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यह स्थिति मेरे ऊपर लगभग थोप दी गई है। इसलिए मैं इससे सीधे दो-दो हाथ करते हुए साफ-साफ शब्दों में अपनी बात रखूंगा। अपने ही व्यवसाय में काम करने वाले लोगों पर मैं टिप्पणी करना पसंद नहीं करता, क्योंकि चाहे कुछ भी हो, वे मेरे साथी पत्रकार हैं। परंतु मुझे यहां लिखना पड़ रहा है कि वे अपने व्यवसाय या पत्रकारिता के पहले बुनियादी नियम को भूल गए हैं, जो है ईमानदारी।
जी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल विवाद
मैं जी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के उस सत्र में मौजूद था जहां रा. स्व. संघ के अधिकारी, डॉ. मनमोहन वैद्य एवं श्री दत्तात्रेय होसबाले संघ की विचारधारा के संदर्भ में चर्चा कर रहे थे। वहां मेरे कई पत्रकार मित्र भी उपस्थित थे। उन्होंने भी दोनों अतिथियों के विचार सुने। दोनों ने कहा कि जिन जातियों के साथ सदियों से भेदभाव होता आया है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके लिए आरक्षण के पक्ष में है। उन्होंने अपने विचार सविस्तार रखे और इस दौरान पांथिक अल्पसंख्यकों पर भी बात की और बताया कि क्यों इससे जुड़े मुद्दों पर बहस
होनी चाहिए।
संघ के दोनों अधिकारियों के विचार पूरी तरह स्पष्ट थे और यह संगठन का अपना नजरिया था। इससे जुड़ी सीधी-सीधी तथ्यपरक खबर बनती थी। इसके कुछ देर बाद मैंने उनके कहे को ट्विटर पर जारी किया और उसके कुछ ही मिनटों में मेरे ट्विटर हैंडल पर टिप्पणियों का अंबार लग गया। लोगों का कहना था कि रा. स्व. संघ के दोनों अधिकारियों के कहे पर सबसे पहले हम पत्रकार आपस में फैसला करें।
गलत उद्घरण
इसके बाद मैं पुन: लोगों के विचारों को जानने के लिए ट्विटर पर गया और पाया कि कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने बिल्कुल तथ्यहीन बातें वहां लिखी हुई थीं। मुझे नहीं पता कि उन्हें वैसी सूचना कहां से मिली और क्यों उन्होंने उसे ट्विटर पर प्रसारित किया। वहीं कुछ टेलिविजन चैनलों ने बयान को केंद्र बनाते हुए कुछ बहस-मुबाहिसे शुरू कर दिए थे। बिल्कुल गलत सूचना पर वहां जोरदार बहस देखने-सुनने को मिल रही थी। यह देखकर मैं हैरान रह गया। मुझे हैरानी थी कि बतौर पत्रकार हमसे गलती कहां हुई और कैसे पूर्वाग्रहों के आधार पर वे सूचनाएं प्रचारित हो गई थीं।
दरअसल, सच यह है कि पिछले दो दशकों में मीडिया पर भरोसा निरंतर कम हुआ है। जब मैं उत्तरी अमेरिका में बसा था तब मैं वहां अपने संपादकों को दक्षिण एशिया में मीडिया पर आमजन के भरोसे की बात गर्व से बताता था; जिस पर वे खासे हैरान होते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि खुद वहां जनता के बीच मीडिया की छवि इतनी भरोसेमंद नहीं थी। परंतु पिछले कुछ समय से भ्रामक सूचनाओं के कारण लोगों का मीडिया संस्थानों, विशेषकर पत्रकारों में यकीन लगातार कम होता गया है।
रपटीली ढलान
सच यह है कि यदि भारत में मीडिया के पक्षपातों से जुड़ा अध्ययन किया जाए तो अविश्वास का समान स्तर दिखेगा। पत्रकार सत्ता के गलियारों से दूर रहने में नाकाम रहे हैं। दुर्भाग्य यह कि उन्होंने बिचौलियों एवं दलालों की भूमिका अपना ली है। उन्हें उनके काम का मुआवजा हर रूप में मिलता है जिसका सीधा असर उनकी छवि पर पड़ता है। पत्रकारिता अपने आप में नेक पेशा है जिसका आधार-वाक्य ईमानदारी है और सही रिपोर्टिंग इसका औजार है। वहीं ईमानदारी और विश्वसनीयता के उन्मूलन के साथ ही इस पेशे और अन्य व्यवसायों में कोई अंतर नहीं रह जाता।
अत: पत्रकार किस राह जाना चाहते हैं, इसका फैसला उन्हीं के हाथों में होता है। क्या वे सड़ी हुई व्यवस्था का हिस्सा बनना चाहते हैं या उस पर निगाह रखकर उसके कमजोर पक्षों के प्रति आगाह करने वाले पहरेदार की भूमिका में रहना चाहते हैं ? मुझे नहीं लगता कि इस मामले में कोई दोराय हो सकती है। फैसला 'किया जाए या न किया जाए' के बीच है। रोहित गांधी
( साभार डीएनए,लेखक इसके मुख्य संपादक है)
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