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इतिहास के पन्नों से
पाञ्चजन्य, वर्ष: 14 अंक: 15
1 फरवरी ,1960
एक ओर सरकार का कठोर दमन-चक्र और दूसरी ओर जनसंघ के नि:स्वार्थ व निर्भय, कार्यकर्ताओं का कठोर परिश्रम— यही जनसंघ की पश्चिम बंग शाखा के विगत वर्ष का संक्षिप्त इतिहास है। दमन-चक्र के सामने जो कभी सर नहीं झुकाते और निरंतर ध्येय मार्ग की ओर ही जाते हैं— उनका परिश्रम सफल होता है, स्वयं परमेश्वर उन्हें ध्येय प्राप्ति में सहायता करते हैं। इतिहास की यह परंपरा बंगाल जनसंघ के कार्य की प्रगति से ही सतत प्रमाणित हुई है।
नेहरू-नून समझौते का विरोध काले कानून के शिकार रामदा
1958 में नेहरू-नून समझौते का विरोध जनसंघ ने किया और उस समय पाकिस्तान की ओर से होने वाले हमलों से जब सीमांत की जनता में त्राहि-त्राहि मच रही थी, तब पश्चिम बंग जनसंघ के संगठन मंत्री श्रीराम प्रसाद दास ने उन स्थानों का दौरा किया, जहां पर उस समय भी गोलाबारी जोरों से जारी थी। अपने जीवन को संकट में डालकर रामदास ने सीमावर्ती हिंदुओं की दयनीय स्थिति अपनी आंखों से देखी और उन्हें साहस और धैर्य दिलाया। भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष आचार्य देवप्रसाद घोष भी कुछ स्थानों पर रामदास के साथ थे। कई स्थानों में सीमांतवर्ती पुलिस थानों के अफसरों ने रामदा को बताया कि पाकिस्तान की ओर से गोली चलने पर भी हमें गोली का जवाब देने का अधिकार नहीं है। सदर थाना से हुकुम आने में बीहड़ रास्ता, नदी-नहर आदि पार कर आने जाने में 7-8 दिन का समय लग जाता है। कहीं-कहीं अत्यंत संकटजनक स्थिति उत्पन्न होने पर साहसी पुलिस दल ने हुकुम पहुंचाने के पहले ही पाकिस्तानी गोली-वर्षा का जवाब गोली से देकर सीमांत की जनता की रक्षा की, परंतु उनकी इस वीरता का पुरस्कार सरकार ने उनकी नौकरी छीनकर दिया। कितने ही स्थानों पर सीमांत पुलिस-चौकी के सिपाहियों के पास बिल्कुल हथियार नहीं थे और खाली हाथ उन्हें पाकिस्तानी मशीनगनों का सामना करने के लिए हमारी अहिंसावादी सरकार ने छोड़ रखा था। उसके फलस्वरूप पाकिस्तानी गोलियों से भारतीय सीमांत-सिपाहियों की हत्या हुई। यह समाचार सभी को विदित है। सरकार ने केवल प्रतिवाद पत्र भेजकर अपना कर्तव्य बार-बार पूरा किया।
श्रीराम प्रसाद दास ने इन्हीं सारी बातों का वर्णन नेहरू-नून समझौता के विरोध में आयोजित एक सभा में भाषण किया, जिसके फलस्वरूप दिनांक 7 अक्तूबर, 1958 को उन्हें सुरक्षा कानून के अंतर्गत बंदी बना लिया गया। उनके विरुद्ध हमारी सरकार ने यह आरोप लगाया कि वे प्रधानमंत्री नेहरू की हत्या करने के लिए दिल्ली जा रहे थे। श्रीरामदा उसी दिन आचार्य घोष के साथ जनसंघ कार्यकारिणी- सभा में भाग लेने के लिए दिल्ली जा रहे थे। पूरा एक वर्ष बिना मुकदमा चलाए उन्हें बंद रखा गया।
भाऊराव जेल में
एक साल बाद दिनांक 6 अक्तूबर 1959 को रामदा दमदम केन्द्रीय कारागार से मुक्त किए गए। सायंकाल श्रीरामदा के स्वागतार्थ आयोजित एक सभा में भाग लेकर वापस आते समय एकाएक पश्चिम बंगाल जनसंघ के दूसरे संगठन मंत्री श्री भाऊराव जुगादे को रास्ते में गिरफ्तार कर लिया गया और अत्यंत निर्दयता के साथ ढकेल कर सादे कपड़े पहनी पुलिस गाड़ी में जबरदस्ती उठाकर उन्हें ले गई।
तुष्टीकरण के आधार पर शांति असंभव
''परिस्थिति काल ने हमें चौराहे पर ला खड़ा किया है। कांग्रेस राज्य में गत 14 वर्षों से हम भटक रहे हैं। अब हम किस रास्ते चलें, इस बात का निर्णय करना है? गत वर्षों में बेकारी बढ़ी है। बेकारी को दूर करने के लिए योजनाएं बनाई गईं, प्रयास भी किए गए। किंतु सारे ही प्रयास विफल रहे। देश की सर्वोन्मुखी प्रगति के लिए बहुमुखी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। राष्ट्रोथान के लिए जन-जन को त्याग बलिदान और पुरुषार्थ करना होगा। किंतु इसके लिए ज्वलंत आदर्श चाहिए।'' ये शब्द चौपाटी (बंबई) पर आयोजित महती सभा में उ.प्र. भारतीय जनसंघ के नेता श्री यादवेन्द्रदत्त दुबे ने प्रकट किए। इस जनसभा में लगभग 2 दर्जन नागरिक समितियों ने आपका अभिनंदन किया।आपने कहा कि आज देश के समक्ष राष्ट्र की स्पष्ट कल्पना नहीं है। लोगों ने स्थानीय भावनाओं को महत्व दिया है। भाषावाद, प्रांतवाद और जातिवाद के नाम पर संघर्ष खड़े हो गए हैं। जनसंघ देश को साक्षात् माता के रूप में मानता है। कांग्रेस राज्य ने इस बात का विस्मरण कर दिया है कि हिमालय से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक संपूर्ण देश एक और अखंड है। इसी तथ्य की उपेक्षा के कारण बंबई में भाषा के नाम पर रक्तपात हुआ है। एक भाई ने दूसरे पर प्रहार किए हैं। भाषा तो विचार व्यक्त करने की साधन मात्र है। मराठी और गुजराती से क्या अंतर हो जाता है?
श्री दुबे ने कहा कि राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए नींव को सुदृढ़ करना अनिवार्य है। देश के 40 कोटि जन-जन में यह अलख जगाना है कि हम सब भारतीय हैं। हमारी एक ही आशा और आकांक्षा है। हम सब एक ही भारत माता के समान पुत्र हैं। पाश्चात्य और भारतीय परंपरा में मूलभेद है। पाश्चात्य दर्शन का आधार बहुजन हिताय है। तद्नुसार 51 लोगों के लिए 49 लोगों की आशा और आकांक्षाओं को ठुकरा दिया जाता है।
दिशाबोध : ऐसी विजय हमें नहीं चाहिए
''देखिए, मेरा प्रभाव नहीं पड़ेगा, ऐसा लगता हो, तो मैं चुनाव से हट जाता हूं। किंतु केवल मतों के लिए मैं अपने भाषणों में अनावश्यक तीखापन नहीं ला सकूंगा। विरोधियों की व्यक्तिगत आलोचना करना तो मैं अनैतिक ही मानता हूं। सिद्धांत की बलि चढ़ाकर जातिवाद के सहारे मिलने वाली विजय, सच पूछो तो, पराजय से भी बुरी है। ऐसी विजय हमें नहीं चाहिए। भाई, राजनीतिक दल के जीवन में एक उपचुनाव कोई विशेष महत्व नहीं रखता। किंतु एक चुनाव में जीतने के लिए हमने जातिवाद का सहारा लिया, तो वह भूत सदा के लिए हम पर सवार हो जाएगा और फिर कांग्रेस और जनसंघ में कोई अंतर नहीं रहेगा।''
—पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-7, पृ. 36-37
(दीनदयाल जी का यह विचार जौनपुर लोकसभा के उपचुनाव के संदर्भ में था। इस चुनाव में वे स्वयं जनसंघ के प्रत्याशी थे। उस समय तीन महतवपूर्ण उपचुनाव हुए थे। एक में डॉ. लोहिया चुनकर आए थे तो दूसरे में आचार्य कृपलानी। किंतु तीसरे में दीनदयाल जी हार गए थे। चुनाव हारने के बाद उन्होंने कहा था कि मेरे विरुद्ध खड़ा कांग्रेस का प्रत्याशी एक सच्चा कार्यकर्ता है। उसने उस भाग में पर्याप्त काम किया है। अत: स्वाभाविकत: लोगों ने उसे अधिक मत दिए।)
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