|
शायरा बानो के जरिए मुस्लिम महिलाओं ने फिर एक बार अपने अधिकारों की निर्णायक लड़ाई लड़ने का मन बनाया है। देश में एक आवाज उठी है कि मुस्लिम महिलाओं के मानवाधिकारों का हनन बंद हो
आलोक गोस्वामी
मुस्लिम समाज में महिलाओं को उनकी मौजूदा दयनीय हालत से कुछ हद तक उबारने के लिए एक बार फिर आवाज उठी है। एक बार फिर मुस्लिम महिलाओं में से एक ने अपने पर हुए जुल्मोसितम के जरिए समाज की उन रवायतों पर चोट करने की ठानी है जो महिलाओं को कमतर और उनकी हस्ती को बराए-मेहरबानी बनाने रखना 'मजहब की आन' समझती हैं। 30 साल पहले शाहबानो ने जो 'हिम्मत' दिखाई थी और समाज के कुछ उसूलों पर सवालिया निशान लगाए थे, कमोबेश उसी राह पर चलने की 'हिम्मत' करने की कोशिश की है उत्तराखंड की शायरा बानो ने। मगर इस कोशिश से मुस्लिम समाज में दो तरह की सोच सामने आई हैं। इसके पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने तर्क दिए गए हैं। बहस धारदार हो चली है।
मामला देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सर्वोच्च न्यायालय के सामने विचाराधीन है, लिहाजा उत्सुकता का पैमाना बढ़ा हुआ है। अदालत ने शायरा बानो की तीन बार तलाक बोलकर किसी शादीशुदा महिला को उसके शौहर द्वारा अपनी जिंदगी और परिवार से बेदखल करने की 'मजहबी रवायत' के खिलाफ दायर की गई याचिका को काबिले-गौर माना है। एक सुनवाई हो चुकी है, दूसरी 29 अप्रैल को होनी तय है। इस बीच दोनों तरफ के तर्कों को कुरान-हदीस के हवालों और मानवीय आधारों पर अलग-अलग तोला जा रहा है। कानूनी जानकार पुराने मामलों को खंगाल रहे हैं, खासकर शाहबानो मामले को जिसने 1985-86 के दरम्यान भारतीय राजनीति में ऐसा भूचाल ला दिया था कि मुस्लिम विषयों के जानकार आरिफ मोहम्मद खान का राजनीतिक कैरियर दांव पर लग गया था। इतना ही नहीं, उस वक्त की राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार ने राजनीति में उलटा पाठ पढ़ते हुए 'मजहब के कायदों' या शरिया के सामने घुटने टेक दिए थे, राजनीति पर साम्प्रदायिकता को हावी होने दिया था। नतीजा यह हुआ था कि देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले को पलटते हुए, संसद के जरिए कानून बनवाकर मजहबी ठसक को पोसा गया और अदालती हुक्म को दरकिनार कर दिया गया। देश की अदालत की ऐसी अवमानना करने के लिए संसद को हथियार बनाकर कांग्रेस ने एक नई और खतरनाक लीक डाली थी।
पेंच ऑल इडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का भी है। पहले शाहबानो और अब शायरा बानो के मामले पर बोर्ड का अडि़यल रुख एक बार फिर से हावी होने की कोशिश कर रहा है। शायरा बानो की याचिका के खिलाफ बोर्ड ने अपनी तरफ से अपील दायर करने की चेतावनी जैसी देकर उन आवाजों को हवा दी है जो शरिया की पैरोकार हैं। लेकिन आज इसी समाज में ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जो बुलंद आवाज में पूछते हैं कि 1973 में गठित इस बोर्ड के बनने के जो मकसद गिनाए गए थे, क्या यह उन पर बाकायदा चल रहा है? या यह सिर्फ हदीथ-कुरान के माने-बेमाने हवाले दे कर हम-मजहबियों पर अपने फरमान थोपने की कोशिश कर रहा है? शायरा के जरिए फिर से गरमाए ऐसे ही कुछ सवालों पर बारीकी से गौर करने की जरूरत है।
शायरा बानो। उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली 42 वर्षीया शादीशुदा मुस्लिम महिला। दो बच्चों की मां। इलाहाबाद के रिजवान से 15 साल पहले शादी हुई। शायरा अपने पति की बार-बार शारीरिक यातना देने की आदत और उसके बीमार रहने से मानसिक रूप से इतनी परेशान थी कि कुछ दिन सुकून से रहने की गरज से मध्य 2015 में अपने मायके चली आई। सोचा था, कि दिमाग की परेशानी कम होने पर लौट जाएगी। लेकिन अक्तूबर 2015 में उसे रिजवान का भेजा तलाकनामा मिला, वह सन्न रह गई। बहुत अनुनय-विनय की। कुछ नहीं हुआ। रिजवान का दिल नहीं पसीजा। वह भी हैरान थी कि 15 साल की शादी यूं अचानक कैसे खत्म कर दी?
ऐसी परिस्थिति में यकीनन पीडि़त मुस्लिम महिलाओं के मन में चंद सवाल घुमड़ते हैं-आखिर मायके आना कौन सा ऐसा जुर्म था कि तलाक सहना पड़े? क्यों मर्द के तीन बार तलाक-तलाक-तलाक बोल देने भर से शादी टूट जाया करती हैं? क्यों मर्द को चार बीवियां रखने की छूट है? सारे दबाव, हुक्मो-फरमान, पर्दा-हिजाब, हलाला जैसी रवायतें मुस्लिम महिला को ही पाबंद करती हैं, क्यों? क्या मुस्लिम समाज में महिलाओं को बराबरी का कोई हक नहीं?
आखिरकार न्याय मिलने की उम्मीद में उसने देश की सबसे बड़ी अदालत का दरवाजा खटखटाने की ठान ली। शायरा ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करके तीन तलाक की कानूनी वैधता पर सवालिया निशान लगा दिया। इसके जरिए मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1937 के अनुच्छेद 2 की संवैधानिकता पर सवाल किया है। यही वह एक्ट है जिसके जरिए शरीयत एक से ज्यादा शादियों, तीन तलाक, निकाह और हलाला जैसी रवायतों को जायज ठहराती है। याचिका में कहा गया है कि ऐसे कई मुस्लिम देश हैं जहां एक से ज्यादा शादियां करने पर कमोबेश कानूनी रोक है। याचिका में मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम-1939 के बेमानी होने की बात की गई है।
हैरानी की बात नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय में शायरा की याचिका पेश होने के बाद मुस्लिम समाज के कई अलम्बरदारों ने दबे-खुले इसकी खिल्ली उड़ाते हुए यहां तक कहा कि 'शरीयत के खिलाफ जाने वाला कभी कामयाब नहीं होगा। पहले भी नहीं हुआ, अब भी नहीं होगा। मजहबी किताबों में जो लिखा हुआ है उसे मानना हर मुसलमान का फर्ज है।' लेकिन पिछली 29 फरवरी को जब सर्वोच्च न्यायालय ने गंभीरता दिखाते हुए उस पर विचार करने, सुनवाई करने का फैसला लिया तो उन लोगों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। न्यायमूर्ति आर. के. दवे और न्यायमूर्ति ए. के. गोयल की खंडपीठ ने 1 मार्च को पहली सुनवाई की। मामला पलट गया। अगली सुनवाई 29 अप्रैल का इंतजार दोनों पक्षों को बेसब्री से है। शायरा की ओर से अदालत में पैरवी कर रहे हैं दो वकील, अमित चड्ढा और बालाजी श्रीनिवासन। सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका स्वीकार करने के साथ ही केन्द्र सरकार, महिला बाल विकास मंत्रालय से जवाब तलब किया है। राय अटॉर्नी जनरल से भी मांगी गई है।
और जैसी उम्मीद थी, मुस्लिम महिलाओं ने खुलकर शायरा के पक्ष में अपनी आवाज उठाई है और इनमें से कई तो समाज में खास दर्जा भी रखती हैं। मिसाल के लिए, मौलाना आजाद शिक्षा प्रतिष्ठान की कोषाध्यक्ष डॉ. नाहिद जफर शेख की ही बात लें। वे दो टूक शब्दों में कहती हैं, ''भारत के मुसलमानों को जब निकाह करना होता है या तलाक देना होता है तो शरीयत कानून की बात करने लगते हैं लेकिन संपत्ति के बंटवारे की बात पर आम अदालतों में अपीलें करते हैं।'' ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की संस्थापक और अध्यक्ष शाइस्ता अंबर शायरा का नाम लेकर कहती हैं, ''शायरा के साथ नाइंसाफी हुई है। कुरान शरीफ की सही जानकारी न होने की वजह से ऐसा हुआ है। तलाक के प्रावधान का गलत इस्तेमाल हुआ हैै। शायरा को इंसाफ मिलना ही चाहिए।'' इस बीच राष्ट्रीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने देश भर में मुस्लिम महिलाओं के बीच एक सर्वे किया है। इसमें चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। सर्वे के मुताबिक 88.3 फीसद औरतें चाहती हैं कि तलाक-ए-अहसान तलाक का कानूनन तरीका हो, 90 दिनों की प्रक्रिया हो, जिसके दौरान बातचीत हो और मनमानी पर नियंत्रण हो। (देखें बॉक्स)
शाइस्ता की बात बेशक भली है, पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के ओहदेदारों की तल्ख टिप्पणियों से साफ है कि उन्हें यह बात हजम होना तो दूर, गले नहीं उतर रही है। तेवर तीखे हैं। कमानें कसी हैं। वे ही कमानें जिन्होंने 1985 में ऐसे तीखे तीर छोड़े थे कि राजीव सरकार घुटनों पर आ गई थी। संसद के रास्ते अदालत को बौना करवा गई थी। बोर्ड ने राजीव सरकार को साफ कह दिया था कि 73 साल की शाहबानो को उसे तलाक दे चुके उसके शौहर से गुजारा भत्ता कब, कैसे और कितना मिलेगा, इसका अदालती फैसला वे न मानेंगे, उनके शरिया कानून जो कहेंगे, बात तो वह ही तय पाई जाएगी। मजहब के बड़े मौलवियों ने सरकार पर दबाव बनाया और सरकार झुक गई। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया, नया मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार) अधिनियम-1986 पारित कराया और पर्सनल लॉ बोर्ड का समाज पर दबदबा और बढ़ा दिया।
शायद इसी नजीर के मद्देनजर बोर्ड के ओहदेदार हर मामले पर कुरान और हदीथ की अपनी ही व्याख्या करके मुस्लिम महिलाओं के हकों की विश्लेषण करते आ रहे हैं, जिसके खिलाफ बहुत सी महिलाओं ने आवाज तो उठाई है, लेकिन शायद किसी 'दबाव' में देश के मीडिया ने उसे सुर्खियों में नहीं छापा। खातून निसां, जोहरा खातून, इकबाल बानो, शमीमा फारूखी ने तीन तलाक का यही दंश झेला था और देश की सबसे बड़ी अदालत में न्याय की गुहार लगाई थी। शाहबानो और शायरा बानो का मामला उसी कड़ी में तो है, पर उनसे जरा अलग है। इस मायने में कि शाहबानो ने गुजारे भत्ते के लिए जिस जमाने में मुकदमा किया था तब ऐसा करना एक बड़ी हिम्मत की बात थी। तब सोशल मीडिया पर कमेन्ट और शेयर करने वाले नहीं थे। मुद्दा उतनी तेजी और उतने व्याप में नहीं फैला था, लेकिन जैसे ही कांग्रेस सरकार ने सत्ता-राजनीति को सांप्रदायिक जामा पहनाया, वैसे ही मामला तूल पकड़ गया था। शायरा बानो का मामला भी सोशल मीडिया और टेलीविजन बहसों से फिलहाल दूर रहते हुए भी देश के समझदार वर्ग में एक बहस तो छेड़ ही गया है और दिलचस्प बात यह है कि ज्यादातर समझदार शायरा बानो के पाले में हैं। पर्सनल लॉ बोर्ड अपना रुतबा बनाए रखने के लिए भले शायरा की अर्जी के खिलाफ अदालत में जाने का पुराना खेल खेलने की बातें उछाल रहा है, लेकिन वह भी सचाई से आंख नहीं मूंद सकता कि समाज अब वैसा नहीं रहा। नलसार विश्वविद्यालय, हैदराबाद के कुलपति फैजान मुस्तफा कहते हैं, ''किसी भी मुसलमान को मुस्लिम पर्सनल लॉ का पालन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। मुस्लिम पर्सनल लॉ विचारों पर आधारित है और हर आदमी को किसी भी विचार को मानने की स्वतंत्रता है।'' इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड लीगल स्टडीज, एमिटी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर ताहिर महमूद तो तलाक को यूं गाहे-बगाहे दिए जाने के सख्त खिलाफ हैं। एक दैनिक में वे लिखते हैं, ''इस्लामी कायदे में ऐसा उल्लेख कहीं नहीं है कि शौहर को बिना वजह, बिना सोचे तलाक कहने की आजादी है। निकाह की तरह तलाक भी ऐसा शब्द नहीं है कि जिसके बोलने भर से निकाह टूट जाए, बल्कि इसकी एक प्रक्रिया होती है जिसका ध्यान से पालन किया जाना चाहिए।'' ऐसे कई मुस्लिम देश हैं जिनमें तीन तलाक और हलाला को लेकर जो सोच है उसे नकारा जा चुका है। ये देश हैं इराक, कुवैत, मिस्र, सूडान, जॉर्डन, यूएई
और यमन।
लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड या तो देश-दुनिया की खबर नहीं रखता या शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन धंसाए रखना चाहता है। जैसा ऊपर बताया गया, इसका गठन अप्रैल, 1973 में हुआ था कि यह कुरान और हदीथ के हवाले से, मुस्लिम समाज के तमाम मुद्दों पर विचार करके अपनी राय दे। यहां एक नजर उन विषयों पर डाल लेना समीचीन होगा, जिनके लिए इसे यह जिम्मेदारी दी गई थी। मोटे तौर पर येे हैं-निकाह, तलाक, तीन तलाक, बच्चों की देखभाल का दायित्व, हलाला, पैतृक संपत्ति में बच्चों की हिस्सेदारी, वक्फ की संपत्ति से जुड़े विवाद, मदरसों की शिक्षा में सुधार, वगैरह-वगैरह। लेकिन क्या समाज अब तक इन सब विषयों में रही इसकी भूमिका से संतुष्ट है, इसकी निष्पक्ष समीक्षा समय की मांग है। पर दुर्भाग्य से जब-जब ऐसी कोई कोशिश की गई है, बोर्ड के तेवर कड़े हो जाते हैं।
बहरहाल, देश में ऐसे उदाहरण भी कम नहीं हैं, जहां महिलाओं ने अकेले या संगठन बनाकर अपने हक की आवाज उठाई है। ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड हो, मदर-वूमेन वेलफेयर ऑर्गनाइजेशन या राष्ट्रीय मुस्लिम महिला आंदोलन, जिसने मुम्बई की हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को लेकर आंदोलन खड़ा किया है। आज मुस्लिम समाज में ऐसी महिलाओं की एक बड़ी तादाद है जिनकी निगाहें सर्वोच्च न्यायालय पर टिकी हैं, जहां शायरा ने अपने हक की आवाज उठाई है।
तीन तलाक, निकाह हलाला, और मुसलमानों की बहुविवाह प्रथा क्या कानूनन वैध हैं?
मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव, एकतरफा तलाक और पहली पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी पर विचार हो
तीन तलाक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
-अदालत में पेश शायरा की याचिका से
यह निकला राष्ट्रीय मुस्लिम महिला आंदोलन के सर्वे का नतीजा
गैर सरकारी संस्था राष्ट्रीय मुस्लिम महिला आन्दोलन ने देश के 10 राज्यों में 4,710 मुस्लिम महिलाओं से शादी, तलाक, बहु विवाह, घरेलू हिंसा और शरिया अदालतों पर राय मांगी। इनमें से 73 फीसद महिलाएं गरीब तबके से थीं, जिनकी सालाना आय 50,000 रू. से भी कम है। सर्वे में शामिल 55 फीसदी महिलाओं की शादी 18 साल से कम उम्र में हुई और 44 फीसदी महिलाओं के पास अपना निकाहनामा तक नहीं है। सर्वे से प्राप्त आंकड़े इस प्रकार हैं-
' 53.2 फीसद मुस्लिम महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं।
' 75 फीसद महिलाओं की मांग- लड़की की शादी की उम्र 18, लड़के की 21 से ऊपर हो।
' 40 फीसद महिलाओं को 1,000 रु. से भी कम मेहर मिली, जबकि 44 फीसद को तो मेहर भी नहीं मिली।
' 525 तलाकशुदा महिलाओं में से 65.9 फीसद का जुबानी तलाक हुआ। 78 फीसद का एकतरफा तलाक हुआ।
' 88.3 फीसद औरतें चाहती हैं कि तलाक-ए-अहसान तलाक का कानूनन तरीका हो, जो 90 दिनों की प्रक्रिया हो, जिसके दौरान बातचीत हो और मनमानी पर नियंत्रण हो।
' 90 फीसद औरतें चाहती हैं कि एक कानूनी व्यवस्था के जरिये काजियों पर नियंत्रण हो।
शाहबानो को मिलता इंसाफ तो शायरा बच जाती
लोगों का मानना है कि आज से तीस वर्ष पहले शाह बानो को इंसाफ मिल गया होता तो आज शायराबानो को तलाक के खिलाफ देश की सबसे बड़ी अदालत में नहीं जाना पड़ता। उल्लेखनीय है कि 1978 में पांच बच्चों की मां शाहबानो को उनके पति ने तलाक देकर घर से बाहर कर दिया था। पति से गुजारा भत्ता लेने के लिए शाहबानो ने 1985 में सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा दायर किया था। न्यायालय ने उनके पक्ष में निर्णय देते हुए उनके पति से गुजारा भत्ता देने को कहा था। उस समय कट्टरवादी तबके के इस फैसले पर विरोध के आगे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी झुक गए और 1986 में न्यायालय के इस फैसले को पलटने के लिए संसद से मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित करवाया।
कौन है शायरा बानो
42 साल की शायरा बानो इन दिनों काशीपुर (उत्तराखंड) में अपने पिता के घर रहती है। 15 वर्ष पहले उनका निकाह इलाहाबाद के रिजवान के साथ हुआ था। दो बच्चे हैं, जो अपने पिता के पास रहते हैं। पति के हिंसात्मक रवैये और बीमारी के कारण वे काशीपुर चली गई थीं। इसी बीच रिजवान ने 10 अक्तूबर, 2015 को उन्हें तलाकनामा भिजवा दिया। तक शायरा ने फरवरी, 2016 में सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल कर इंसाफ की गुहार लगाई। शायरा ने अपनी अर्जी में तीन तलाक, निकाह हलाला, और मुसलमानों की बहुविवाह प्रथा को चुनौती दी है। मार्च में उनकी अर्जी पर न्यायमूर्ति आर.के. दवे और न्यायमूर्ति ए.के. गोयल की खंडपीठ में सुनवाई हुई। अगली सुनवाई 29 अप्रैल को होगी। मुसलमानों का एक वर्ग शायरा के साथ खड़ा है, उम्मीद जगी है।
टिप्पणियाँ