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भारतीय भाषाओं को अंगे्रजों की 'फूट डालो-राज करो' की नीति के तहत पनपने नहीं दिया गया। हमारी शिक्षा नीति को उस दृष्टि से संशोधित नहीं किया गया। आज भी भारत के छात्र-छात्राएं पराई भाषा में शिक्षा लेने को मजबूर हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए। इस हेतु सभी भाषाविदों के साझे प्रयास की आवश्यकता है
अतुल कोठारी
अगस्त, 1947 को यूनियन जैक के स्थान पर तिरंगा तो फहराया गया, परन्तु जिस प्रकार ध्वज बदला गया, उसी प्रकार देश की शिक्षा, भाषा नीति सहित सभी प्रकार की व्यवस्थाएं बदलने हेतु गम्भीरता से विचार नहीं किया गया। इसके परिणामस्वरूप भारत से अंग्रेजों के जाने के 69 वर्ष बाद भी देश में अंग्रेजियत का प्रभाव कम होने के स्थान पर बढ़ता ही चला गया। इसका मूल, आधारभूत कारण है अंग्रेजियत से जकड़ी वर्तमान देश की शिक्षा एवं भाषा नीति। इस स्थिति से उबरने की दृष्टि से हमने एक संकल्प घोषित किया है-''देश को बदलना है तो शिक्षा को बदलना होगा और शिक्षा को बदलना है, तो भाषा-नीति में बदलाव करना आवश्यक होगा।''
स्वतंत्रता के पूर्व अंग्रेजों ने जो 'बांटो और राज करो' (डिवाइड एंड रूल) के बीज बोए थे, स्वतंत्रता के बाद भी वही स्थिति बरकार रही। यानी भाषा के नाम पर उत्तर और दक्षिण, अंग्रेजी भाषा जानने वाले एवं नहीं जानने वाले, हिन्दी जानने वाले एवं हिन्दी को नहीं जानने वाले आदि।
हमारी भारतीय मातृभाषाओं को बांटने की नीयत से कह दिया गया कि हमारे भारत की भाषाएं भिन्न परिवारों की भाषाएं हैं, भिन्न संस्कृतियों की भाषाएं हैं'। इसके पीछे उनकी नीयत यही थी-'फूट डालो और राज करो' समय आ गया है कि हम पुनर्विचार करें, कि क्या सभी भारतीय एक मूल उत्स भारत के नहीं हैं, या क्या हम एक कुल और एक संस्कृति के नहीं हैं? हमारी क्षेत्रीय पहचान की उप-संस्कृतियों की विविधता वाली पहचान के बाद भी क्या हम भारत राष्ट्र के नहीं हैं? ऐसे प्रश्नों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। विडंबना यह भी है कि आजादी के बाद भी भारतीय भाषाओं के ठीक से व्याकरण नहीं लिखे गये, कोश नहीं बनने दिये गए, हमारी भाषाओं में नई शिक्षा पद्धति विकसित नहीं होने दी गई और हमारी भाषाएं एवं प्राचीन शिक्षा-पद्धति किनारे कर दी गई, जिसके परिणामस्वरूप हमारी राष्ट्रीयता और क्षेत्रीयता कमजोर होती गईं। इन सब प्रश्नों पर भारतीय भाषा सम्मेलन में विचार हुआ।
सम्मेलन का स्वरूप
तिरुपति में 15-16 अक्तूबर को सम्पन्न भारतीय भाषाओं के इस सम्मेलन में भारतीय भाषाओं के प्रेमी एक जगह मिले और विचार किया कि कैसे भारतीय भाषाओं के बीच इस दूरी को कम किया जाए, इस हेतु एक ओर भारतीय भाषाओं को लेकर विचार गोष्ठियां हुईं तो दूसरी ओर भारतीय भाषाओं को लेकर किए जाने वाले कार्यों और उनकी कार्य-प्रणाली को विकसित करने की दिशा में कार्यशाला के माध्यम से कुछ कदम आगे बढ़े। इसी क्रम में पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण से भारतीय भाषाओं और संस्कृत एवं भारतीय संस्कृति के प्रेमी राष्ट्र की चिंता को लेकर परस्पर राष्ट्रीय स्तर के प्रतिभागियों से भेंट हुई और भारतीय भाषाओं को राष्ट्रीय स्तर पर समृद्ध करने की दिशा में आयाम गढ़े गए।
भारतीय भाषाएं एवं राष्ट्रीय पहचान
इस सम्मेलन में उपरोक्त सारे विषयों की वर्तमान स्थिति एवं भविष्य की योजना एवं रणनीति पर विचार हुआ। हम अनुभव कर रहे हैं कि देश में भाषा एक जटिल एवं व्यापक विषय है। इस हेतु प्रथम कार्य यह है कि सभी भारतीय भाषाओं के विद्वान, संस्थाएं एक मंच पर मिलकर भारतीय भाषाओं के पुररुत्थान हेतु कार्य करें। सभी भाषा-भाषी अपनी भाषा को विकसित करते हुए अन्य भारतीय भाषाओं के विकास में सहयोग-समर्थन करें। हमारी समृद्ध भाषाओं की विविधता के माध्यम से एक राष्ट्र-एक संस्कृति-एक जन की भावना और सुदृढ़ करने हेतु 6 दिसम्बर, 2015 को भारतीय भाषा मंच का गठन किया गया है।
सम्मेलन के अन्त में क्रियान्वयन की ठोस योजना बनाई गई। भाषा के विभिन्न आयामों पर सम्मेलन/संगोष्ठियां, कार्यशालाएं आयोजित करके उन-उन विषयों पर उसी क्षेत्र के विद्वान ठोस कार्य योजना बनाकर सभी क्षेत्रों में भारतीय भाषा में कार्य हेतु क्रमबद्ध योजना बनाकर कार्य करने वाले हैं। उदाहरण के लिये, विधि एवं न्याय के क्षेत्र में भारतीय भाषा हेतु 'भारतीय भाषा अभियान' एक वर्ष पूर्व प्रारम्भ किया गया है। इस अभियान के द्वारा विधि की शिक्षा, न्यायालयों में कार्य, विद्याध्ययन का कार्य आदि भारतीय भाषा में हो, इस पर कार्य प्रारंभ किया है। इस एक वर्ष में भारतीय भाषा अभियान के द्वारा इस विषय में जन-जागरण से लेकर कई प्रकार के ठोस कार्यों की दिशा में कदम आगे बढ़ाया गया है। इसी प्रकार विभिन्न विषयों पर कार्य हो। प्रत्येक विषय हेतु स्वतंत्र मंच हो या भारतीय भाषा मंच के अंतर्गत ही कार्य हो, उसका निर्णय समय-समय पर आवश्यकता के अनुसार उन-उन क्षेत्रों में लोग करेंगे।
इन सारे कार्यों की दिशा स्पष्ट हो, साथ ही ठोस कार्य योजना बने, इसी उद्देश्य से भारतीय भाषा सम्मेलन का आयोजन किया गया था। हमारा विश्वास है कि यह सम्मेलन भारतीय भाषाओं के पुनरुत्थान हेतु नींव समान कार्य करेगा।
(लेखक शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के सचिव हैं)
भारतीय भाषाओं के लिए समर्पित सम्मेलन, भारतीय भाषाओं की कार्यशाला एव भारतीय भाषाओं की संगोष्ठियों में चर्चा के विचार बिंदु रहे-
भारतीय भाषाएं और शिक्षा
भारतीय भाषाएं और भारतीय संस्कृति
भारतीय भाषाएं और प्रबंधन का राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय धरातल
भारतीय भाषाओं का विकास-क्रम
भारतीय भाषाएं और साहित्य
भारतीय भाषाएं और भारतीय भाषाओं का तकनीकी विकास
भारतीय भाषाएं और भारत की चिकित्सा-पद्धतियों का विकास
भारतीय भाषाएं और अनुवाद
भारतीय भाषाएं और व्यावसायिक क्षेत्र
भारतीय भाषाएं और भारत का शासन-प्रशासन
भारतीय भाषाएं और भारत का मीडिया संसार
भारतीय भाषाएं और समाज में उनके वाचिक प्रयोग
भारतीय भाषाएं और प्रतियोगी परीक्षाएं
भारतीय भाषाओं की वैज्ञानिकता एवं एकात्मता
भारतीय भाषाओं की समृद्धि और भारत की समृद्धि
ल्ल भारतीय भाषाएं एवं हमारी पारंपरिक कलाओं का संरक्षण
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