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कोई भी आतंकी हमला कभी सामान्य नहीं होता। हर हमले के बाद आतंकवाद और मानवता के बीच लड़ाई साफ और गहरी होती जाती है। लेकिन फिर भी कहना होगा कि ब्रसेल्स मजहबी उन्माद की बर्बरता का 'नया अध्याय' है। नया इसलिए क्योंकि असहनीय दर्द, खून और खरोंचों से भरी इस थर्राहट ने दुनिया को नए तरीके से सोचने पर मजबूर किया है।
ब्रसेल्स का विश्लेषण सिर्फ इतना भर नहीं है कि यह नाटो कार्यालय और यूरोपीय संघ मुख्यालय तक अपनी धमक पहुंचाने की आतंकी कोशिश है, इसका मतलब यह भी है कि दो आतंकी हमलों को देखने के लिए अब दो नजरिए नहीं हो सकते। जो लोग मुंबई हमलों के कराची तार को नकार रहे थे वे भी ब्रसेल्स को पेरिस हमले की अगली कड़ी के तौर पर स्वीकार रहे हैं।
कुछ बातें अब शीशे की तरह साफ हैं—
पहली बात, पिछले साल जून में इराक के मोसुल को आईएस के जिस आतंकी ताप ने अपनी गिरफ्त में लिया था आज उसका दायरा संयुक्त ब्रिटेन से ज्यादा बड़ा है। दूसरी बात, इक्का-दुक्का छापामार हमलों की हरकतों से बढ़ते-बढ़ते आइएस और उसके मुखिया बगदादी की छवि मुस्लिमों के बीच निर्णायक युद्ध लड़ने वाले योद्धा सरीखी हो चुकी है। तीसरी और सबसे खतरनाक बात, नरसंहार की आतंकी भूख अब देशों की सीमाएं लांघकर उस स्तर पर पहुंच चुकी है जहां दुनिया का कोई भी देश उसकी अनदेखी नहीं कर सकता।
इसके साथ ही कुछ और चीजें हैं जिनका साफ होना बहुत जरूरी है। इसमें सबसे पहले आती है आतंकवाद की परिभाषा। अल-कायदा, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद या आईएस… आतंकी संगठनों के सामने जहां उनकी विस्तार रणनीतियां और निशाने साफ हैं, वहीं विश्व अब तक मजहबी आतंक की परिभाषा और इन गुटों के आपस में गुंथे होने को लेकर स्पष्ट नहीं हो सका है।
दूसरी बात इस लड़ाई को लेकर की जा रही पालेबंदी और आतंकवाद का मुकाबला करने चले देशों के रुख और दृढ़ता से जुड़ी है। मजहबी उन्माद अब वैश्विक बीमारी है। विडंबना यह है कि इस बीमारी को इलाज का दावा करने वालों ने ही पाला-पोसा है। उस आतंकी उबाल, जिसका आधार ही वहाबी उन्माद है, के विरुद्ध लड़ाई में सऊदी अरब का अमेरिका का सहयोगी होना क्या दर्शाता है? आईएस पर रूस के हमलों पर त्योरियां चढ़ाने वाले आज भी सिर्फ इस चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं कि सीरिया में शासन की बागडोर किन हाथों में न रहे!! यह दुर्भाग्यपूर्ण है। आतंकी संगठनों को काली सूची में डालने भर से कुछ होने वाला नहीं, इसे समझना और मानवता पर हमला बोलने वाले बर्बर भेडि़यों का खात्मा अब वैश्विक प्राथमिकता की चीज है।
अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात। मुंबई, सीरिया, पेरिस या ब्रसेल्स… कुछ व्यक्तियों, संगठनों और विचारधाराओं को इन घटनाओं से कोई फर्क पड़ता नहीं दिखता। ये वही तत्व हैं जो मानवाधिकारों की आड़ में दानवों के अधिकारों की मुहिम चला रहे हैं और आजादी के हुंकारों की आड़ में युवाओं को बरगलाने और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को ढहाने के मोर्चे बांध रहे हैं।
ये तत्व वही हैं जो असहिष्णुता के छद्म जुमलों पर दुनियाभर में हस्ताक्षर और प्रदर्शन अभियान चलाते हैं परंतु किसी आतंकी कृत्य की निंदा में जिनके मुंह से कोई बोल तक नहीं फूटता।
ब्रसेल्स में गई 34 जानें आतंकवाद पर दोमुंहा रवैया दिखाने वालों के मुहं पर तमाचा हैं। निश्चित ही यह आतंकवाद की जीत नहीं परंतु उन लोगों की नकाब उतार देने वाला झटका है जो मजहबी उन्माद के विरुद्ध लड़ाई में कभी पूरी तरह साथ नहीं थे।
हथियारों से लदे आतंकी उन्माद और विष से भरी विचारधाराओं का ताप और व्याप बड़ा है लेकिन अब दुनिया को इस जहर भरे खतरे के विरुद्ध सम्मिलित निर्णायक लड़ाई में कूदना ही होगा।
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