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अंग्रेजी के महान कवि टी़ एस़ इलियट की कालजयी रचना 'वेस्टलैंड' में प्रथम विश्व युद्घ की भयानक तबाही का चित्रण किया गया है और कविता शुरू होती है 'अप्रैल सबसे क्रूर महीना है' पंक्ति के साथ। अप्रैल पश्चिम और इलियट के लिए शायद सबसे त्रासद हो सकता है, पर भारत में यह चैत्र का महीना है जो समस्त भारतीय जनमानस के लिए शुभता का प्रतीक है। चैत्र, हमारे हिंदू पंचांग, विक्रम संवत् का पहला महीना है जिसे न केवल देश भर में, बल्कि इस उपमहाद्वीप के बाहर बाली, थाईलैंड आदि देशों में भी नववर्ष के रूप में मनाया जाता है। श्री रामनवमी सहित कई हिंदू त्योहार चैत्र माह में आते हैं जिससे इस महीने का महत्व और बढ़ जाता है।
राशि चक्र की पहली राशि मेष में सूर्य के प्रवेश के साथ आरंभ चैत्र महीने से एक नई ऋतु का आगमन होता है । लिहाजा यह मास हमारी कृषि प्रधान परंपरा का ऊर्जस्वी प्रतीक भी है। इस मास में शक्ति की पूजा होती है जो मनुष्य की अंतर्निहित चेतना को जाग्रत और अभिव्यक्त करने वाली पराशक्ति भगवती दुर्गा का नमन करने की हमारी चिरंतन संस्कृति का परिचायक है। चैत्र माह का नवरात्र उत्सव भारत के उत्तरी भाग के विभिन्न मंदिरों, खासकर प्रमुख शक्तिपीठों, जम्मू के वैष्णो देवी मंदिर, कश्मीर और ओडिशा के तारातारिणी मंदिर और दिल्ली के झंडेवालान मंदिर आदि में श्रद्घा और भक्तिभाव से मनाया जाता है। साथ ही भारत के दक्षिणी प्रांतों के कई मंदिरों के लिए भी यह मास विभिन्न प्रयोजनों के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है और इस शुभ समय में विभिन्न उत्सव मनाए जाते हैं।
पश्चिमी इतिहासकारों के अधकचरे ज्ञान ने आर्यों और द्रविड़ो से जुड़े इतिहास को गलत तरीके से पेश करते हुए उन्हें परस्परर भिन्न जाति बताया है। आज भी उनके परोसे मकड़जाल में भारत की सांकृतिक महत्ता और विश्व मंच पर एक राष्ट्र के तौर पर इसके गरिमामय अस्तित्व को नकारने की साजिश जारी है। द्वि-जाति का मिथ्यां सिद्घांत वास्तव में क्षेत्रवादी विचारधारा के समर्थकों का फैलाया दुष्प्रचार था जिसे आज लाल जिहादियों द्वारा पोषित किया जा रहा है। इस वैमनस्यकारी सिद्धांत ने भारत के राजनीतिक इतिहास के कई महत्वपूर्ण अवसरों पर हमारे इतिहासकारों और जनता को गुमराह किया और राष्ट्रीय हित से जुड़े मुद्दों पर उनके बीच दुराव को जन्म दिया। परिणामस्वरूप, एक बड़ी आबादी, दक्षिण और उत्तर के बेबुनियादी विभाजन के बावजूद, अब भी यही मानती है कि राष्ट्रीय हिंदू पंचांग के चैत्र महीने या वर्ष प्रतिपदा का अनोखे उत्सवों और त्योहारों से भरपूर अन्य क्षेत्रीय हिंदू पंचांगों और हिंदू आबादी से कोई संबंध नहीं है।
तमिलनाडु का पुथांडू हो, केरल का विशु, या आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक का उगादि, इन सब त्यो्हारों में हिंदू नववर्ष का वही आनंद भाव बैठा हुआ है जैसा भारत के अन्य क्षेत्रों में है। यह महज संयोग नहीं है, दरअसल हमारे कैलेंडर का मूल विचार इन्हीं सिद्घांतों पर आधारित है। यह हमारी राष्ट्रीय अखंडता का सूत्र है जिसमें बंधा भारतीय जनमानस क्षेत्रीय और भाषायी संकीर्णताओं से परे इस अवधि में शक्ति पूजा के समर्पित हो जाता है। चलिए इस शुभ चैत्र मास में अलग-अलग राज्यों में होने वाले उत्सवों पर नजरसानी करें।
तमिलनाडु
प्राचीन काल से ही तमिलनाडु में थाई मास में पोंगल और तमिल नववर्ष चित्राई मनाया जाता है जिसमें अच्छी फसल के लिए प्रकृति और भगवान के प्रकृति आभार प्रकट किया जाता है। इस त्रिदिवसीय पोंगल उत्सव के दौरान लोग प्रकृति और पशुओं के प्रति जीवन में दिन-प्रतिदिन सहायता करने के लिए कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इसके बाद फसल की कटाई के साथ तमिल नववर्ष शुरू होता है जिसमें कई दिनों तक विभिन्न देवताओं से जुड़े भव्य त्योहार मनाते हुए उनके प्रति आभार व्यक्त किया जाता है।
'वरुषा पिरापू' के नाम से लोकप्रिय पुथांडू तमिलनाडु में नए साल का आगाज करता है जिसमें मूलत: साल भर के लिए सुख-सौभाग्य-समृद्घि की प्रार्थना के साथ देवताओं के प्रति धन्यवाद अर्पित किया जाता है। तमिल नववर्ष तमिल मास चितरई के पहले दिन मनाया जाता है। 12 महीनों का तमिल कैलेंडर चितरई (अप्रैल-मई) से पंगुनी (मार्च-अप्रैल) तक एक 60 वर्षीय चक्र है, जिसके अनुसार वर्तमान वर्ष 'धुनमुकी' है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना आरंभ की थी। सूर्य के मेदा या मेषा वीदू या राशि में प्रवेश को तमिल लोग पारंपरिक रूप से नए साल का आगाज मानते हैं।
फसल के बाद चिलचिलाती गर्मी में लगभग सभी मंदिरों (शैव और वैष्णव, दोनों) में 10 दिन तक ब्रह्मोत्सव मनाया जाता है। त्योहार के दौरान सुबह और शाम प्रधान देवता और देवी की भव्य रथयात्रा निकलती है। उत्सव में देवता और देवी का विवाह और रथ खींचना शामिल है। गांवों के अम्मान मंदिरों में आग पर नंगे पांव चलने के अनुष्ठान होते हैं।
चितरई महोत्सव मदुरई का सबसे बड़ा त्योहार है। करीब दो सप्ताह चलने वाले इस त्योहार में देवी मीनाक्षी और भगवान् सुंदरेश्वर (भगवान शिव) का विवाह समारोह मनाया जाता है। यह चितरई के 5वें दिन आयोजित होता है। ध्वजारोहण के साथ शुरू इस उत्सव में देवी मीनाक्षी का पट्टाभिषेकम (देवी मीनाक्षी का भगवान सुंदरेश्वर के साथ विवाह) होता है और कार उत्सव मनाया जाता है।
एक अन्य महत्वपूर्ण आयोजन है वैगई का अजैगर उत्सव । भगवान कालाजैगर अलागार कोइल से चलना शुरू करते हैं और पूर्णिमा को मदुरई पहुंचते हैं, जहां वे अपने अश्वव वाहनम में वैगई नदी में प्रवेश करते हैं। इस समारोह को देखने के लिए लाखों श्रद्घालु उमड़ते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार देवी मीनाक्षी के भाई अपनी बहन की शादी में समय पर न पहुंच पाने की वजह से वैगई नदी तट से वापस चले गए थे। तमिल नववर्ष पर एक बड़ा कार उत्सव कुंभकोणम के पास तिरुविदैमारुदुर में आयोजित होता है। इस महीने के दौरान तंजावुर, तिरुचि, कांचीपुरम और अन्य स्थानों पर विभिन्न त्योहार मनाए जाते हैं। अप्रैल माह के दौरान प्रसिद्घ मंदिरों में वसंत उत्सवम् मनाया जाता है।
केरल
केरल में हिंदू त्योहारों की बात करें तो शायद विशु ही ऐसा त्योहार है जो ओणम की तरह ही व्यापक रूप से मनाया जाता है। विशु हिंदू नववर्ष का प्रतीक है और मलयालम कैलेंडर में मेदम माह और आमतौर पर ग्रेगोरियन कैलेंडर में अप्रैल के दूसरे सप्ताह में आता है। लोग दीये जलाकर और आतिशबाजी के साथ इस उत्सव को मनाते हैं, साथ ही इसमें नकद पैसे देने की भी परंपरा है जिसे विशु कैनीतम और विशुकनि कहते हैं जिसका अर्थ है 'विशु के दिन सुबह उठते ही सबसे पहले देखी गई चीज'। विशुकनि समृद्घि दर्शाने वाली वस्तुओं जैसे, चावल, फल और सब्जियां, पान के पत्ते, सुपारी, धातु का दर्पण, पीले कोन्ना फूल (अमलतास), पवित्र ग्रंथों और सिक्कों को पारंपरिक रूप से सजाने की व्यवस्था है जिसका उद्देश्य् जीवन की सुख-समृद्घि का स्वागत करना है। ये सभी चीजें आम तौर पर घर के प्रार्थना कक्ष में भगवान कृष्ण की मूर्ति के चारों ओर निलाविलाक्कूथ की ज्योाति (तेल का दीपक) के बीच सजाकर रखी जाती हैं।
केरल में हिंदू विशु पर्व पर अक्सर प्रसिद्घ सबरीमाला अयप्पा मंदिर या गुरुवयूर श्रीकृष्ण मंदिर में प्रात: दर्शन, विशुकनि काचा के लिए जाते हैं। दक्षिणी केरल के अलाप्पुझा के वेन्मोनी गांव में शगंर्क्कापवू देवी मंदिर में बड़े उत्साह और जोश के साथ विशु मनाया जाता है। यह धर्म स्थलों की पारंपरिक रूपरेखा या स्थापत्य से अलग अचानकोइल नदी तट पर पवित्र पेड़ों से घिरा देवी का वास है जहां बंदर उधम मचाते रहते हैं जो अम्मा (देवी मां) के बच्चे माने जाते हैं। मंदिर कर मुख्य त्योहार विशु दिवस है। विशु केट्टुकाचा यहां का मुख्य आकर्षण है जिसमें अपने प्रिय देवता को प्रसाद चढ़ाने के लिए आसपास के इलाकों से बड़ी संख्या में भक्त उमड़ते हैं। केट्टुकाचा में कुशल कारीगरी से गढ़े 'कुथिरा' (घोड़े), 'थेरू (रथ) मंदिर रथ और वृषभ की विशालकाय मूर्तियां दिखाई देती हैं। रात में ये खास प्रकाश व्य्वस्था में और भी कलात्मक तथा भव्य नजर आती हैं। यह पूृरा दृश्य अपने आप में अनूठा है क्योंकि इसमें क्षेत्र की शूरवीरों की विरासत के साथ कृषि परंपरा का भी मेल है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस त्योहार में हिंदुओं के अलावा ईसाई और मुस्लिम समुदाय भी जोश के साथ हिस्सा लेते हैं जो अनेकता में एकता का इंद्रधनुषी रंग बन जाता है।
आंध्र प्रदेश-तेलंगाना-कर्नाटक
तेलुगु और कन्नड़ नववर्ष चैत्र (मार्च-अप्रैल) महीने के पहले दिन आरंभ होता है। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में लोगों का मानना है कि भगवान ब्रह्मा ने उगादि के शुभ दिन पर ब्रह्मांड की रचना शुरू की थी। लोग नए साल की तैयारी में घर की साफ-सफाई और नए कपड़े खरीदते हैं। उगादि के दिन वे आम के पत्तों के तोरण और रंगोली की आकर्षक पंक्तियों से अपने घरों को सजाकर ईश्वर से नए वर्ष की मंगलकामना करते हैं। फिर मंदिर जाकर सालाना आयोजन 'पंचांगश्रवणम' में भाग लेते हैं जिसमें पुजारी आगामी वर्ष की भविष्यवाणी करते हैं। किसी भी नए काम को शुरू करने के लिए भी उगादि को शुभ दिन माना जाता है।
उगादि पच्चाडी ऐसा व्यंजन है जो उगादि का पर्याय बन गया है। यह नए गुड़, कच्चे आम, नीम के फूल और इमली से बनता है जो जीवन के इंद्रधनुषी समन्वय को दर्शाता है। इस व्यंजन के छह स्वाद मीठा, खट्टा, मसालेदार, नमकीन, तीखा और कड़वा क्रमश: खुशी, घृणा, क्रोध, भय, आश्चर्य और उदासी के प्रतीक हैं। इसी मौसम में वातावरण जहां पके आम की खुशबू से सराबोर रहता है, वहीं हरे-भरे नीम के पेड़ की औषधीय हवा में स्वस्थकर भी बन जाता है। इसके अलावा, ताजा गन्ने से तैयार गुड़ उगादि के मौके पर बनने वाले व्यंजन को एक अलग तरह का स्वाद देता है।
उगादि समारोह धार्मिक उत्साह और सामाजिक आमोद-प्रमोद के साथ मनाया जाता है। इस अवसर पर विशेष पकवान बनाए जाते हैं। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में पुलिहोरा, बोबाट्लू (भक्शालू ध्पोलेलू ओलिगालू) और पचड़ी जैसे व्यंजन बनाए जाते हैं और कच्चे आम से बने पकवान खाने को एक अलग ही स्वाद देते हैं। लोग परंपरागत रूप से नए साल के धार्मिक पंचांगम् (पंचांग) और आगामी साल की भविष्यवाणी सुनने के लिए इकट्ठा होते हैं जिसे पंचांग श्रवणम् कहते हैं, यानी एक अनौपचारिक सामाजिक समारोह, जिसमें एक प्रतिष्ठित बुजुर्ग व्यक्ति पंचांग पढ़ता है। पंचांगम मे चंद्र राशि के आधार पर ज्योतिषीय गणना शामिल होती है। इस कार्यक्रम का आयोजन सरकार करती है और इस अवसर पर अग्रणी कवियों, सांस्कृतिककारों को सम्मानित किया जाता है।
उगादि दिवस के अवसर पर प्रसिद्घ तिरुपति मंदिर में पारंपरिक तरीके से भव्य समारोह का आयोजन होता है। इस समारोह को आधुनिकता के कारण पीछे छूटती परंपराओं को फिर से जिंदा करने की मंदिर प्रशासन और भक्तों की कोशिश के तौर पर भी देखा जा रहा है। इस दिन नृत्य, पारंपरिक परिधान प्रतियोगिताओं के साथ-साथ परंपरा और तिरुपति से जुड़े विषयों पर निबंध-लेखन और भाषण प्रतियोगिता का भी आयोजन किया
जाता है।
कर्नाटक के बेलगाम जिले की शिराशंगी की घाटी में काली का सिद्घ मंदिर श्री कालिका देवी मंदिर है। स्थित उगादि मंदिर के लिए यह एक बड़े उत्सव का दिन है। उगादि के दौरान बन्निमंतप्पा में पांच दिवसीय का पालकी महोत्सव होता है। इस मौके पर लगभग 15,000 लोग इकट्ठा होते हैं। यह मंदिर अपने ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व के लिए जाना जाता है। उगादि इस क्षेत्र के विश्वकर्मा समुदाय के लोगों द्वारा मनाया जाने वाला एक प्रमुख त्योहार है। अमावस्या पर विश्वकर्मा समाज विकास से संबंध समस्थे धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करता है। इस अवसर पर भक्त देवी को अपने खेतों में उगाया गेहूं चढ़ाते हैं। पदयामी के शुरुआती घंटों के दौरान प्रसिद्घ अनुष्ठान किया जाता है।
वैश्वीकरण के इस युग में हम अधिक आत्म-केन्द्रित होते जा रहे हैं और अपनी जड़ों, संस्कारों, अनुष्ठानों और पारंपरिक तौर-तरीकों को भूलते जा रहे हैं। हम बड़ी तेजी से अपनी संस्कृति के सार्वभौमिक स्वरूप से विमुख हो रहे हैं और हम खुद को संकीर्ण दायरे में कैद कर लिया है। गौर करें तो पाएंगे कि क्षेत्रीय पंचांगों में दिन और महीनों के जो भी नाम हैं, वे सभी मूल रूप से संस्कृति से निकले होते हैं। स्पष्ट दिखती तमाम विविधताओं के बावजूद सभी क्षेत्रीय प्रथाओं में एक अंतर्निहित एकता पूरे देश की एक समग्र संस्कृति को प्रतिबिंबित करती है। देशभर में मनाए जाने वाले युगाडी, उगादि, विशु, बिहू आदि उत्सव हमारे सनातन धर्म की अवधारणा की ही अभिव्यक्ति हैं जिसपर हमारे राष्ट्रवाद का निर्माण हुआ। वैदिक मंत्र-एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति-इसी विचार को बताता है। नव वर्ष के इस अवसर पर, जिसे देशभर में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है, आइए जीवन से जुड़े समग्र दृष्टिकोण के सार के रूप में इस एकता का आनंद उठाएं। इस समन्वित सांस्कृतिक उत्सव का सौंदर्य और ऊर्जा अतुलनीय है।
अंत में फिर 'वेस्टलैंड' कविता पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि दोहरे दृष्टिकोणों से उपजे मनुष्य के चिरस्थायी अंतर्द्वंद्व और सभ्यताओं के टकराव को चित्रण करती वेस्ट लैंड की शुरुआती निराशावादी पंक्ति का सिरा जब कविता के अंत पर पहुंचता है तो कवि को उपनिषदों में प्रस्तुत सर्व-समावेशी और सर्व-व्यापक दर्शन में समाधान दिखाई देता है। टी़एस़ इलियट ने अपने महाकाव्य को एक सार्थक परिणति दी है 'शांति शांति-शांति'। आइए हम चैत्र के इस शुभ महीने में अपने त्योहारों में मौजूद सर्वजन को एक सूत्र में बांधने वाले हिंदू सनातन दर्शन को पहचाने और क्षेत्रीय अलगाव की नाजुक सीमाओं को दिव्य शान्ति मंत्र के जाप की मजबूत डोर से बांध कर एकता का स्वरूप पेश करें। -गणेश कृष्णन आर.
(हैदराबाद से एऩ नागराज राव और चेन्नई से टी़ एस़ वेंकटेशन द्वारा प्रस्तुत जानकारी के साथ )
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