हें बराबरी का स्थान चाहिए। और उन्हें वह अपने पुरुषार्थ के बल पर लेना है। इसी कारण उस दृष्टि से उनका व्यवहार हो रहा है, इससे मैं अवगत हूं। अब तक पिछड़े रहने के कारण हर प्रकार से उन्हें सुविधाएं उपलब्ध कराना चाहिए। ऐसी प्राप्त सुविधाओं का वे लाभ उठाएं। ऐसी सुविधाओं की मांग करने का उन्हें अधिकार है तथा इन सुविधाओं को कब तक जारी रखना है, यह वही निश्चित करेंगे। क्योंकि यह उन्हीं की आवश्यकता है। किन्तु कुल मिलाकर उन्हें सभी घटकों के साथ ही रहना है और अपनी योग्यता के आधार पर वह सबके बराबर हैं यहीं वे प्रमाणित करना चाहते हैं। यही उनके मन का भाव है यह मैं जानता हूं क्यंकि ऐसे अनेक लोगों से वार्तालाप चलता रहता है। इसलिए इसे कैसे प्रत्यक्ष उतारना, इसे वे ही निश्चित करेंगे। वह दिन कब आएगा जब हम समान हैं, समान योग्यता के हैं, यह समाज में अन्तत: प्रस्थापित होगा।
अपने हिन्दू समाज में कुछ कमियां हैं, यह तो स्पष्ट दिखाई देता है। परन्तु ऐसी कमियों के बावजूद हमारे समाज की कुछ विशेषताएं भी हैं। विश्व के चिन्तकों ने, यह विशेषताएं सभी मानव समाज के लिए हितकारक हैं, स्वीकारा है। जैसे जीवन-मूल्यों के अनुसार चलने वाला, अपनाने वाला, एकरस, समता युक्त, संगठित हिन्दू समाज यहां अस्तित्व में रहा, तभी यह सभी विशेषताएं संरक्षित रहेंगी तथा विश्व के लिए उपकारक होंगी। इसलिए इस पर सोचना हम सभी का दायित्व है। चिन्ता का विषय यह है कि हिन्दू समाज आज विघटित है, यह दुर्भाग्य है। सभी मानव भगवान के पुत्र हैं, इससे भी आगे बढ़कर ‘मानव सारे ईश्वर का ही अंश है’ इसे प्रतिपादन करने वाले हिन्दू धर्म में ही उच्च-नीचता के भाव उत्पन्न हुए हैं। इस विषय में डॉक्टर आंबेडकर महोदय ने तीव्र वेदना व्यक्त करते हुए कहा,‘‘सही मायने में समानता के साम्राज्य की निर्मित के लिए इससे अधिक महान दर्शन मिलना संभव नहीं।’’ इसके बावजूद भी यहीं भेदाभेद व्याप्त हुए, उच्च-नीचता के भाव पनपे। तात्पर्य, इस देश के उद्धार के लिए हिन्दू संगठन अनिवार्य है तथा हिन्दू संगठन के लिए सामाजिक समता आवश्यक है। इस दृष्टि से हमारा योगदान क्या होगा, यह हमारे चिंतन की दिशा होनी चाहिए।
अपने समाज का इतिहास प्राचीन काल से उपलब्ध है। इस कालखण्ड में विचार स्वातंत्र्य व आचार- स्वातंत्र्य पूर्णरुपेण विद्यमान था। इसलिए पुराने ग्रंथों में सब प्रकार के वचन मिलते हैं। इस समाज ने स्त्री पर बहुत अन्याय किया इसे प्रमाणित करना हो तो उस अर्थ के वचन आपको प्राप्त होंगे। जैसे ‘न स्त्री स्वातंत्र्मर्हति।’ यदि यह प्रमाणित करना है कि स्त्री का स्थान यहां बहुत उच्च था तब कह सकेंगे कि, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।’ विपर्यास करने के लिए भी वचन विद्यमान हैं। फिर भी जिन्हें समाज को संगठित करना हैं, जो संगठन की अनिवार्यता के पक्षधर हैं, उनका यह कर्तव्य हैं कि ऐसे सभी पहलू सामने लाकर उसे लोगों के सामने रखना चाहिए। यह समझकर ऐसा परिवेश निर्माण हो कि जिसके फलस्वरूप हिन्दू समाज के भीतर से सारे भेदाभेद समाप्त होंगे एवं हिन्दू समाज वास्तव रूप में संगठित होगा। मुझे बचपन में पढ़े एक पाठ का स्मरण आता है। कहानी यह है कि एक सुबह कोई सज्जन कोट चढ़ाकर टहलने चले। तब सूरज और पवन में ऐसी शर्त लगी कि इसका कोट कौन निकलवा सकता है?
पहली वारी पवन की थी। खूब जोर से हवा चलने लगी, कोट छुड़ाने का प्रयास करने लगी। परन्तु जैसे-जैसे पवन का जोर बढ़ने लगा, ठण्ड लगने के कारण वह और तेजी के साथ कोट को पकड़ने लगा। अंत में पवन को अपनी हार स्वीकारनी पड़ी। अब सूरज की बारी थी। सूरज ने धीरे-धीरे ताप बढ़ाना प्रारम्भ किया। गर्मी बढ़ने लगी, वह व्यक्ति पसीने से तर-बतर हो गया। तब उसने अपने आप कोट निकाल दिया। इस कथा का सार हम ध्यान में लेंगे तो हमारी समझ में आएगा कि यदि समाज से हमें विषमता समाप्त करनी है तो इसलिए सभी का आचरण कैसा होना चाहिए, ध्यान में रहेगा।
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