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उन दिनों की एक घटना मुझे बिल्कुल स्पष्ट रूप से याद है। 1923 में मैं केवल 14 वर्ष की आयु का मैट्रिक का विद्यार्थी था। कानपुर में मैं क्रान्तिकारी दल में शामिल हो गया, वहां ही मैं पैदा हुआ और वहां ही मेरा पालन-पोषण हुआ। उस क्रांतिकारी दल में मेरे साथी थे, स्वर्गीय श्री अजय कुमार घोष और असेम्बली बम कांड में शहीद भगत सिंह के ख्यातिप्राप्त साथी श्री बटुकेश्वर दत्त। यह समय वह था, जब हम क्रांतिकारी प्रवृत्तियों में संलग्न हुए थे। तब हमारे साथियों में इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, भारतीय संस्कृति की धरोहर आदि विषयों के अध्ययन पर जोर दिया जाता था। उन्हीं दिनों अपने क्लब के छोटे से कमरे में शचीन्द्रनाथ सान्याल से भेंट हुई। मैंने उनके बारे में सुन रखा था कि वे पहले विश्वयुद्ध के दिनों में सुप्रसिद्ध एवं प्रमुख क्रान्तिकारी श्री रासबिहारी बोस के दाहिने हाथ थे, जब उत्तर भारत की समस्त छावनियों में एक साथ सशस्त्र राष्ट्रीय क्रान्ति करने की योजना बनाई गई थी।
शचीन्द्र के द्वारा दी गई वह श्रद्धांजलि
अपने क्रांतिकारी दल में शचीन्द्र सान्याल के लिए हम केवल शचीन्द्र का प्रयोग किया करते थे। उनके पास मोतीलाल राय की लिखी हुई बलिदानी लाल के संबंध में एक पुस्तक थी। उन्होंने उस पुस्तक के वे उद्धरण सुनाए जिनमें उस वीर बलिदानी के अंतिम दिनों का विवरण था। उसमें बताया गया था कि किस प्रकार हंसते-हंसते वह फांसी पर झूल गया था और तब उसका वजन भी बढ़ गया था। वे स्थल पढ़ते हुए शचीन्द्र का चेहरा स्वाभिमान से चमक उठा था। गर्वीली आंखों से अश्रुधारा बाहर निकली थी। उस गंभीर हृदय का मुझ पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। शचीनदा के उत्सर्ग के बारे में मैंने बहुत कुछ सुन रखा था। तब मैंने देखा कि वह किस प्रकार एक बलिदानी को एक भक्त की तरह अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे।
1915 में बनारस षड्यंत्र मुकदमे में उनको आजीवन करावास की सजा हुई थी और उनको कालापानी भेज दिया गया था और प्रथम महायुद्ध के बाद रिहा किया गया था। जेल से रिहा होते ही उन्होंने अपने को फिर से क्रांतिकारी दल को संगठित करने में लगा दिया। उनके परिवार के सभी लोगों ने क्रांतिकारी प्रवृत्तियों को बलशाली और व्यापक बनाने में हाथ बंटाया था। वे चार भाई थे। उनके बड़े भाई रवी सान्याल को जो आजकल प्रोफेसर हैं, बनारस षड्यंत्र मुकदमे के सिलसिले में नजरबन्द किया गया था। उनके सबसे छोटे भाई भूपेन सान्याल को 1927 में काकोरी षड्यंत्र मुकदमे में दंडित किया गया था और जितेन सान्याल को 1929 में लाहौर मुकदमे में हम लोगों के साथ अभियुक्त बनाया गया था। उनकी बूढ़ी मां और पत्नी भी क्रांतिकारी प्रवृत्तियों से अलग नहीं रहीं। उन्होंने क्रांतिकारी प्रवृत्तियों के साथ निरन्तर संंबंध रखा।
बलिदानी
शचीन्द्र को भी 1927 में काकोरी षड्यंत्र में गिरफ्तार करके बीस वर्ष के कारावास की सजा दे दी गई थी 1937 में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बनने पर उन्हें रिहा किया गया था, परन्तु कुछ अधिक समय वह जेल से बाहर नहीं रह सके। उन्हें देवली कैंप में नजरबन्द कर दिया गया था और राजयक्ष्मा से पीडि़त हो जाने के कारण डॉक्टरी आधार पर रिहा किया गया था।
अन्त में भुवाली के सैनिटोरियम के एक छोटे से कमरे में उस अदम्य उत्साही क्रांतिकारी की जीवनलीला समाप्त हो गई। अपने क्रांतिकारी आंदोलन की एक और घटना की ओर मेरा ध्यान बरबस जाता है। वह मृत्युंजयी यतीन्द्र के संबंध में है। वे बंगाल के युवा क्रांतिकारी दल के सदस्य थे। उन्होंने आयरिश ईस्टर विद्रोह के ढंग पर संगठित विद्रोह की योजना बनाई थी। 1930 में चटगांव के शस्त्रागार पर जो आक्रमण किया गया, वह उसी योजना के अन्तर्गत एक सुसंगठित प्रयास था। यतीन्द्र बम बनाने में विशेष अंत रूप से प्रवीण थे। वह 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' के सदस्यों को बम बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए 1928 में आगरा आ गए थे। यतीन्द्र स्वभाव से मस्तमौला थे। खाने-पीने का उनको बड़ा शौक था। एक दिन जब वह बम बनाने के लिए बारूद तैयार कर रहे थे, तब उन्होंने मुझे एक तरफ बुलाया और कहा कि क्या मैं उनके लिए आगरा की प्रसिद्ध रबड़ी कहीं से प्राप्त कर सकता हूं? मैंने हां भर दी और दूसरे दिन रबड़ी लाकर दे दी। यह वही यतीन्द्र थे, जिन्होंने लाहौर षड्यंत्र मुकदमे में हम लोगों द्वारा की गई सामूहिक भूख हड़ताल में नाक में रबड़ की नली डालकर बलात् दिये जाने वाले दूध का एक कतरा तक पेट में न जाने दिया था और बीमार पड़ जाने पर दवा लेने से इन्कार कर दिया था। 63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद उन्होंने अपने प्राण विसर्जित कर दिये। -विजय कुमाह सिन्हा
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