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पुस्तक समीक्षा/सामाजिक समरसता और हिन्दुत्व
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि 1925 में विजयादशमी के दिन रा़ स्व़ संघ की नींव डालने वाले डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के उत्कट देशभक्तिपूर्ण विलक्षण व्यक्तित्व का परिचय उनके द्वारा खड़े किए संगठन के हर आयाम में झलकता है। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत थोड़ी है जिन्होंनेे उन्हें साक्षात देखा है, उनके विचारों को साक्षात सुना है, पारस से उनके स्पर्श का अहसास किया है। अथवा तो उनकी वाणी की धीरता और गांभीर्य, अपने जीवन में उतारे संघ के संस्कारों का प्रत्यक्ष अनुभव किया है। डॉक्टर साहब के असमय इस धरा से विदा हो जाने के बाद श्री गुरुजी ने सरसंघचालक पद का दायित्व निभाते हुए संघ कार्य को अनूठी गति दी। 1973 में उनके देहावसान के बाद संघ के तृतीय सरसंघचालक बने श्री मधुकर दत्तात्रेय उपाख्य बालासाहब देवरस तो डॉक्टर
साहब के व्यक्तित्व और विचार गांभीर्य का मूर्तिमंत रूप ही माने जाते थे।
बालासाहब ने अपने प्रेरक जीवन से संघ संस्कारों को जी कर दिखाया था। एक स्वयंसेवक का वास्तविक स्वरूप कैसा हो, इसका उदाहरण अपने जीवन से दिया था। गूढ़ से गूढ़ विषय भी उनकी आत्मीयतापूर्ण भाषाशैली में नितांत सहजता से स्पष्ट होते थे। बालासाहब अपने बौद्धिकों में हिन्दुत्व, भारत की अखंडता, समस्याओं के समाधान, सामाजिक समरसता, अल्पसंख्यकवाद और तुष्टीकरण पर पूरी दृढ़ता और प्रखरता से अपने विचार रखते थे और उस काल खण्ड का सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व संघ के बिन्दु विशेष पर स्पष्ट मत से परिचित हो जाता था। 1975 में आपातकाल के दौर में बालासाहब ने ही स्वयंसेवकों को पूरी दृढ़ता, पर संयम के साथ उसका सामना करने का संबल दिया था। 1974 में पूना में सुविख्यात वसंत व्याख्यानमाला में समाज को समरस और सौहार्दपूर्ण बनाने के संबंध में बालासाहब के विचारों ने एक गजब का वातावरण निर्माण करते हुए अस्पृश्यता को नितांत त्याज्य करार दिया था। बालासाहब के ऐसे ही ओजपूर्ण व्याख्यानों और बौद्धिकों को एक मालिका में पिरोते हुए पुस्तक का स्वरूप दिया गया है, जिसका नाम है-सामाजिक समरसता और हिन्दुत्व।
पुस्तक में कालखण्डानुसार बालासाहब के बौद्धिकों को सात अध्यायों के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया है, जिसमें पहला अध्याय-सामाजिक समरसता और हिन्दू संगठन-तो 8 मई 1974 का उनका पूना में वसंत व्याख्यानमाला के अंतर्गत दिया वह ऐतिहासिक उद्बोधन है, जिसमें उन्होंने हमेशा के लिए स्पष्ट किया है कि ''हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि अस्पृश्यता एक भयंकर भूल है और उसका पूर्णतया उन्मूलन आवश्यक है। यदि अस्पृश्यता गलत नहीं है तो कुछ भी गलत नहीं है।'' इसी प्रकार दूसरे अध्याय 'वर्तमान चुनौती और संघ' में दिल्ली के रामलीला मैदान में दिया उनका वह उद्बोधन है जिसमें उन्होंने रा़ स्व़ संघ की भूमिका और कार्य को रेखांकित करते हुए उस संबंध में तमाम संभ्रम दूर किए। तीसरे अध्याय 'हिन्दू संगठन: एक राष्ट्ीय आवश्यकता' में दिल्ली शाखा के वार्षिकोत्सव में 4 मार्च 1979 को रामलीला मैदान में दिया उनका उद्बोधन हिन्दू संगठन की आवश्यकता पर बल देता है। चौथे अध्याय 'यतो धर्मस्ततो जय: राष्ट्ीय स्वयंसेवक संघ' में 30 सितम्बर 1979 को नागपुर में विजयादशमी उत्सव में दिया उद्बोधन है जिसमें बालासाहब ने हिन्दू राष्ट् की संकल्पना, हिन्दू समाज की विश्व को देन, बहुरूपिया समाजवादी मुखौटा, सांप्रदायिक दंगे और अल्पसंख्यक आयोग सहित संघ की परिवर्तनशीलता के संबंध में पाथेय देते हुए स्वयंसेवकों और देशवासियों के सामने स्पष्टता से कहा था-''सत्य व धर्म हमारे साथ है। यतो धर्मस्ततो जय:-यह दृ़ढ़ विश्वास रखें।''
'हिन्दुत्व: तत्व और व्यवहार' शीर्षक से पांचवें अध्याय में बालासाहब का 12 अप्रैल 1981 को वर्ष प्रतिपदा उत्सव में दिये गये बौद्धिक में उन लोगों के मानसपटल से धुंधलका हटाया है जो हिन्दू राष्ट्र को संकुचित बताते हैं। उन्होंने हिन्दू शब्द की पुन: व्याख्या की है ताकि कोई विभ्रम न रहे। उन्होंने स्पष्ट किया है कि संघ पुरातनवादी, परंपरावादी, पुनरुत्थानवादी, यथास्थितिवादी नहीं है। छठे अध्याय 'भारत को अखण्ड रहना ही है' में 2 अक्तूबर 1985 को दिल्ली के रामलीला मैदान में दिये उद्बोधन में बालासाहब ने अलगाववाद पर सचेत करते हुए कहा-''सरकार को यह मर्यादा ख्याल में रखनी चाहिए कि देश एकजुट व अविच्छेद्य बना रहे, उसके टुकड़े न बनें, कोई अलग होने की बात न करे़.़.।'' कन्वर्जन को विषवृक्ष बताते हुए उन्होंने कहा कि कन्वर्ट हुए लोगों के सोचने का ढंग ऐसा बना कि 'धर्म-परिवर्तन होने के साथ राष्ट्र-परिवर्तन' भी हो गया। सातवें और अंतिम अध्याय में रामलीला मैदान में विशाल हिन्दू सम्मेलन में दिया उनका उद्बोधन है जिसमें उन्होंने कहा था बांटने वाली राजनीति बंद होनी चाहिए।
नि:संदेह यह पुस्तक संघ परिकर के साथ संघ को जानने के उत्सुक लोगों के लिए बहुमूल्य कही जा सकती है। संकलन सच में प्रभावी बना है। बालासाहब जैसे पथ प्रदर्शक के विचारों का नवनीत एक ही जगह प्राप्त कराने के लिए प्रकाशक सुरुचि प्रकाशन को साधुवाद दिया जाना चाहिए।
-आलोक गोस्वामी
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