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कार्यपालिका और न्यायपालिका
कार्य का समय
सर्वोच्च न्यायालय : 193 दिन
उच्च न्यायालय : 210 दिन
जिला न्यायालय : 245 दिन
न्यायाधीशों की संख्या
सर्वोच्च न्यायालय
स्वीकृत पद : 31
मौजूदा संख्या : 25
खाली पद : 6
उच्च न्यायालय
स्वीकृत पद-1056
मौजूदा संख्या : 592
खाली पद : 464
निचली अदालतें
स्वीकृत पद-20,358
मौजूदा संख्या : 15,360
खाली पद : 4,998
(3 मार्च 2016 को संसद में दिये गये एक लिखित प्रश्न के उत्तर में-29 फरवरी,2016 तक के आंकड़े)
न्याय का इंतजार
न्याय पाने के इंतजार में हैं 3 करोड़ मामले
न्याय की गति : लगभग 3 वर्ष तक औसतन उच्च न्यायालयों में लंबित रहते हैं मामले।
6 वर्ष निचली अदालतों में कोई भी मामला औसतन लंबित रहता है।
13 वर्ष और अधिक मामले के सर्वोच्च न्यायालय में जाने के बाद फैसला आने में वक्त लग जाता है।
70 मामलों की हर रोज औसतन सुनवाई करते हैं न्यायाधीश।
(मुख्य न्यायाधीश टी.एस.ठाकुर के 24 अप्रैल,2016 को दिये भाषण के अनुसार)
लंबित मामले
सर्वोच्च न्यायालय : 61,436
उच्च न्यायालय : 38,91,076
निचली अदालत : 2,30,79,723
अन्य देशों की व्यवस्थाएं
अमेरिका में, कार्यपालिका (राष्ट्रपति) को विधायिका (सीनेट) की सलाह और सहमति से जजों की नियुक्ति का अधिकार है। अमेरिका में दो प्रकार की अदालतें होती हैं। संघीय न्यायालय और राज्य न्यायालय। संघीय न्यायालयों में राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति सीनेट की सलाह और सहमति से करते हैं। राज्य न्यायालयों में नियुक्ति चुनाव के बाद होती है। ज्यादातर जज सीनेटरों की सलाह पर होते है और प्राय: सभी नियुक्तियाँ राजनीतिक होती हैं।
ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में जजों की नियुक्ति गवर्नर जनरल ( प्रकारांतर से प्रधानमंत्री) के हाथ में रहती है। वहां मुख्य न्यायाधीश समेत सेवारत जजों का इसमें कोई दखल नहीं होता। यूके में न्यायिक नियुक्ति आयोग (जेएसी) इस काम को करता है। इसमें 15 सदस्य होते हैं, जिनमें से 3 सदस्य न्यायिक समुदाय से होते हैं और अध्यक्ष सहित शेष 12 सदस्य खुली प्रतियोगिता से आते हैं। जेएसी द्वारा की गई नियुक्ति को लेकर यदि किसी को आपत्ति हो तो इसके लिए ओम्बुड्समैन नाम से एक और संस्था है। जर्मनी में नियुक्ति कार्यकारिणी करती है, पर इसमें न्यायपालिका की भागीदारी भी है।
दक्षिण अफ्रीका में जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। इसके लिए वे न्यायिक सेवा आयोग की सलाह लेते हैं, जिसके 23 सदस्य होते हैं। इसमें न्यायाधीश, वकील, कानून के प्राध्यापक, सांसद तथा राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हैं। लैटिन अमेरिकी देशों में सामान्यत: राष्ट्रपति जजों को नियुक्त करते हैं, जिसके लिए सीनेट की स्वीकृति जरूरी होती है।
इटली के संघीय संवैधानिक न्यायालय के 15 जजों में से एक तिहाई की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं, एक तिहाई की नियुक्ति संसद के संयुक्त सत्र की मार्फत होती है और शेष दूसरी अदालतों से आते हैं। फ्रांस में सरकार जजों की सूची बनाती है, जिसे स्वीकृति के लिए न्यायालय की उच्च परिषद के पास भेजा जाता है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति
देश में कॅलेजियम व्यवस्था बनने में अदालत के तीन महत्वपूर्ण फैसलों की भूमिका है। एक है, एसपी गुप्ता बनाम भारतीय संघ-1981, दूसरा है सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारतीय संघ-1993 और तीसरा है सन् 1998 का राष्ट्रपति का संदर्भ। इन 'थ्री जजेस केस' के अलावा पिछले साल अक्तूबर में न्यायिक आयोग के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ध्यान में रखें तो निष्कर्ष निकलेगा कि न्यायिक नियुक्तियों में राज्य की किसी अन्य शाखा की भूमिका नहीं है। न तो कार्यपालिका की और न विधायिका की।
संविधान सभा ने न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित व्यवस्था की थी- अनुच्छेद 124 के अनुसार उच्चतम न्यायालय का प्रत्येक जज राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के ऐसे जजों से सलाह-मशविरे के बाद, जिनकी राय लेना इस काम में राष्ट्रपति आवश्यक समझेंगे। अनुच्छेद 217 में इसी तरह का प्रावधान उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों की बाबत है। संविधान के भाग 5 में अध्याय 4 संघ की न्यायपालिका से सम्बन्धित है और भाग 6 के अध्याय 5 में राज्यों के उच्च न्यायालयों के संबंध में उपबंध हैं।
सन् 1993 तक राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करते थे। इसके लिए वे सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और दो अन्य वरिष्ठतम जजों से सलाह लेते थे। मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा के नेतृत्व वाली सर्वोच्च न्यायालय के 9-सदस्यों की सांविधानिक खंडपीठ ने 6 अक्तूबर, 1993 को निर्णय किया कि न्यायाधीशों का स्थानांतरण और नियुक्तियां कॅलेजियम द्वारा की जाएंगी। मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को लेकर पांच साल तक असमंजस रहा। पांच जजों की समिति में मुख्य न्यायाधीश का अन्य चार जजों की राय लेना जरूरी था। सन् 1998 में दिए गए एक अन्य निर्णय में भी इसकी पुष्टि की गई। कॅलेजियम के संचालन के लिए एक 9-सूत्री नियमावली भी बनाई गई।
न्यायाधीशों के चयन और स्थानान्तरण की इस व्यवस्था का संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। संविधान के अनुसार न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार अब भी राष्ट्रपति के पास है, किन्तु उन्हें उच्चतम न्यायालय के उपरोक्त निर्णयों को भी ध्यान में रखना पड़ता है। इससे न्यायाधीशों के चयन की वास्तविक शक्ति कार्यपालिका के हाथ से निकल कर न्यायाधीशों के एक समूह के पास चली गई है, जिसे 'न्यायालय का कलेजियम' कहा जाता है।
न्यायधीशों की नियुक्ति की एक तय प्रक्रिया है जिसके तहत इस पर काम किया जा रहा है।
-रविशंकर प्रसाद
केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री, दिल्ली उच्च न्यायालय की स्थापना की 50 वीं वर्षगांठ के अवसर पर
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