|
हिमांशु कुमार, प्रोफेसर नंदिनी सुंदर, पत्रकार मालिनी सुब्रह्मण्यम, विनायक सेन के बाद अब बेला भाटिया के विरोध में बस्तर के वनवासी खड़े हो गए हैं। इससे इन कथित झोलाछाप सामाजिक कार्यकर्ताओं की असलियत बाहर आ रही है
बस्तर से अनिल द्विवेदी
देश में व्याप्त नक्सल समस्या का केन्द्र बन चुका बस्तर अचानक फिर से चर्चा में आ गया है। वजह, स्थानीय वनवासियों ने कथित सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया को नक्सल-समर्थक बताते हुए उनके बस्तर में रहने पर विरोध जताया है। पुलिस के मुताबिक गत दिनों दो दर्जन से अधिक हथियारबंद वनवासियों ने ग्राम पंडरीपानी में बेला के घर के सामने प्रदर्शन किया तथा पर्चे बांटकर बस्तर से चले जाने की मांग की। इन लोगों का आरोप है कि बेला न सिर्फ स्थानीय लोगों की सुरक्षा में लगे पुलिस बलों के खिलाफ माहौल खड़ा कर रही हैं, बल्कि ऐसा करके नक्सलियों की मदद भी कर रही हैं।
उधर, घटना के बाद बस्तर पहुंचे बेला के पति, अर्थशास्त्री जॉन द्रेज ने मीडिया से कहा कि बेला बस्तर में काफी समय से शोध कर रही हैं तथा मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाती रही हैं, लेकिन पुलिस सलवा जुडूम, एकता मंच और अग्नि जैसे संगठनों के माध्यम से ऐसे लोगों को यहां से खदेड़ना चाहती है। वहीं बेला ने कहा कि मैं लगातार मिल रही धमकियों से नहीं डरने वाली। मैं बस्तर में ही रहूंगी। जबकि उनके मकान मालिक का कहना है कि भाटिया कुछ दिनों में घर खाली करने को राजी हो गई हैं, लेकिन वह उन्हें 24 घंटे में घर छोड़ने को नहीं कह सकते।
बस्तर के पुलिस अधीक्षक आऱ एऩ दास ने बताया कि हमने बेला को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराई है। एक उपनिरीक्षक के नेतृत्व में चार महिला पुलिसकर्मी के साथ 15 पुलिसकर्मी बेला की सुरक्षा में तैनात किए गए हैं। मुख्यमंत्री डॉ़ रमन सिंह ने भी स्वीकार किया है कि वैचारिक मतभेद अपनी जगह हैं, लेकिन सभी को सुरक्षा देना हमारी पहली प्राथमिकता है।
इस विवाद से बड़ा सवाल यह निकला है कि आखिर वनवासी बेला भाटिया का विरोध क्यों कर रहे हैं? दरअसल, कुछ दिन पहले भाटिया ने एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में नक्सलियों का समर्थन किया था और पुलिस बलों पर वनवासी महिलाओं से तथाकथित रूप से बलात्कार करने का आरोप लगाया था। इससे वनवासी बुरी तरह नाराज हो गए हैं।
'आदिवासी सुरक्षा मंच' के अध्यक्ष महेश कश्यप कहते हैं, ''बेला नक्सलियों के समर्थन में काम कर रही हैं और उनका निवास नक्सली विचाराधारा से प्रेरित बुद्धिजीवियों से भरा रहता है। ये लोग पुलिस बल के खिलाफ वनवासियों को भड़काने का काम करते हैं।'' कश्यप यह भी कहते हैं, ''बेला के पति जॉन द्रेज की गतिविधियां भी संदिग्ध हैं। शुरुआती दौर में उन्होंने वनवासियों से मेलजोल बढ़ाया और अब वे अपने भाषणों, चर्चाओं में सरकार और पुलिस बल के खिलाफ माहौल खड़ा कर रहे हैं और वनवासियों को बरगला रहे हैं।''
इस पूरे मामले में आश्चर्यजनक बयान आम आदमी पार्टी की नेता सोनी सोरी ने दिया। उन्होंने कहा, ''हाल ही में मानवाधिकार आयोग की टीम जब बीजापुर के पेदागेलूर गई थी तब पुलिस का सच सामने लाने के लिए बेला ने काम किया था। ऐसे में सरकार ने ही उनके घर के बाहर प्रदर्शन करवाने की साजिश रची है। यदि बेला गलत हैं तो उन पर पुलिस को कार्रवाई करनी चाहिए।''
उल्लेखनीय है कि कुछ पुलिसकर्मियों पर 16 वनवासी महिलाओं के साथ बलात्कार और यौन-उत्पीड़न करने का आरोप लगा था। इसकी जांच करने हेतु राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम बस्तर गई थी। इस टीम के साथ बेला भाटिया भी थीं। फिलहाल आयोग ने इस बारे में छत्तीसगढ़ सरकार से रिपोर्ट मांगी है और साथ ही अपराधियों के खिलाफ अनुसूचित जाति एवं जनजाति कानून की धाराओं के तहत मामला दर्ज करने को कहा है।
इस विवाद में दिल्ली के कुछ सामाजिक संगठन बेला के पक्ष में आ खड़े हुए हैं। बस्तर में जगदलपुर लीगल एड ग्रुप चला रही ईशा खंडेलवाल और सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता गुनीत ने बस्तर के आईजी शिवराम कल्लूरी को मोबाइल संदेश भेजकर बेला को पुलिस सुरक्षा देने की मांग की है। उन्होंने आरोप लगाया कि मोबाइल संदेश के जवाब में कल्लूरी ने अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हुए मोबाइल संदेश भेजा और धमकाया कि नक्सली और उनके समर्थकों को बस्तर से खदेड़कर रहेंगे। अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनीष कुंजाम ने बेला भाटिया के घर के बाहर हुए प्रदर्शन की कड़ी निंदा करते हुए इसे बस्तर पुलिस की साजिश बताया है। कुंजाम ने इस संवाददाता से कहा, ''यदि बेला भाटिया के संबंध नक्सलियों से हैं तो पुलिस उन्हें गिरफ्तार करे। बस्तर में सच कहना खतरे से खाली नहीं है।''
उधर आईजी कल्लूरी ने अपने ऊपर लगे आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि कोई पुलिस अधिकारी ऐसा करता है क्या? हमारे फोन में भी कई संदेश हैं। हम भी रिपोर्ट कर रहे हैं, उन्हें भी रिपोर्ट करने दीजिए। हम साइबर विशेषज्ञ से पूरी जांच करवा रहे हैं। वैसे नक्सली या उनके समर्थकों की झुंझलाइट को समझा जा सकता है।
दरअसल, कल्लूरी को एक ऐसे पुलिस अधिकारी के तौर पर माना जाता है, जिन्होंने सरगुजा जिले में नक्सलियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की थी और उन्हें वहां से खदेड़ दिया था। यही कारण है कि आज सरगुजा जिला चैन की सांस ले रहा है। इन परिणामों को देखते हुए ही राज्य सरकार ने कल्लूरी को बस्तर का आईजी बनाया और पिछले दो साल से वे बेहतर रणनीति के साथ कई मोर्चों पर काम कर रहे हैं।
राज्य सरकार नक्सलियों को आत्मसमर्पण का मौका देने के साथ-साथ युवा नक्सलियों को मुख्यधारा में शामिल कर रही है और उनके लिए अनेक विकास कार्य चला रही है। वहीं वह नक्सली शिविरों की तलाशी लेने के साथ ही उन्हें मिल रही आर्थिक मदद और रसद की आपूर्ति को रोकने में कामयाब रही है। इन अच्छे प्रयासों ने नक्सलियों की कमर तोड़कर रख दी है। अब तक जहां 76 से ज्यादा युवा नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है, वहीं पुलिस की तलाशी और हमलों में दो दर्जन से ज्यादा नक्सली शिविर नेस्तनाबूद कर दिए गए हैं। इन कार्यों से कल्लूरी को जहां राज्य सरकार की शाबासी मिलती है, वहीं वे विपक्ष और सेकुलर मीडिया के निशाने पर रहते हैं। कांग्रेस ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके आईजी कल्लूरी की भूमिका पर सवाल खड़े किए हैं। छत्तीसगढ़ के लोग बेला भाटिया से पहले हिमांशु कुमार, प्रोफेसर नंदिनी सुंदर, पत्रकार मालिनी सुब्रह्मण्यम, डॉ. विनायक सेन तथा कुछ हद तक आप नेता सोनी सोरी के विरुद्ध भी सड़कों पर उतर चुके हैं। इन सब पर नक्सलियों के समर्थन में काम करने के आरोप हैं। प्रशासन ने हिमांशु कुमार के तथाकथित आश्रम को संदिग्ध बताते हुए ढहा दिया था। जबकि डॉ. विनायक सेन पर राजद्रोह का मुकदमा अभी भी चल रहा है। छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत ने सेन को राष्ट्रद्रोह के मामले में सेन को आजीवन कारावास की सजा दी हुई है। अभी उनका मामला उच्च न्यायालय में है। सर्वोच्च न्यायालय से मिली जमानत के बाद वे जेल से बाहर रह रहे हैं। कहा जाता है कि सेन को विदेशी गैर-सरकारी संगठनों का समर्थन प्राप्त है और वे उन्हीं के लिए कार्य करते हैं। सेन और कांग्रेस के बीच भी दोस्ती है। यही कारण है कि सोनिया गांधी के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में सेन को भी जगह दी गई थी, जबकि वे सजायफ्ता कैदी हैं। अब कांग्रेस बेला के साथ भी खड़ी है।
बेला भाटिया, विनायक सेन, हिमांशु कुमार जैसे लोगों के मामलों का निचोड़ यही है कि बस्तर के वनवासी यह पहचानने लगे हैं कि कौन उनके हित में है और कौन अहित में। विदेशी चंदों पर फलने-फूलने वाले कथित सामाजिक कार्यकर्ताओं को ये लोग अच्छी तरह जानने लगे हैं। वास्तव में जो लोग उनके लिए काम करते हैं, उनका वे कभी विरोध नहीं करते। इसका उदाहरण है नारायणपुर में चल रहा स्वामी रामकृष्ण मिशन का आश्रम। 50 वर्ष से चल रहे इस आश्रम का वनवासियों ने कभी भी विरोध नहीं किया है।
बस्तर में सालों से पत्रकारिता कर रहे कांकेर के वरिष्ठ पत्रकार विजय पाण्डे कहते हैं, ''बस्तर के वनवासी बाहर के लोगों को बहुत जल्दी स्वीकार नहीं कर पाते और कोई उनके जीवन में दखल दे, यह तो उन्हें कतई पसंद नहीं है। फिर जिस तरह कथित सामाजिक कार्यकर्ता नेता बनने की कोशिश करते हैं, उसके चलते स्थानीय युवाओं में आक्रोश पैदा होता है जो धीरे-धीरे सामूहिक विरोध में बदल जाता है।''
ताजा विवाद से भी यही संदेश गया है। वहीं दूसरी ओर नक्सलियों की चिंताएं बढ़ गई हैं। अपने समर्थकों को खदेड़े जाने से वे हताश हैं। उन्हें चिंता इस बात की है कि यदि इसी तरह उनके समर्थकों को छत्तीसगढ़ से भगा दिया गया तो वे किनके भरोसे हिंसा करेंगे?
टिप्पणियाँ