|
हरेक शुक्रवार की शाम नौहाता डाउन-टाउन श्रीनगर स्थित मस्जिद के बाहर एक दृश्य रोज दिखता है। नमाज पूरी होते ही दरवाजे बंद हो जाते हैं। भीतर चेहरा ढके 20-30 युवक हाथों में भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक बैनर लिये दिखते हैं। पुलिस और सीआरपीएफ कर्मी दूसरे छोर पर खड़े इस दृश्य को देखते रहते हैं। दूसरी ओर इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के लगभग 50-60 कैमरामैन अपने स्टिल और वीडियो कैमरे 'प्रदर्शनकारियों' और सुरक्षा बलों पर ताने तैयार रहते हैं।
सेट तैयार होते ही एक्शन शुरू हो जाता है। 'प्रदर्शनकारी' भारतविरोधी और पाकिस्तान समर्थक नारे लगाते हैं और कुछ समय बाद इंतजार कर रहे सुरक्षाबल के कर्मियों पर पत्थर फेंकना शुरू कर देते हैं। एक सुरक्षित दूरी पर मीडिया के लोग इस 'प्रदर्शन' को अपने कैमरों में कैद करने में व्यस्त दिखाई देते हैं।
मजेदार बात यह है कि दरवाजे के बाहर से यह नजारा साफ दिखता है। पथराव होता है और पुलिस 'प्रदर्शनकारियों' की भीड पर मस्जिद से सटे खुले मैदान में कार्रवाई करती दिखाई देती है। लेकिन दरवाजे के बाहर दायीं ओर गली में जीवन सामान्य गति से चल रहा होता है। महिलाएं आराम से अपने दैनिक कामों के लिए आती-जाती दिखती हैं। वाहन भी गुजरते रहते हैं और गलियों में रेहड़ी-पटरी वाले भी अपना सामान बेचते रहते हैं।
मिलिए, कश्मीर घाटी के मीडिया माफिया से। यह घाटी में समाचार 'बनाने' और परोसने के तौर-तरीके एक बानगी भर है। कश्मीर घाटी में अलिखित नियम है कि मीडियाकर्मी केवल चुनिंदा कश्मीरी होना चाहिए।
पिछले कुछ दशकों से कश्मीर के मीडियाकर्मी रणनीतिक रूप से एक चालाकी भरे पक्के गठजोड़ में फंस गए हैं। इससे बाहर की दुनिया के लिए कुछ चुनिंदा खबरें ही जारी की जाती हैं जो एक खास वैचारिक लक्ष्य की पूर्ति करती हों। दूसरी खबरें या तो बहुत कम दी जाती हैं या उनकी चर्चा ही नहीं होती। हाल में एक इलेक्टॉनिक न्यूज चैनल के मुख्यालय में को-ऑडिनेटर ने पाया कि घाटी में जब-जब बंद होता है, उनका वीडियो जर्नलिस्ट हर बार एक बंद शटर के दृश्य ही भेजता है।
एनआईटी श्रीनगर के छात्रों ने भी यह अनुभव किया। ल्ंाबे समय से वे समझ नहीं पा रहे कि एनआईटी परिसर में जो घटता है उसे मीडिया में एकतरफा तरीके से क्यों दिखाया जाता है। यदि वे बाहर की दुनिया को परिसर की वास्तविक घटनाएं सोशल मीडिया के माध्यम से न बताते तो कोई जान ही नहीं पाता कि वहां वास्तव में क्या घट रहा था। सुरक्षाबल, विशेषकर सेना कई दशकों से इसका सामना कर रही है। मुख्यधारा का मीडिया किसी गैर-कश्मीर पत्रकार को श्रीनगर में तैनात नहीं करता। अब समय आ गया है कि इस नापाक गठजोड़ को खत्म कर दिया जाए और कश्मीर घाटी में स्वस्थ रिपोर्टिंग को बढ़ावा मिले।
टिप्पणियाँ