|
फिल्म निर्देशकों द्वारा अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए इतिहास के साथ खिलवाड़ करना आम हो चला है। अलाउद्दीन-पद्मिनी के जिस गलत चित्रण को लेकर संजय लीला भंसाली की पिटाई हुई, उसके बाद से रानी पद्मिनी के बारे में इतिहास क्या कहता है, जानने की ललक बढ़ी है
नलिन चौहान
हाल में ही जयपुर में करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली की अलाउद्दीन खिलजी-पद्मिनी विषयक फिल्म की शूटिंग के दौरान पिटाई कर दी। इतिहास की पृष्ठभूमि के नाम पर प्रेम की कथा कहने वाली नायक-नायिका केंद्रित इस फिल्म में अलाउद्दीन खिलजी की भूमिका में रणवीर सिंह हंै तो दीपिका पादुकोण पद्मिनी का किरदार निभा रही हैं। बाजीराव मस्तानी फिल्म के बाद इतना तो तय ही माना जा सकता है कि फिल्म राजपूती शौर्य-बलिदान पर कें्रद्रित तो होगी नहीं। आखिर बंबईया फिल्मकार इतिहास को अपने हिसाब से मनमोहक बनाने के लिए प्यार की कहानी को ही परोसते हैं। अनारकली से लेकर जोधा अकबर और बाजीराव मस्तानी में यह तथ्य समान दिखता है जहां इतिहास और ऐतिहासिक तथ्य गौण हैं। आखिर अनारकली से लेकर जोधाबाई की ऐतिहासिकता ही संदिग्ध है।
अगर फिल्मी रसायन से परे शुद्ध इतिहास की बात करें तो समर सिंह की मृत्यु के बाद सन् 1302 में उसका पुत्र रतनसिंह चित्तौड़़ के सिंहासन पर बैठा। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने हिजरी 703 मुर्हरम को चित्तौड़ पर आक्रमण किया। खिलजी के साथ कवि अमीर खुसरो भी था, जिसे उसने खुसरूए-शाइरां की उपाधि दी थी। अमीर खुसरो ने खजाइनुल फुतूह (विजय कोश) में लिखा, यह तारीखे अलाई के नाम से भी प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण यह रचना खिलजी के समय का एक छोटा सा इतिहास है, जिसमें 695 हिजरी से लेकर 711 हिजरी तक की घटनाएं ली गयी हैं। यह उस समय का एकमात्र समसामयिक इतिहास है, जिसमें तथ्यों का सटीकता और पूरी गहराई से वर्णन किया गया है।
खुसरो तारीखे अलाई में लिखता है कि जब सुल्तान ने चित्तौड़ किले पर घेरा डाला और किले को तोड़ने का प्रयास किया तो किले में मौजूद राजपूत सैनिकों को लगा कि अब दुर्ग नहीं बचाया जा सकता है, तब जौहर कर राजपूत महिलाओं तथा बच्चों को अग्नि में प्रवेश करा दिया और राजपूत केसरिया वस्त्र धारण कर दुर्ग का द्वार खोल मुगल सेना से लोहा लेने लगे। भयंकर युद्ध के बाद 25 अगस्त, 1303 को दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया। राजा रत्नसिंह अपने सभी योद्धाओं के साथ वीरगति को प्राप्त हुए। जब अलाउद्दीन ने दुर्ग में प्रवेश किया, उस समय तक पद्मिनी किले में उपस्थित स्त्रियों के साथ जौहर कर चुकी थीं। चित्तौड़ दुर्ग को जीतने के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का नाम बदलकर खिदाबाद रख दिया था।
उदयपुर का इतिहास, भाग एक में गौरी शंकर ओझा ने लिखा है कि गुहिल वंश के राजाओं को चित्तौड़ दुर्ग पर शासन करते हुए 550 वर्ष से अधिक समय हो गया था जब अलाउद्दीन खिलजी ने ई.1303 में चित्तौड़ के राजा रत्नसिंह पर आक्रमण करके उन्हें मार दिया। वहीं अंग्रेज इतिहासकार जेम्स टॉड ने 'एनल्स एण्ड एक्टिविटीज ऑफ राजस्थान (विलियम कुक द्वारा संपादित) में लिखा है कि रत्नसिंह की रानी पद्मिनी के नेतृत्व में हिन्दू ललनाओं ने जौहर किया। अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को तो अधीन कर लिया पर जिस पद्मिनी के लिए उसने इतना संहार किया था, उसकी तो चिता की अग्नि ही उसको नजर आई।
कहा जाता है कि जब पद्मिनी को प्राप्त करने की अपनी योजना में अलाउद्दीन को सफलता नहीं मिली तो वह चित्तौड़ से डेरा उठाकर लौटने को राजी हो गया था लेकिन राजूपतों के सामने शर्त यह थी कि रत्नसिंह एक दर्पण में उसे रानी पद्मिनी के सुन्दर मुख का प्रतिबिम्ब-भर दिखा दें। परंतु जब राणा किले के बाहर सुल्तान को उसके खेमों तक पहुंचाने गए तो उसने धोखे से उन्हें गिरफ्तार करवा लिया, किन्तु रानी बड़ी चतुराई से अपने पति को शत्रुओं के चंगुल से मुक्त कराने में सफल हुइंर्।
आधुनिक इतिहासकारों ने इस कहानी को अनैतिहासिक कहकर अस्वीकार किया है और कुछ कुतर्क भी प्रस्तुत किए हैं। ये सभी तर्क अमीर खुसरो के ग्रंथों के उथले अध्ययन पर अवलम्बित है और युक्तिसंगत नहीं हैं। अमीर खुसरो अवश्य इस घटना की ओर संकेत करता है जबकि वह अलाउद्दीन की सुलेमान से तुलना करता है। सैबा को चित्तौड़ के किले के भीतर बताता है और अपनी उपमा उस हुद-हुद पक्षी से देता है जिसने यूथोपिया के राजा सुलेमान को सैबा की सुन्दर रानी विकालिस का समाचार दिया था।
खुसरो के वृतान्त से स्पष्ट है कि चित्तौड़ के किले पर अधिकार करने से पहले अलाउद्दीन खुसरो के साथ एक बार उसके भीतर जरूर गया था। अलाउद्दीन द्वारा जब राणा को बंदी बना लिया गया, उसके बाद निराश अलाउद्दीन की आज्ञानुसार 30,000 राजपूतों का वध किया गया था। उपर्युक्त वृतांत की उचित समीक्षा करने से कहानी की मुख्य घटनाएं स्पष्ट हो जाती हंै।
खुसरो दरबारी कवि था इसलिए उसने जो कुछ लिखा है उससे अधिक लिखना उसके लिए संभव नहीं था।
जैसा कि विदित है उसने अनेक अप्रिय सत्यों का उल्लेख नहीं किया है जिनमें अलाउद्दीन द्वारा अपने चाचा जलालुद्दीन का वध, मंगोलों के हाथों सुल्तान की पराजय तथा उसके द्वारा दिल्ली का घेरा इत्यादि मुख्य हैं। ओझा, के. एस.लाल तथा अन्य लेखकों का यह कथन कि यह कहानी केवल जायसी की मनगढ़न्त थी, गलत है। सत्य तो यह है कि जायसी ने प्रेम काव्य की रचना की और उसका कथानक खुसरो के 'खजाएं उल फतूह' से लिया।
पद्मिनी के जौहर की घटना कोई सामान्य नहीं थी। शायद ही विश्व में कोई कथा या व्यक्ति विशेष हो जिसकी तुलना इससे की जा सके। पद्मावत लिखने वाले जायसी की पूरी कथा को डॉक्टर ओझा ने काल्पनिक घोषित किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सिंहलद्वीप विषयक कथा को काल्पनिक और अलाउद्दीन से जुड़ी कथाओं को इतिहाससम्मत कहा था।
इतिहासकार आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने दिल्ली सल्तनत में लिखा है कि पद्मावत में वर्णित प्रेम कहानी के ब्यौरे की अनेक घटनाएं कपोल कल्पित हैं, किन्तु काव्य का मुख्य कथानक सत्य प्रतीत होता है। इतना ही नहीं, इस घटना पर जवाहरलाल नेहरू अपनी पुस्तक 'ग्लिम्पसेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री' में लिखते हैं कि चित्तौड़ जो शौर्य और प्रेम का बगीचा था, 1303 में ध्वस्त हो गया और तत्कालीन प्रथा मानकर औरतों ने जौहर किया और पुरुष युद्ध में मारे गए। काश औरतों और पुरुषों के साथ तलवार लेकर युद्ध में उतरतीं। मरना तो था ही।
इतिहास का साहित्य, जायसी का पद्मावत
जायस के रहने वाले कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने 947 हिजरी में पद्मावत लिखा था। जायसी के ही शब्दों में-
सन् नौ से सैंतालिस अहै।
कथा अरंभ बैन कवि कहै।।
और जायस नगर धरम अस्थानू।
तहवां यह कवि कीन्ह बखानू।।
पद्मावत की रचना तिथि के बारे में विचार करते हुए डॉक्टर वासुदेवशरण अग्रवाल ने 927 हिजरी में रचना का प्रारम्भ काल माना है। उन्होंने हिंदी परिषद पत्रिका के 1962 के एक अंक में पद्मावत का रचना काल सन् 927 या 947 शीर्षक एक निबन्ध लिखा था, जिसमें उन्हांेने 927 हिजरी काव्य के प्रारंभ करने की तिथि तथा शेरशाह की राज्य काल की किसी तिथि को उसकी पूर्ण होने की तिथि मानी है। हिंदुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद से प्रकाशित जायसी ग्रंथावली के संपादक डाक्टर माताप्रसाद गुप्त ने भी पद्मावत (1963 ई.) की भूमिका में 947 हिजरी को ही स्वीकार किया है। इतिहास पर नजर डालें तो अफगान शासक शेरशाह सूरी के समय में जायसी ने अपने काव्य की रचना की थी।
सेरसाहि ढिल्ली सुलतानू,
चारिउ खंड तपइ जस भानू।
टोहि छाज छात और पाटू,
सब राजा भुइं धरहिं लिलाटू॥
सूफी प्रेमाख्यानों का अध्ययन पद्मावत से प्रारम्भ हुआ। पंडित सुधाकर द्विवेदी जार्ज ग्रियर्सन ने पहले-पहल पद्मावत के प्रारम्भिक खंडों को प्रस्तुत किया, किन्तु पद्मावत का पूर्ण एवं प्रामाणिक संस्करण प्राप्त न हो सकने के कारण कोई क्रमबद्ध अध्ययन सामने नहीं आ सका। हिन्दी संसार को पद्मावत से परिचित कराने का श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को है। सूफी प्रेमाख्यानों का क्रमबद्ध अध्ययन वस्तुत: यहीं से प्रारम्भ हुआ। शुक्ल जी ने जायसी ग्रंथावली में पद्मावत तथा जायसी की अन्य प्राप्त कृतियों को संपादित कर एक आलोचनात्मक भूमिका भी दी है। इस भूमिका में उन्होंने पद्मावत के ऐतिहासिक आधार, प्रेम पद्धति, वस्तु वर्णन, मत और सिद्वान्त पर विचार किया है।
डॉक्टर माता प्रसाद गुप्त ने जायसी ग्रंथावली में पद्मावत का सर्वप्रथम सुसम्पादित और वैज्ञानिक पाठ प्रस्तुत किया है। उनके लेख जायसी का प्रेम-पंथ, लोरकहा तथा मैनासत आदि भी उल्लेखनीय हैं।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की भूमिका में सूफी काव्य धारा पर विचार किया है। तो वहीं डॉक्टर वासुदेवशरण अग्रवाल ने पद्मावत की संजीवनी व्याख्या की है। उन्होंने एक विस्तृत भूमिका भी दी है, जो सूफी काव्यों के समझने में सहायक है। स्वयं जायसी ने अपने पद्मावत में कुछ इस प्रकार लिखा है-
सिंहल दीप पदुमनी रानी,
रतनसेन चितउर गढ़ ज्ञानी।
अलाउदीं दिल्ली सुलतानूं,
राधौ चेतन कीन्ह बखानूं।
सुना साहि गढ़ छेंका आई,
हिन्दू तुरकहिं भई लराई।
आदि अंत जस कथा अहै,
लिखि भाषा चौपाई कहै।
यानी पद्मिानी सिंहल द्वीप की रानी थी। रत्नसेन उसे चित्तौड़़ ले आये। दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन से राघवचेतन ने उसकी चर्चा की। उसने आकर गढ़ घेर लिया। हिन्दू मुसलमानों में लड़ाई हुई। कथा के मुख्य दो खंड हैं। एक खंड में रत्नसेन अपनी पत्नी नागमती को छोड़कर योगी बन जाता है और सिंहल जाकर पद्मिानी को हस्तगत करता है। कथा का दूसरा खंड तब प्रारम्भ होता है जब चित्तौड़़ से निर्वासित किये जाने पर एक व्यक्ति राघवचेतन दिल्ली पहुंचता है और अलाउदीन खिलजी से उसके रूप सौंदर्य की प्रशंसा करता है। बादशाह पद्मावती को प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठता है। चित्तौड़़ पर चढ़ाई करता है। रत्नसेन कैद कर दिल्ली लाया जाता है। पद्मावती का जीवन दुख के काले बादलों से घिर जाता है। वह गोरा और बादल के घर जाती हैं और कहती है:-
तुम्ह गोरा बादल खंभ दोऊ ।
जस मारग तुम्ह और न कोऊ ।
दुख बिरिखा अब रहै न राखा,
मूल पतार सरग भइ साखा।
गोरा-बादल रानी की व्यथा सुनकर पसीज जाते हैं। पद्मावती को वे आश्वासन देते हैं और धैर्य बंधाकर युद्ध की तैयारी करते हैं। वे दिल्ली पहुंचते हैं तथा रत्नसेन को मुक्त कराते हैं। लेकिन युद्ध में गोरा को वीरगति प्राप्त होती है। बादल राजा रत्नसेन को लेकर आगे बढ़ता है और चित्तौड़़ पहुंच जाता है।
घर पर आते ही पद्मावती से सूचना मिलती है कि कुंभलनेर के राजा देवपाल ने दूती भेजकर किस प्रकार कुदृष्टि का परिचय दिया है। उसकी दुष्टता का बदला लेने के लिए रत्नसेन देवपाल पर आक्रमण करता है। वह घायल होता है। घर वापस होते समय उसकी मृत्यु हो जाती है।
पद्मावती और नागमती दोनों पत्नियां शव के साथ सती हो जाती हैं। इसी बीच अलाउदीन की सेना दुर्ग पर आक्रमण करती है। अलाउदीन को केवल निराशा ही हाथ लगती है। वह कह उठता है, यह संसार झूठा है।
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी,
दीन्ह उड़ाइ परिथमी झूठी।
'नामवर सिंह का आलोचना कर्म' पुस्तक में नामवर सिंह ने लिखा है कि कबीर, जायसी, सूर, तुलसीदास आदि की रचनाओं में चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी का सांस्कृतिक पुनर्जागरण प्रतिबिम्बत हुआ है और सामान्य जन-समूह की आशाओं-आकांक्षाओं का उभार लक्षित
होता है। सोचने की बात है कि जायसी जो अलाउद्दीन से लगभग दो सौ वर्ष बाद हुए। तो भी क्या वे एक मुसलमान राजा के बारे में झूठी कथा लिख सकते थे। जायसी उसकी असफलता को कोसते हैं और अंत में कहते हैं क्या मिला उसे? एक मुट्ठी खाक।
आइ साह जब सुना अखारा।
होइगा रात देवस जो बारा॥
छार उठाइ लीन्हि एक मंूठी।
दीन्हि उड़ाई पिरथमी झूठी॥
शिवप्रसाद सिंह ने अपने उपन्यास दिल्ली दूर है कि भूमिका मंे उल्लेखनीय बात लिखी है। उनके अनुसार, नारियां जौहर कर गयीं। इसी प्रसंग में विजय देव नारायण साही का उनकी पुस्तक जायसी में लिखा कथन बार-बार पढ़ना चाहिए। उन्होंने लिखा, कि ''सिंहल अगर कल्पनालोक था तो जायसी ने उसके मुकाबले दिल्ली लोक की रचना की। दिल्ली इतिहास लोक की दिल्ली है।
अलाउद्दीन गंधर्वसेन से कम प्रतापी राजा नहीं है। कुछ अधिक ही हैं। गंधर्वसेन की प्रतापी सेना दीवार पर चित्रित आभूषण की तरह जगमगाती सेना है। लेकिन अलाउद्दीन की सेना वस्तु जगत् की सेना है जो गांव उजाड़ती है, दुश्मनों के दांत खट्टे करती है। गढ़ों को चू-चूर करती है। वह सेना काव्यात्मक अभिप्रायों की सेना नहीं है, वास्तविक सेना है।
जायसी शीर्षक इस पुस्तक में पृष्ठ-55 से लेकर 60 तक खुसरो की 'तवारीख खजाइन फुतूह' से कई अंश लिए गए हैं, जिसमें वह कट्टर इस्लाम का अलमबरदार लगता है। श्याम मनोहर पाण्डे सूफी काव्य विमर्श में लिखते हैं कि यह प्रश्न विचारणीय है कि पद्मावत के पूर्व की इस रचना में पद्मिनी और रत्नसेन का उल्लेख कहां से आया? जबकि छिताई वार्ता के पीछे इतिहास के सबल आधार हैं और यह एक स्वतंत्र परम्परा का काव्य है। छिताई वार्ता में सबसे पहले बादल का उल्लेख मिलता है और यह एक उत्कृष्ट काव्य है, जिसे नारायणदास ने संवत् 1583 विक्रमी सन् 1526 ईस्वी में ब्रज भाषा में रचा।
इतिहासकार हरिहरनिवास द्विवेदी ने ग्वालियर दर्शन पुस्तक में लिखा है कि छिताई चरित हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण कृति है। हिन्दी की लौकिक आख्यान काव्य-धारा की यह श्रेष्ठ रचना अपने युग की सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से ओतप्रेात है।
टिप्पणियाँ