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इस लेख को लिखने से पहले मुझे मौला अली का एक वाक्य याद आया जो कहता है, 'साधारणतया लोग उस चीज के दुश्मन हो जाते हैं जिसे वह नहीं जानते।' मुझे लगता है कि संघ से बाहर के लोगों, जिनमें मैं शामिल हूं, की समस्या यही है कि वे सीधे तौर पर संघ से परिचित नहीं हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधित लोगों के साथ सीधे संपर्क और लगभग 18 महीने तक उनके साथ रहने, खाने-पीने, विचार- विमर्श करने का अवसर पहली बार 1975 में मिला, जब हम सब लोग आपातकाल के बंदी थे। इस अवधि में मैंने करीब छह महीने अलीगढ़ जेल और वहां से स्थानान्तरित होने के बाद लगभग एक वर्ष लखनऊ जेल में बिताया।
ऐसा कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति आपका पड़ोसी हो या आपने उसके साथ लेन-देन का मामला किया हो या साथ में लंबी अवधि की यात्रा की हो तो आप उस व्यक्ति के चरित्र तथा स्वभाव के बारे में सही राय कायम कर सकते हैं। मेरे अनुभव से यह बात उन पर भी लागू होती है, जिन्होंने जेल में कुछ समय साथ में बिताया हो।
संघ के बारे में मेरी धारणाएं वही थीं, जो साधारणतया संघ के आलोचकों की हैं, लेकिन स्वभावत: मुझे अपने से भिन्न राय रखने वालों से डर नहीं लगता, बल्कि उनके बारे में जानने की उत्सुकता रहती है। एक ही बैरक में साथ रहना तो मजबूरी थी लेकिन मैं संघ के साथियों की बैठकों, विशेषत: हर सप्ताह होने वाले बौद्धिक में सम्मिलित होता था, जहां हर बार किसी अलग विषय पर अलग वक्ता का उद्बोधन होता था। बोलने के लिए स्वयंसेवकों के अलावा दूसरों को भी आमंत्रित किया जाता था। इसमें बोलने के लिए खुद मुझे कई बार कहा गया।
मैं गिरफ्तार होने से पहले तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छात्र संघ का अध्यक्ष था तथा उससे पहले वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक तक के लगभग सभी पुरस्कार जीत चुका था। अपनी इस पृष्ठभूमि के साथ मैं संघ के साथियों से बहुत स़ख्त प्रश्न किया करता था, लेकिन मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वे मेरे प्रश्नों से उत्तेजित होने की बजाय मुझे संतोषजनक उत्तर देने का प्रयास करते थे। इससे बढ़कर बात यह थी कि निजी स्तर पर जो रिश्ते बन गए थे, उनकी मधुरता पर इन बहसों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था और खास तौर से अलीगढ़ में संघ के साथियों के घर से आने वाले पकवानों में मैं बराबर का साझी होता था। संघ के साथियों के साथ जो रिश्ते जेल में बने थे, आगे चलकर उनका और विस्तार हुआ। इसका मतलब यह तो नहीं कि विचारों में पूरी तरह समानता आ गई, लेकिन एक बात बड़ी हद तक समझ में आ गई कि विभिन्नता विचारों से ज्यादा वाक्पटुता तथा शब्दावली की है और यह बात स्वयं संघ परिवार के नेताओं के बयानों से भी स्पष्ट हो जाती है।
मुझे यह बात परेशान करती थी कि जिस परंपरा में खुदा को 'सर्वभूतमय' तथा 'सर्वभूताधिवासम्' कहा गया है, वहां संघ वाले केवल एक परंपरा की बात कैसे करते हैं। सनातन परंपरा, विशेष तौर पर उपनिषद् तो प्राणी और जड़ हर चीज में निहित दिव्यता और उसकी अभिव्यक्ति देखते हैं, तो फिर इस परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाले धार्मिक आस्था के आधार पर अपना कार्यक्षेत्र कैसे तय कर सकते हैं।
1980 के पश्चात् बहुत से ऐसे अवसर मिले जब मैंने संघ प्रमुखों में रज्जू भैया, सुदर्शन जी और भागवत जी के सार्वजनिक उद्बोधन सुने। संघ परिवार की बहुत-सी संस्थाओं में मुझे बहुत बार वक्ता के रूप में जाने का भी मौका मिला। कुछ वर्ष पूर्व मुझे नागपुर में होने वाले राष्ट्रीय प्रशिक्षण शिविर के अवसर पर आयोजित सार्वजनिक कार्यक्रम में बोलने के लिए भी आमंत्रित किया गया। इन सभी अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि जब संघ हिंदू या हिंदुत्व शब्द का प्रयोग करता है तो उनके अनुसार उसका अभिप्राय धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि भारतीय जीवन शैली होता है। मैं उसी उद्देश्य से जब भारतीय शब्द प्रयोग करता हूं तो संघ वालों को उस पर कोई आपत्ति नहीं होती।
मुझे गुरु गोलवलकर जी को सुनने का अवसर नहीं मिला, लेकिन उनका एक साक्षात्कार, जो 'ऑर्गनाइजर' (26 अगस्त,1972) में छपा था, पढ़कर मैं हैरान रह गया। हालांकि इस मामले में मेरे विचार अलग हैं, लेकिन गुरुजी जिन शब्दों में उन लोगों की आलोचना करते हैं, जो देश में एकरूपता लाने की बात करते हैं और उसके लिए समान नागरिक संहिता को जरूरी समझते हैं, उस से भारत की बहुधा संस्कृति में संघ के अटूट विश्वास का पता चलता है जो निश्चित ही उन बहुत-सी भ्रांतियों को दूर करने के लिए काफी है जो संघ के बारे में फैलाई जाती हैं।
(लेखक पूर्व केन्द्रीय मंत्री और इस्लामी विचारक हैं)
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