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मीडिया बीते हफ्ते झारखंड के लातेहार की खबर को तूल देने की कोशिश में लगा रहा। वहां दो मुसलमानों की हत्या कर दी गई थी। पहली नजर में यह स्थानीय अपराध का मामला है। आरोपियों की गिरफ्तारी हो चुकी है, लेकिन दिल्ली का मीडिया इसे लेकर कहानियां गढ़ने में जुटा है। यह वही मीडिया है जो केरल, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक राजनीतिक हत्या पर चुप्पी साध लेता है। कुछ दिन पहले ही आगरा में गोरक्षा आंदोलन से जुड़े दलित कार्यकर्ता अरुण माहौर की बर्बर तरीके से हत्या कर दी गई। किसी चैनल ने यह खबर नहीं दिखाई। खबर तब जाकर बनी जब केंद्र सरकार के मंत्री रामशंकर कठेरिया श्रद्घांजलि सभा में पहुंचे। वहां उन्होंने कहा कुछ, लेकिन मीडिया ने कुछ और ही छापकर विवाद खड़ा करने की भरपूर कोशिश की। मुख्यधारा के मीडिया का यही वह खेल है जिसे आम लोग अब समझने लगे हैं।
ब्याज दरें पहले भी घटती-बढ़ती रही हैं, लेकिन इस बार जब पीपीएफ, किसान विकास पत्र आदि पर ब्याज दरें कुछ घटींं तो मीडिया को मानो मौका मिल गया। यह शायद पहली बार हुआ होगा कि सामान्य आर्थिक प्रक्रियाओं को समझे बिना मीडिया खासतौर पर न्यूज चैनल, सरकार की आलोचना कर रहा है। इसका जिम्मेदार किसे माना जाए? संपादकों के अल्प आर्थिक ज्ञान को या फिर उनकी छिपी राजनीतिक निष्ठा को? आजतक, एबीपी न्यूज और दूसरे कई हिंदी, अंग्रेजी चैनलों ने कहा कि 'मिडिल क्लास की जेब पर डाका' पड़ा है। उन्हें ये कौन बताए कि यह सामान्य आर्थिक प्रक्रिया है, जिसके तहत ब्याज दरें ऊपर-नीचे होती रहती हैं।
उधर जेएनयू में वामपंथी जलसों को 'लाइव' दिखाने वाले ज्यादातर चैनलों ने अनुपम खेर के कार्यक्रम में छात्र-छात्राओं की भारी भीड़ से नजरें फेर लीं। जहां कुछ महीने पहले तक देशद्रोही नारे लग रहे थे, वहां अब 'भारतमाता की जय' का घोष सुनाई देने लगा है। लेकिन इस बदलाव में शायद किसी चैनल या अखबार की ज्यादा रुचि नहीं दिखी। बीते हफ्ते मीडिया के अंदर 'पाकिस्तान प्रेमियों' का मुद्दा भी उठा। एशिया कप टी 20 मैच से पहले इंडिया टुडे ने अपनी वेबसाइट पर एक लेख डाला, जिसे पढ़कर आपको लगेगा कि यह भारत नहीं, बल्कि पाकिस्तान की किसी मैगजीन में छपा होगा। रिपोर्टर ने इसमें लिखा कि 'इडेन गार्डेन में भारत को शर्मिंदा करने का सुनहरा मौका है।' इसी तरह एनडीटीवी की वेबसाइट पर बताया गया कि 'अगर भारत मैच जीतता है तो इससे प्रधानमंत्री मोदी की पाकिस्तान नीति पर असर दिखेगा। वे यह दिखा सकेंगे कि भारत ने पठानकोट हमले का बदला ले लिया है। अगर पाकिस्तान जीतता है तो वह दिखा सकेगा कि वह आतंकवाद का समर्थक नहीं, बल्कि एक सामान्य देश है।' क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसे मूर्खतापूर्ण विश्लेषण करने वाले हमारे तथाकथित बड़े संपादक हैं?
समस्या यह है कि मीडिया की इन सारी शरारतों के बीच असली मुद्दे गायब हैं। मीडिया को न तो जीएसटी बिल पास न होने से लोगों को हो रहे नुक्सान से मतलब है और न रियल एस्टेट बिल पास होने से होने वाले फायदे से। संसद के दोनों सदनों में बजट सत्र के पहले हिस्से में अच्छी बहस हुई। लंबे समय से लटके कई काम आगे बढ़े। ओवैसी की देश-विरोधी राजनीति पर राज्यसभा में जावेद अख्तर ने बहुत अच्छा भाषण दिया, लेकिन इसे ज्यादातर न्यूज चैनलों में खास जगह नहीं मिली जबकि यही मीडिया भारत के टुकड़े-टुकड़े करने वालों और बर्बादी के नारे लगाने वालों के भाषण को पूरा का पूरा 'लाइव' सुनाता रहा है। ल्ल
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