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चौथा स्तम्भ / नारद
लगता है, मीडिया का काम इन दिनों खबर देना नहीं, बल्कि बेसिर-पैर के विवाद पैदा करना रह गया है। जब कुछ विवाद प्रेमी राजनीतिक दलों और मीडिया की जुगलबंदी हो जाती है, तो स्थिति और भी जटिल हो जाती है। टीआरपी की होड़ में विवाद पैदा करने की मजबूरी समझ में आती है, लेकिन जब ये विवाद देश के सामाजिक और सामरिक मामलों में विष घोलने वाले हों तो इन्हें मंजूर नहीं किया जा सकता।
हाल के दिनों में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिनसे मीडिया के एक तबके का गैर-जिम्मेदार चेहरा सामने आता है। कुछ अगंभीर किस्म के नेताओं ने एक परचा लहराया और कहा कि इसमें प्रधानमंत्री के रिश्वत लेने की बात लिखी है। मीडिया ने सबकुछ जानते-समझते हुए भी फौरन इस खबर को लपक लिया। कुछ चैनलों ने प्राइम टाइम में इस पर बहस तक कराई। जबकि यह जानकारी सभी को थी कि यह आरोप सवार्ेच्च न्यायालय में झूठा साबित हो चुका है। एक चैनल के 'क्रांतिकारी' एंकर ने तो बेहद बचकाने ढंग से प्रधानमंत्री के इस्तीफे की अटकलें लगानी शुरू कर दीं। कुछ इसी तरह 2015 के स्पेक्ट्रम आवंटन का मामला रहा। कुछ चैनलों और अखबारों ने इसमें घोटाला साबित करने की भरपूर कोशिश की, लेकिन पिछले दिनों जब इस मामले पर सवार्ेच्च न्यायालय का फैसला आया तो किसी ने एक लाइन की खबर तक देने की जरूरत नहीं समझी। देश ने पहली बार देखा कि सरकारी योजनाओं और कैलेंडरों में प्रधानमंत्री की तस्वीर छापने पर भी विवाद पैदा हो सकता है। जिस मीडिया को हर सरकारी योजना से लेकर सरकारी प्रतिष्ठान तक में एक परिवार का नाम जोड़े जाने पर कभी आपत्ति नहीं हुई, वह खादी के कैलेंडर में प्रधानमंत्री की तस्वीर देखकर व्यथित हो उठा। ये वह मामला था जिसमें विपक्ष कम और मीडिया का एक वर्ग ज्यादा सक्रिय था।
नकारात्मकता ढूंढने की हद यह है कि पाकिस्तान की कैद से छूट कर आए जवान चंदू चव्हाण की खबर को ज्यादातर चैनलों ने सिर्फ 2-4 बार दिखाकर हटा दिया। अखबारों में भी इस जवान की वापसी की जानकारी अंदर के पन्नों में ही जगह पा सकी। एक चैनल ने जवान के गांव में जश्न की तस्वीरें दिखाईं। जैसे ही वहां लोगों ने रिहाई के लिए केंद्र सरकार की भूमिका और जवान के परिवार को सेना की तरफ से मिली मदद की तारीफ करनी शुरू की, खबर अचानक खत्म हो गई। पिछले दिनों कुछ सैनिकों की शिकायतों के बाद पैदा माहौल में अगर जवान चंदू चव्हाण के गांव की आवाज देश तक पहुंच जाती तो क्या यह अच्छा नहीं होता?
उधर, उत्तर प्रदेश के पारिवारिक तमाशे में मीडिया की भूमिका सीधे तौर पर शक के दायरे में है। ज्यादातर चैनल और अखबारों के दफ्तर नोएडा में हैं। शायद इसी का नतीजा है कि कवरेज को समाजवादी पार्टी सरकार की तरफ झुका हुआ साफ देखा जा सकता है। बात मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की हो तो समाचार और विज्ञापन की दीवार टूट जाती है। राज्य के विकास का मुद्दा या अखिलेश सरकार के कामकाज की कोई समीक्षा नहीं है। राज्य में कानून-व्यवस्था की जो स्थिति है, उसके बारे में कोई बात नहीं। सिर्फ एक परिवार के सदस्यों की नूराकुश्ती और जातीय समीकरणों की चर्चा मीडिया में चल रही है।
समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की 'बेमेल खिचड़ी' को दोनों परिवारों की बहू और बेटी के राजनीतिक चातुर्य का प्रतीक बताया गया। अति उत्साह में एक चैनल ने खबर दी कि बहू-बेटी ने कर दिया कमाल। इस गठबंधन की विसंगतियों की चर्चा हर चैनल और अखबार से गायब है।
जब कहीं चुनाव होता है तो वहां की जनता के मुद्दों की छोटी-छोटी खबरें भी मीडिया के फोकस में रहती हैं। खबर आई कि यूपी को छोड़ पूरे देश में बिजली संकट की स्थिति लगभग खत्म होने को है। कुछेक अखबारों को छोड़ दें तो कथित राष्ट्रीय मीडिया ने इस खबर पर ध्यान ही नहीं दिया। वह भी तब जब नोएडा में उनके दफ्तरों में रोज घंटों बिजली गायब रहती है। राज्य में बिजली से लेकर कानून-व्यवस्था तक की हालत ठीक नहीं है, लेकिन यह सबकुछ टीवी चौनलों और अखबारों को नहीं दिखता।
दिल्ली से कुछ किलोमीटर दूर यमुना एक्सप्रेसवे पर एक भरी बस को लूट लिया गया, उसमें महिलाओं के साथ बर्बरता हुई। लेकिन यह खबर कहां गायब हो गई, कुछ पता ही नहीं चला। ज्यादातर चैनलों के दफ्तरों से मुश्किल से घंटे भर की दूरी पर हुई इतनी बड़ी घटना की पड़ताल के लिए किसी चैनल ने रिपोर्टर नहीं भेजा।
उधर तमिलनाडु में जल्लीकट्टू को लेकर हुई हिंसा में मीडिया ने एक बार फिर पूरी भूमिका निभाई। एनडीटीवी समेत कई चैनलों ने पूरे लाइव अंदाज में वे तस्वीरें दिखाईं जिनसे लोगों की भावनाएं भड़कती हों। शायद इसी का नतीजा था कि हिंसा तेजी से फैली। क्या यह बहुत जरूरी है कि जलती हुई गाडि़यां और पुलिस के हाथों पिटते प्रदर्शनकारियों की तस्वीरें लाइव दिखाई जाएं? यह देखा गया है कि जब भी ऐसा होता है, हिंसा नए इलाकों में फैलनी शुरू हो जाती है। कुछ महीने पहले कावेरी जल विवाद के वक्त भी बिल्कुल यही हुआ था। लेकिन मीडिया की जिम्मेदार संस्थाओं को टीवी पर दिखाई जाने वाली सामग्री के समाज पर पड़ने वाले असर की शायद ही कभी परवाह रही है।
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