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प्रकाशकों के बार-बार अनुरोध पर यह लेख लिखते हुए मैं मजेदार विडंबना से मुकाबिल हूं। अनुरोध से शुरुआती इनकार और प्रारंभिक हिचकिचाहट से मैं इस आधार पर बाहर निकला कि अभिव्यक्ति की आजादी का मौलिक सिद्धांत—विषय जो प्रकाशकों द्वारा दिया गया है—अपने आपमें मुझे उस पत्रिका में लिखने को बाध्य करता है, जिसके साथ मैं आम तौर पर असहमत रहता हूं और जिसके प्रबंधक संगठन की मैं अक्सर आलोचना करता हूं। लेकिन यह भारतीय संविधान की जीत है कि मुझसे बार-बार अनुरोध किया गया, कि मैं सहमत हो गया और यह कि मैं इस पत्रिका को चलाने वाले संगठन और प्रकाशकों द्वारा दृढ़तापूर्वक अपनाए गए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण को बदलने की कोशिश कर रहा हूं!
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं, बल्कि 1930 से 1960 के बीच साम्राज्यवाद के जुए से उबरने वाले 20-30 राष्ट्रों के बीच विलक्षण अपवाद है। संविधानवाद के खंडहरों से अटे दक्षिण अमेरिकी, अफ्रीकी और ऑस्ट्रेलेशियन भूखंडों के विपरीत भारत एक शक्तिशाली, जीवंत और वास्तविक लोकतंत्र के रूप में निखरा है और बरकरार है। प्रतिरक्षा के कई साधनों में, इस जीवंत लोकतंत्र और संविधानवाद का मूल आधार वाणी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इसके बिना, कोई भी संवैधानिक गैर-धार्मिक, गैर-राजतंत्रीय इकाई खोखला लोकतंत्र भर रह जाएगी। दफ्तरी (भारत के दिग्गज विधिवेत्ता दिवंगत सी.के. दफ्तरी-सं.) की मजेदार और शरारती मिसाल लें तो यह बिना 'पब' (मयखाना) के 'रिपब्लिक' की तरह होगा, जो मात्र 'रेलिक' (यानी अवशेष) रह जाएगा।
वाणी की स्वतंत्रता असीम नहीं है लेकिन इस पर लगाए जा सकने वाले प्रतिबंधों (जैसे सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, संप्रभुता और अखंडता, विदेशी मामले और मानहानि आदि के आधार पर) का उचित होना जरूरी है। चूंकि असंतोष और असहमति, यहां तक कि प्रचंड, कर्कश और सार्वजनिक भी, वाणी की स्वतंत्रता का मर्म और उसकी आत्मा है, सो, मात्र असहमति कभी दोषपूर्ण नहीं हो सकती। राजद्रोह वाणी की स्वतंत्रता की कठोर और चरम अवमानना है।
पहली बात यह कि हम राजद्रोह की संवैधानिक वैधता के बारे में चर्चा नहीं कर रहे हैं (जिसे पहले ही उचित ठहराया जा चुका है), बल्कि उसे लागू करने के दायरे और उसके तरीके के बारे में चर्चा कर रहे हैं। दूसरे, यह कि शायद ही कभी किसी को राजद्रोह का दोषी पाया गया हो, और इसे सदा उत्पीड़न के औजार के रूप में प्रयोग किया जाता रहा, जिसका कोई भयोत्पादक प्रभाव नहीं होता, और जिसपर अभियोजन पक्ष के दुर्लभ संसाधनों की फिजूलखर्ची होती है। तीसरे, जेएनयू में प्रयुक्त भाषा से कई गुना ज्यादा अपमानपूर्ण और हिंसक भाषा का नतीजा कुछ नहीं निकला है। चरम भाषा को विद्रोहात्मक न मानने की मिसालों में शामिल हैं:
क) ''आज सीआइडी के कुत्ते बरौनी में आवारागर्दी कर रहे हैं। यहां तक कि कई सरकारी कुत्ते इस बैठक में भी बैठे हैं … आज ये कांग्रेसी गुंडे लोगों की गलती की वजह से गद्दी पर बैठे हैं … इन सरकारी कुत्तों को भी इन कांग्रेसी गुंडों के साथ-साथ खत्म कर दिया जाएगा।'' (1962, सुप्रीम कोर्ट, केदारनाथ सिंह)
ख) ''खालिस्तान जिंदाबाद, राज करेगा खालसा और हिंदुओं नूं पंजाब चौन कढ के छडेंगे, हुण मौका अया है राज कायम करण दा (1985, सुप्रीम कोर्ट, बलवंत सिंह)
ग) अलेहाद नाम के एक आतंकी संगठन की सक्रिय सदस्यता, जिसका लक्ष्य कश्मीर को भारत से मुक्त कराना है, और जो मुस्लिम युवाओं के बीच सांप्रदायिक घृणा फैलाने और भारतीय सेना द्वारा अत्याचार की गलत सूचनाओं के प्रसार में शामिल रहा है, उसे धारा 124 ए के तहत अपराध का आरोपी नहीं माना गया है, भले ही वह टाडा के दायरे में हो। (1997, सुप्रीम कोर्ट, बिलाल कालू)।
चौथी बात, शीर्ष न्यायालय ने लगातार कहा है कि धारा 124 ए लगाने से पहलेे किसी कटु और यहां तक कि हिंसक मौखिक हमले को भी, सार्वजनिक अशांति या उसे शह दिए जाने की साफ संभावना को स्थापित करना चाहिए। इसके साथ ऐसे प्रकट कार्य जरूर होने चाहिए, जिनसे सार्वजनिक अशांति या हिंसा की आशंका हो। यह बोलने की आजादी के पक्ष में एक अहम बचाव है, जिसके अभाव में हर गंभीर असहमति को राजद्रोह के रूप में पुनर्चित्रित किया जा सकता है।
पांचवीं, राजद्रोह एक गंभीर अपराध है, जिसके लिए अधिकतम आजीवन कारावास की कठोर सजा है। अव्यवस्था, भड़कावे और हिंसा की स्पष्ट संभावना को साबित करने के (इस धारा में) अंतर्निहित न्यूनतम सुरक्षा उपायों व प्रतिबंधों के साथ व्याख्या किए गए बिना, इस धारा की भारी-भरकम शब्दावली जबरदस्त व्यक्तिपरकता को बल देगी और बोलने की आजादी को पूरी तरह नष्ट करते हुए अधिकारियों को चुनिंदा और व्यक्तिपरक ढंग से असंतुष्टोंं को गंभीर सजा के साथ निशाना बनाने की इजाजत दे देगी।
छठी बात, राष्ट्रवाद कोई ऐसी बात नहीं कि जिसकी सुई लगाई जा सके, जिसे बनाया या बांटा जा सके। राष्ट्रवाद का उद्रेक हर व्यक्ति की आत्मा और हृदय में, लोकतंत्र का सह-स्वामी होने और (उसमें) स्वयं का समावेश किए जाने की भावना तथा इस विश्वास से होना चाहिए कि उसकी भी उतनी ही सुनी जाएगी, जितनी किसी और की, चाहे उसका लिंग, क्षेत्र, जाति, धर्म या आय कुछ भी हो। छाती पीटने से, निष्ठा जताने के उन्मत्त प्रदर्शनों, या कठोर सजा देने के प्रावधानों के तहत दंड देने से, तार्किक उपदेशों या दंडात्मक उपायों से न तो कभी राष्ट्रवाद का माहौल बनेगा न इसकी संस्कृति जन्मेगी। यह पैदा होगा संवेदना से, इस बात को स्वीकारने से कि भारत पृथ्वी का सबसे विविधतापूर्ण स्थान है, यह पैदा होगा सहानुभूति से, वास्तविक गैर भेदभाव और उदारवाद के सर्वव्यापी माहौल से जो असहमति व अलग राह लेने को प्रोत्साहित करता हो और जो वॉल्टेयर के इस सिद्धांत पर टिका हो कि 'मैं आपके विचार से असहमत हो सकता हूं, लेकिन उस विचार को रखने के आपके हक की रक्षा मैं मृत्युपरंत करूंगा।'
सातवीं बात, आप में से ज्यादातर लोगों की ही तरह मैं भी निश्चित रूप से, न तो वह कहना चाहूंगा जो कन्हैया ने कहा है, और न ही वह किसी भी रूप में/ किसी भी तरीके से या किसी भी अवसर पर करना चाहूंगा, जो उमर खालिद या विनायक सेन या ओवैसी ने किया। उनके कथनों में से कुछ (उदाहरण के लिए ओवैसी) अपनी विषयवस्तु या स्वरूप में वास्तव में निंदनीय और असहमति के लायक हैं। लेकिन इससे वे राजद्रोह के पात्र नहीं बन जाते। संविधान उन्हें इसकी अभिव्यक्ति के अधिकार से मना नहीं करता, ठीक उसी तरह जैसे वह मुझे या आपको उनके नजरिए और विषयवस्तु का अपनी मर्जी के अनुसार उग्रता से विरोध करने से नहीं रोकता। यही वह तत्व है जो हमें पाकिस्तान से, हमारे दक्षिण एशियाई पड़ोसियों से, और हमसे बड़े या अमीर उन सैकड़ों देशों से अलग करता है, जहां लोकतंत्र नहीं है या जहां वाणी की स्वतंत्रता से रहित समृद्ध समाज है (जैसे कुछ तथाकथित एशियाई टाइगर्स)।
आखिर में, हमारे पास वह खजाना है, जो स्वतंत्र विचार, उन्मुक्त अभिव्यक्ति और अपने विचारों के निर्बाध प्रकटीकरण की विरासत है। हमें इस विरासत का आनंद लेना चाहिए, इसे संरक्षित करना चाहिए, सुरक्षित करना चाहिए और उदारवाद की लगातार बढ़ती खुराक के जरिए इसे कई गुना बढ़ावा देना चाहिए। बजाए इसके, वे गुमराह तत्व, जो भारत के विचार (आइडिया ऑफ इंडिया) को नहीं जानते, वे गंभीर और क्षुद्र कामों से, उदारवाद और वाणी की स्वतंत्रता की इस अद्वितीय भारतीय परंपरा को सीमित कर रहे हैं, उसका दम घोंट रहे हैं, और उसमें कटौती कर रहे हैं, और इस तरह उस चीज को नष्ट कर रहे हैं, जो भारत का गौरव है और विश्व के लिए ईर्ष्या की वस्तु है।
(लेखक संसद सदस्य, वरिष्ठ अधिवक्ता, कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तथा विधि और न्याय संबंधी संसदीय स्थायी समिति के अध्यक्ष रह चुके हैं। ये उनके निजी विचार हैं) अभिषेक मनु सिंघवी
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