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उन लोगों ने आपस में इशारों में ही आजाद की निशानेबाजी की परीक्षा लेने की योजना बना डाली, ऐसी जिसमें आजाद उत्तीर्ण न हो सकें और उनकी ठकुराई ईर्ष्या का परितोष हो। एक बहुत ही छोटा, सूखा आंवले से भी छोटा अनार एक पेड़ की टहनी में खोंसा हुआ था और उस पर कई निशानेबाज निशाना लगा चुके थे, पर अभी तक वह उड़ा न था। मास्टर साहब और राजा साहब को यह बात अच्छी नहीं लगी कि आजाद की इस भांति निशानेबाजी की परीक्षा हो। मास्टर साहब ने मुझे इशारा किया। मैं समझ गया। स्थिति संभालते हुए मास्टर साहब ने कहा-पंडित जी, पहले इस भगवानदास का निशाना तो देख लेने दीजिए, इसने कुछ सीखा भी है कि नहीं। हां, भगवानदास हाथ, संभालकर निशाना लगाना,आज तुम्हारी परीक्षा है।
राजा साहब को भी रास्ता मिल गया। उन्होंने मास्टर साहब की बात का समर्थन किया। मगर लोगों को तो पंडितजी की परीक्षा लेनी थी। एक ने कहा-मास्टर साहब, काय ठैन कराउत, फिर काउ पै न लग है। उन्होंने आपस में भी कुछ ऐसी बातें कीं कि पंडित जी को ताव आ जाय और वे निशाना लगायें। परंतु मास्टर साहब के इशारे से और राजा साहब का रुख देखकर मैंने बच्चे की तरह हठ किया—पंडितजी, निशाना मैं लगाऊंगा। राजा साहब ने समर्थन किया तो आजाद को बहुत अनमने होकर बंदूक मेरे हाथों में दे देनी पड़ी। मैंने निशाना साधा और आजाद ने गुरु के रूप में मुझे हिदायतें दीं। आजाद की तकदीर से कहिए, या मेरी ही तकदीर समझिए, मैंने ट्रिगर दबाया, धमाका हुआ, सबके साथ मैंने भी आश्चर्य से देखा कि पेड़ पर हवा से हिलता वह छोटा सा अनार अब नहीं है, और टहनी वैसी ही हिल रही है।
ईर्ष्यालु मुसाहिब खिसियाए, आपस में उन्होंने कुछ ऐसी खुुसफुस की जिससे पंडितजी को भी आखिर ताव आ गया और उन्होंने कह दिया-दाउ साब, जाकी का बात है, फिर लगा ल्यौ जाय। बात बढ़ती दिखी तो मास्टर साहब ने अपने हास्य से और राजा साहब ने अपने शांतिप्रिय अधिकार से परिस्थिति को संभाला। ठाकुर साहब कुछ अंटसंट कहते ही रहे और पंडितजी, मास्टर साहब और राजा साहब मुस्कुराते रहे। बीच-बीच में ठाकुर साहब को माकूल परंतु हास्य के रूप में कभी कुछ जवाब देने का काम मास्टर साहब ने अपने ऊपर ले लिया। आजाद ने वे शस्त्र नहीं लिये।
फिर तो दिन में आजाद ने कुंवर रघुवीर सिंह जी से भी काफी अच्छी मैत्री कर ली। दोनों शिकार में साथ रहे, परंतु राजा साहब ने इन दोनों को अकेले नहीं छोड़ा, आजाद को तो उन्होंने सदैव अपने साथ ही रखा। किसी न किसी बहाने रघुवीर सिंह जी को कुछ समय के लिए इधर-उधर करके राजा साहब ने आजाद से कुछ बातें एकांत में करने के लिए अवसर निकाल ही लिया। आजाद ने राजा साहब की सारी परिस्थिति समझ ली। उन्होंने निश्चय कर लिया कि राजा साहब के यहां से पिस्तौलें ले लेना ठीक नहीं होगा, केवल कारतूस ही लिये जा सकते हैं, यद्यपि राजा साहब यही आग्रह करते रहे कि यदि दल को पिस्तौलों की बड़ी आवश्यकता है तो वे किसी न किसी प्रकार उन्हें दल के पास भिजवा ही देंगे। परंतु आजाद ने यह स्वीकार नहीं किया। जब हम लोगों को आजाद के निश्चय का पता चला तो हमें बड़ी निराशा हुई। यहां यह समझ लेने की आवश्यकता है कि हम क्रांतिकारी अपने शस्त्रों को अपने साथियों से कम कीमती नहीं समझते थे और पिस्तौल आदि प्राप्त करने के लिए जीवन को भी संशय में डालना बड़ी बात नहीं समझी जाती थी।
बाद में राजा साहब के पास से सदाशिव जी उन पिस्तौलों के कारतूस कई बार लाये और वे हमारे दल की पिस्तौल और रिवाल्वरों में ठीक बैठ जाते थे। रुपये-पैसे तो हम लोग कई बार आवश्यकता पड़ने पर लाए ही। शाम को भोजन के पहले और बाद में भी संगीत और साहित्य की गोष्ठी जमी। कुंदनलाल नाम के एक गवैये आए हुए थे और बुंदेलखंड के प्रसिद्ध कवि चिरगांव के मंुशी अजमेरी जी भी वहां थे। कुंदनलाल जी का गाना हुआ, उन्होंने अधिकतर ठुमरी और दादरे ही गाये जो शृंगार की भावना से ही भरे हुए थे सो भी परकीया के हाव-भावों से ओतप्रोत। मुझे लगा कि यह पंडितजी के लिए रघुवीर सिंह जी की बातें सुनकर क्रोध को रोके रहने से भी अधिक कड़ी परीक्षा है। अपने गाने के शौक में गजलें या अन्य प्रेम के गीत गाने पर मैं आजाद की झिड़कियां कई बार सुन चुका था, मुझसे गजलें गवाना दल में साथियों, विशेषत: अमर शहीद भगतसिंह का विनोद में आजाद को चिढ़ाने का एक अच्छा साधन था। अत: मैं यह बड़े ध्यान से देख रहा था कि इस सामंती दरबारी गोष्ठी में ऐसे गानों के प्रति आजाद का कैसा रुख रहता है। कुंदनलाल जी ने एक दादरा गाया-चले जावो जी, जावो जी, जावो भला, हमसे न बोलो मोहन प्यारे। इसे गायक महोदय ने हाव-भाव के प्रदर्शन के साथ इस प्रकार प्रस्तुत किया कि एक नायिका अपना शृंगार करती जाती है और नायक की उपेक्षा करती जाती है। मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि कोई भी आजाद को देखकर यह नहीं कह सकता था कि उन्हें यह बिल्कुल पसंद नहीं आ रहा है और वे हृदय से इसका रस नहीं ले रहे हैं। आजाद के संबंध में मेरी यह धारणा रही है कि वे उन लोगों में से हैं जिनके लिए कहा जा सकता है कि वे सुर से खफा, ताल से नाराज रहा करते हैं। मुझे यह देखकर आश्चर्य हो रहा था कि आजाद अन्य लोगों के साथ गायक के तवायफ जैसे हाव-भाव प्रदर्शन पर भी दाद देते जा रहे हैं और कमाल की बात यह थी कि उनका कोई रिमार्क जरा भी असंगत नहीं हो रहा था। गायक महाशय रूठी और इठलाई हुई स्त्री का हाव-भाव प्रदर्शन अच्छा ही कर रहे थे, परंतु बीच-बीच में अपनी प्रशंसा से उत्साहित होकर मूंछों पर भी हाथ फेर लेते थे। इस पर आजाद के इस रिमार्क ने गायक सहित सभी को चकित कर दिया-क्या कहना है सुर, लय और हाव-भाव का। पर श्रीमान उस्ताद ने मूंछों को माफ नहीं किया। इस पर गोष्ठी में कहकहे लगते रहे।
मुंशी अजमेरी जी-आजाद की वह गुफ्तगू
गोष्ठी में मुंशी अजमेरी जी की यह बहुमुखी प्रतिभा का प्रदर्शन देखने को मिला। मुंशी जी ने शुद्ध शास्त्रीय संगीत तो सुनाया ही, भागवत की कथा भी बिल्कुल कथावाचकों के लहजे में ही सुनाई। मुंशी जी ने नाक से सरोद के बोल सुनाए, ईसुरी की फागें सुनाईं, अन्य बुंदेली लोकगीत सुनाए और ठेठ देहाती बुंंदेली कहानी कहने वालों के लहजे से बंंुदेली वीरवार्ताएं भी सुनाईं। आजाद हृदय से आनंद ले रहे थे, यही दिख ही रहा था।
गोष्ठी समाप्त हुई तो आजाद, मास्टर साहब, सदाशिवजी और मैं कोठी की छत पर रात में आराम करने पहुंचे। वहीं मुंशी अजमेरी जी भी आ गये। सोने के पहले यों ही मुंशी जी ने आजाद से पूछा-कहिए पंडित जी, कैसी लगी आपको आज की गोष्ठी? बड़ी सादगी से आजाद ने उत्तर दिया, मुंशी जी, सच कहूं? सुर-ताल की तमीज तो मुझे खाक भी नहीं है। औरों की री री मां मरी री जैसी बात तो मेरी समझ में आई नहीं। हां, आपके वीरगीत और वीरवार्ताओं को जिंदगी भर न भूलूंगा, उनमें भी धा धा मारे मारे धा जैसी बात। मुंशीजी खिलखिला कर हंस पड़े। पलंग पर लेटे थे, उठकर बैठ गये। आजाद भी बैठ गये और काफी थके होने पर भी मुंशीजी ने कई गीत फिर सुनाए। मुंशी जी के कई गीतों की पंक्तियों को बाद में मैंने आजाद को गुनगुनाते सुना है, कभी मौज में होते तो मुझे भी उन गीतों को सुनाने को कहते।
सोउ सुनै जाव…
दूसरे दिन आजाद सबसे, विशेषत: कुंवर रघुवीर सिंह जी से बड़े ही मैत्रीभाव से मिलकर विदा हुए। मास्टर साहब के साथ यह तो स्पष्ट ही था कि हम लोग यानी आजाद, सदाशिव जी और मैं, राष्ट्रीय विचारों के लोग हैं, इसको तो न छिपाया जा सकता था, न छिपाया ही गया था। परंतु राजा साहब के मुसाहिबों की हम लोगों के प्रति यह धारणा होना स्वाभाविक था कि हम लोग राजा साहब की उदारता का आर्थिक लाभ उठाने के लिए ही उनके पास आते रहते हैं। राजा साहब ने पंडित जी का जैसा सम्मान किया था उससे लोगों को यह लगना स्वाभाविक था कि पंडित जी जरूर कुछ लंबी रकम ले जाएंगे। स्पष्ट है उन लोगों ने इस पर अवश्य ही कड़ी नजर रखी होगी। और जब उन्होंने देखा कि पंडितजी को तो कुछ भी नहीं दिया गया तो उन्हें आश्चर्य होना स्वाभाविक था। विदा होते समय कुंवर रघुवीर सिंह जी ने सबके सामने ही, राजा साहब को भी सुनाते हुए कहा- पंडित जी! कहा-सुना माफ करना। गावौ और कविताई तौ अपुन ने बहुत सुनी, एक हमाई कविता सोउ सुनै जाव-
आवै कंुदनलाल जी इक्कावन लै जायें।
मित्र विचारे देशहित कौड़ी हू नई पायें।।
आजादी और आजाद के प्रेम का प्रमाणपत्र
हम लोगों ने आजाद के निर्देशों के अनुसार इस बात की पूरी-पूरी सावधानी बरती कि यह किसी भी प्रकार विदित न हो सके कि राजा साहब क्रांतिकारियों की सहायता करते हैं या उनका आजाद से कोई संपर्क है, परंतु ऊंट की चोरी न्यौरे-न्यौरे कहां तक हो सकती थी। यही बहुत बड़ी बात है कि राजा साहब का नाम किसी भी क्रांतिकारी मुकदमे में नहीं आ सका और प्राय: सभी मुकदमों में होने वाले मुखबिरों को राजा साहब से आजाद का संपर्क होने की कोई जानकारी ही नहीं हुई। फिर भी आजाद के जीवनकाल में ही राजा साहब को आजाद से अपनी इस मैत्री और क्रांतिकारियों से अपने इस संबंध का मूल्य चुकाना ही पड़ा। लाहौर में सैंडर्स के मारे जाने और शहीद भगतसिंह द्वारा दिल्ली असेंबली में बम फेंके जाने के बाद जब मुझे आवश्यकतावश राजा साहब के पास आर्थिक सहायता के लिए जाना पड़ा तो मुझे मालूम हुआ कि अभी हाल में ही राजा साहब को शासनाधिकार से वंचित किया गया है और वहां सुपरिटेंडेंट का शासन कायम हो चुका है। राजा साहब ने आजाद के लिए संदेश दिया कि वे उनके शासनाधिकारच्युत होने से क्षुब्ध न हों, परिस्थिति के अनुकूल वे अपना योगदान करते रहेंगे।
अमरशहीद चंद्रशेखर आजाद में अपने संपर्क में आने वालों को उनकी पात्रता के अनुसार अपने रंग में रंग लेने और अपने सहज गुणों से प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता थी। ल्ल
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