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अद्वैत गणनायक एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मूर्तिकार हैं। वे भुवनेश्वर स्थित कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी (केआईआईटी) में ललित कला विभाग के निदेशक भी हैं। जो बात उन्हें अपने जैसे अन्य सफल लोगों से अलग करती है वह यह है कि वे अपनी आय का कुछ हिस्सा अपने गांव की महिलाओं को सशक्त बनाने पर खर्च करते हैं। उनका गांव न्यूलापोयी ओडिशा के ढेंकनाल जिले में है। वर्ष 2012 से अब तक वे 70 से अधिक महिलाओं को सिलाई का प्रशिक्षण देकर स्वाभिमानपूर्वक पैसा कमाने लायक बना चुके हैं।
ऊषा सैनी दिल्ली में रहने वाली एक मध्यमवर्गीय गृहणी हैं। उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में स्थित अपने मायके पटनी गांव में एक सिलाई प्रशिक्षण केंद्र जुलाई 2013 में शुरू किया। अभी तक वे 110 महिलाओं को प्रशिक्षण प्रदान कर चुकी हैं जिनमें से 85 महिलाएं प्रतिदिन कम से कम 250 रुपए कमा लेती हैं। वे कहती हैं कि ''एक सामान्य महिला सूट की सिलाई 250 रुपए है। यदि एक दिन में एक महिला एक सूट तैयारी करती है तो 250 रुपए और यदि दो सूट तैयार करती है तो 500 रुपए कमा लेती है। ये महिलाएं पेशेवर टेलर की तरह तीव्र गति से काम करती हैं क्योंकि उन्हें पावर मशीनों से काम करने का प्रशिक्षण दिया गया है।''
अंतरराष्ट्रीय ख्याति के मूर्तिकार अद्वैत गणनायक और मध्यमवर्गीय गृहणी ऊषा सैनी में जो एक बात समान वह यह है कि ये दोनों अपनी जड़ों से जुड़कर अपने-अपने गांव के विकास में सहभागी हुए हैं। श्रीमती सैनी के प्रयासों की विशेष चर्चा इसलिए भी की जानी चाहिए क्योंकि मध्यमवर्गीय परिवार से जुड़ी होकर भी वे अपने पैतृक गांव के विकास हेतु विशेष प्रयत्न कर रही हैं। सामान्यत: ज्यादातर महिलाओं का विवाह के बाद अपने मायके से ज्यादा संपर्क नहीं रहता। लेकिन श्रीमती सैनी ने इसी सोच को बदला। यही नहीं, उन्होंने बंेंगलुरु स्थित एचपी कंपनी में बड़े पद पर कार्यरत अपने एक रिश्तेदार निर्देश सैनी को भी सहारनपुर के अपने पैतृक गांव बादशाहपुर में ऐसा ही प्रकल्प शुरू करने हेतु प्रेरित किया।
अद्वैत गणनायक और ऊषा सैनी ही नहीं दर्जनों ऐसे अन्य पेशेवर और व्यवसायी हैं जो अपने-अपने गांव के विकास में सहभागी हो रहे हंै। श्री संजय गुप्ता दिल्ली में व्यवसायी हैं। हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले में स्थित अपने पैतृक गांव सलूनी से उनका परिवार सौ वर्ष के बाद जुड़ा है। वे कहते हैं, ''हमारे पूर्वज व्यवसाय के सिलसिले में 1914 में दिल्ली आये थे। तब से परिवार का कोई सदस्य अपनी संपत्ति पैतृक को देखने भी गांव नहीं गया। लेकिन 2013 में एक सिलाई प्रशिक्षण केंद्र शुरू कर हम गांव की 30 महिलाओं को सिलाई का प्रशिक्षण देकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा कर पाएं हैं।''
दिल्ली निवासी श्रीमती सरोज गुप्ता एक योग प्रशिक्षक हैं। उनका परिवार (पति का परिवार) भी लगभग सौ साल बाद अपने मूल गांव से जुड़ पाया है। हरियाणा के झज्जर जिले के बिलोचपुरा गांव में उन्होंने एक सिलाई प्रशिक्षण केंद्र शुरूकर अभी तक 200 से अधिक महिलाओं को प्रशिक्षण दिया है।
इसी प्रकार श्री अनिल गुप्ता पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं और दिल्ली में उनकी अपनी फर्म है। वे हिमाचल प्रदेश स्थित अपने ननिहाल सुजानपुर टिहरा गांव में कम्प्यूटर प्रशिक्षण और सिलाई प्रशिक्षण केंद्र चलाते हैं। 2011 में उन्होंने सिलाई केंद्र शुरू किया और 2012 में कम्प्यूटर प्रशिक्षण केंद्र। तब से लगभग 350 बालिकाओं ने सिलाई में प्रशिक्षण प्राप्त किया है और गांव के 400 युवाओं सहित बुजुर्गों ने कम्प्यूटर का सामान्य प्रशिक्षण प्राप्त किया है। वे अपने अन्य रिश्तेदारों को भी इसी प्रकार के प्रकल्प शुरू करने हेतु प्रेरित कर रहे हैं। उनकी प्रेरणा से दो प्रकल्प हिमाचल प्रदेश के सुलह और नगरोटा गांव में और एक प्रकल्प उत्तर प्रदेश के अयोध्या में शुरू हुआ है। नगरोटा और अयोध्या के प्रकल्पों का खर्च अमेरिका के कैलिफोर्निया में रहने वाले उनके चचेरे भाई संजय भटनागर उठाते हैं। इसी प्रकार जालंधर के व्यवसायी श्री सोमनाथ अग्रवाल ने अपने गांव उग्गी में एक सिलाई सेंटर शुरू किया और दिल्ली के व्यवसायी श्री राधेश्याम अग्रवाल ने राजस्थान के जयपुर जिले में स्थित अपने पैतृक गांव दांतिल में एक प्रकल्प शुरू किया है।
अपनी जड़ों की ओर लौटने के इस अभियान की मूल प्रेरणा दिल्ली के व्यवसायी श्री श्रवण गोयल हैं। उन्होंने सबसे पहले इस सोच को हरियाणा के करनाल जिले में स्थित अपने पैतृक गांव जलमाना में मूर्त रूप प्रदान किया। 1997 में उन्होंने वहां एक विद्यालय शुरू किया और 1998 में एक सिलाई प्रशिक्षण केंद्र। अपने इस प्रयोग को उन्होंने 'मेरा गांव मेरा तीर्थ' नाम दिया। इस पूरी सोच को समझाते हुए वे कहते हैं, ''आज शहरों में रहने वाले 80 प्रतिशत से अधिक लोग किसी न किसी गांव के निवासी हैं। ज्यादातर लोगों का अपने गांवों से अभी भी संपर्क बना रहता है। हालांकि कुछ केवल त्योहारों अथवा पारिवारिक कार्यक्रमों में ही गांव जाते हैं। जब भी वे गांव जाते हैं तो गांव की बदहाल हालत को देकर सरकार को जरूर कोसते हैं। लेकिन कभी उस स्थिति को बदलने के बारे में नहीं सोचते। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ज्यादातर शहरी परिवार हर साल पिकनिक मनाने अथवा तीर्थ यात्रा पर काफी पैसा खर्च करते हैं। तीर्थयात्रा के दौरान वे मंदिरों में कुछ चढ़ावा भी चढ़ाते हैं। कितना अच्छा हो कि वे वर्ष में कम से कम एक-दो बार अपने गांव को भी एक तीर्थ मानकर वहां जाएं और उसके विकास में सहभागी बनें।''
इस विचार को संस्थागत रूप देते हुए श्री गोयल ने 1995 में गंगा सेवा संस्था की स्थापना की, जिसके माध्यम से आज सात राज्यों-हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा और उत्तर प्रदेश में सिलाई, कम्प्यूटर प्रशिक्षण और बाल संस्कार केंद्रों सहित लगभग 23 प्रकल्प चल रहे हैं। इन प्रकल्पों के माध्यम से हजारों छात्र लाभान्वित हुए हैं।
11 अप्रैल को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी ने दिल्ली में आयोजित संस्था के पांचवें वार्षिक सम्मेलन में इस प्रयोग की प्रशंसा करते हुए कहा कि, ''आज जब सफल लोग अपने मूल गांव का परिचय देते हुए भी हिचकिचाहट महसूस करते हैं। ऐसे में उनको अपने गांव की ओर लौटने और वहां के विकास में सहभागी बनने की प्रेरणा देना महत्वपूर्ण कार्य है।'' यह सच है कि गांव का विकास केवल सरकार के भरोसे नहीं हो सकता। इसके लिए सामूहिक प्रयासों की जरूरत है। यदि गांव में जन्मे और शहरों में नौकरी या व्यवसाय करने वाले लोग इसमें सहभागी होते हैं तो एक सकारात्मक बदलाव पूरे देश में देखा जा सकता है। -प्रमोद कुमार
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