|
महंगा है तो अच्छा तो होगा ही, 'अरे भई फलां ब्रांड के कपड़े ले लो, थोड़े महंगे जरूर हैं लेकिन क्वालिटी बहुत अच्छी है।' आपको ऐसी सलाह देने वाले बहुत से लोग मिलेंगे। कपड़ों के मामले में तो ब्रांड समझ में आता है लेकिन दवाओं के मामले में ब्रांड? सुनकर अजीब लगता है न? लेकिन हकीकत यही है। देश में ब्रांडिंग के नाम पर दवाओं की ब्राडिंग का बेइमान खेल धड़ल्ले से खेला जा रहा है। नतीजतन इलाज के नाम पर आदमी महंगी दवाएं खरीदकर अपनी जेब खाली करता रहता है। डॉक्टर ने पर्ची लिख दी तो दवाई तो खरीदनी ही है, भले ही कितनी महंगी क्यों न हो? ऐसा क्यों? क्योंकि पर्ची पर डॉक्टर ने नुस्खा या दवाई का जो नाम लिखा है वह दवा कुछ गिनी-चुनी दुकानों पर ही मिलती है। यही है दवाओं की ब्रांडिंग का नियोजित खेल।
स्वस्थ भारत अभियान के राष्ट्रीय संयोजक आशुतोष कुमार सिंह कहते हैं, ''जो दवा आपको महज कुछ ही रुपयों में मिल सकती है, आप उसी दवा के कई गुना दाम चुकाते हैं। इसका सीधा-सा फायदा दुकानदार, कंपनी और डॉक्टर को होता है।'' लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में बेची जाने वाली 90 प्रतिशत से ज्यादा दवाएं जेनरिक हैं, जेनरिक यानी जिन दवाओं का पेटेंट खत्म हो चुका है। यानी वे दवाएं जिन्हें बड़ी- बड़ी दवा कंपनियां अपना ब्रांड कहकर अलग-अलग नामों से बनाकर बेच रही हैं। उनके 'साल्ट' यानी मिश्रण बहुत साधारण हैं। यानी उन साल्टों की दवाओं को यदि उनके जेनरिक नाम यानी असली नाम से बेचा जाए तो वे बड़े सस्ते हैं लेकिन आप और हम सस्ती मिल सकने वाली दवाइयों को ब्रांडेड दवाओं के नाम पर खरीदकर लुट रहे हैं।
एनपीपीए (नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी) के अनुसार देश में अंग्रेजी दवाओं का वार्षिक कारोबार लगभग 1.30 हजार करोड़ रु. का है। फार्मेसिस्ट फाउंडेशन उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष अमित श्रीवास्तव कहते हैं, '' ब्रांडेड दवाओं के नाम पर बड़े पैमाने पर आम आदमी की जेब काटी जा रही है।'' उदाहरण के तौर पर सिट्रीजिन एक एंटी एलर्जिक दवा है। इसे बाजार में दर्जनभर नामों जैसे, सिट्राविन, सिट्रोसिन, एलरिड, सिटजिन आदि से बेचा जाता है। प्रत्येक के दाम अलग- अलग हैं क्योंकि कंपनियां अलग-अलग हैं। सिट्रीजिन का असल दाम तीन रुपए पत्ता है जबकि बाजार में इसे 20 रुपए तक बेचा जाता है क्योंकि अलग-अलग दवा कंपनियों ने अपने-अपने नाम से एमआरपी (खुदरा मूल्य) रखा होता है।
महाराष्ट्र में जेनरिक दवाइयों के लिए लंबे समय तक अभियान चलाने वाले खाद्य एवं औषधि प्रशासन आयुक्त रहे महेश जगते (वर्तमान में पुणे विकास प्राधिकरण के जिला सत्र आयुक्त ) बताते हैं '' ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1940 के तय मानकों के अनुसार ही बाजार में दवाइयां बेची जानी चाहिए। इसमें एक प्रावधान है कि यदि कोई दवा जेनरिक है तो उसके मूल साल्ट नाम को बड़े अक्षरों में दवा के पत्ते पर लिखकर बेचा जाना चाहिए, भले ही वह दवा किसी भी कंपनी ने क्यों न बनाई हो।'' लेकिन होता इसके विपरीत है। दवा में जो साल्ट होता है यानी जो उसका जेनरिक नाम होता है, कंपनियां उसे छोटे अक्षरों में लिखती हैं और दूसरे नाम से उसे अपना ब्रांड बना देती हैं और इस तरह उन्हें उस दवा को महंगी दर पर बेचने का रास्ता मिल जाता है। यदि सरकार ऐसी व्यवस्था करे कि दवा के पेटेंट फ्री होने के बाद उसे जेनरिक दवा के नाम से ही बेचा जाए तो दवाओं के इस ब्रांडेड खेल पर रोक लगाई जा सकती है। इसके लिए सरकार को दवा मूल्य निर्धारण नीति को भी सही ढंग से निर्धारित करने की जरूरत है।
एनपीपीए के 'मॉनिटरिंग एंड एनफोर्समेंट' विभाग के उपनिदेशक मनोज कुमार बताते हैं कि अभी एनपीपीए की सूची में केवल 530 दवाएं असिेन्शयल मेडिसन लिस्ट यानी जरूरी दवा सूची में हैं जिनका मूल्य निर्धारण एनपीपीए करती है।
जगते का मानना है कि इन दवाओं की सूची को बढ़ाए जाने की जरूरत है। वे कहते हैं कि ''मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा डॉक्टरों के लिए तय किए गए नैतिक मूल्यों के अनुसार उन्हें मरीजों को ज्यादा से ज्यादा जेनरिक दवाइयां लिखनी चाहिए, किसी भी ब्रांडेड दवा के बारे में तभी लिखना चाहिए जबकि उसकी बहुत जरूरत हो लेकिन ऐसा होता नहीं।'' सभी जानते हैं कि दवा कंपनियां डॉक्टरों के साथ मिलीभगत कर उनका कमीशन तय कर देती हैं, जिसके चलते डॉक्टर तय कंपनियों की दवा का ही नाम लिखते। इसे आप स्वयं आजमा सकते हैं।आपके डॉक्टर की लिखी कुछ दवाइयां ऐसी होती हैं जो उसके क्लिनिक के आसपास के कुछ ही मेडिकल स्टोर पर मिलती हैं। डॉक्टर चाहे तो उस दवा की जगह आसानी से मिलने वाली दूसरी दवा का नाम लिख सकता है लेकिन वह ऐसा नहीं करता। जगते कहते हैं, ''हमने महाराष्ट्र में इसे सख्ती से लागू किया, साथ ही डॉक्टरों से अपील भी की कि वे ज्यादा से ज्यादा जेनरिक दवाइयां ही लिखें। यदि आप इंग्लैंड में देखें तो वहां डॉक्टर 80 प्रतिशत से ज्यादा जेनरिक दवाइयों की ही पर्ची बनाते हैं। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी आदि विकसित देशों में भी यही व्यवस्था है। वहां डॉक्टर मेडिकल काउंसिल द्वारा तय किए गए मानकों के अनुसार प्रैक्टिस कर सकते हैं। वहां नियम कड़े हैं। अगर डॉक्टर नियम तोड़ता है तो उसका चिकित्सकीय लाइसेंस तक रद्द कर दिया जाता है। ''
स्वस्थ भारत मिशन से जुड़े फार्मेसी एक्टिविस्ट विनय भारती कहते हैं '' भारत में पिछले 20 वर्ष में किसी नई दवा को लेकर शोध नहीं हुआ है। भारत में जो दवाएं बेची जा रही हैं उन पर किसी का पेटेंट नहीं है। ऐसे में कानून को सख्ती से लागू करने की जरूरत है।'' वे बताते हैं कि सिप्रोबिड एक साधारण-सी एंटीबॉयोटिक है जिसका मूल सॉल्ट नाम सिप्रोफॉलोक्सिन है। यही दवा हजारों कंपनियां बना रही हैं, किसी ने सिप्रोसिड नाम रखा है तो किसी ने सिप्रोविन। सरकार को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करे कि दवा उसके जेनरिक नाम से ही बेची जाए, भले ही दवा कंपनी कोई भी क्यों न हो। इसके अलावा हर दवा कंपनी के लिए नियम बनाया जाए कि वह अपनी सारी दवाओं को उनके जेनरिक नाम के साथ ऑनलाइन अपनी वेबसाइट पर डाले। यदि ऐसा होता है तो देश में काफी हद तक ब्रांड के नाम पर हो रहे धोखे से लोगों को बचाया जा सकता है। साथ ही देश में फार्मेसी एक्ट 1940 को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। महाराष्ट्र और केरल में यह सख्ती से लागू है। इस कारण वहां बिना डॉक्टर की पर्ची के आपको कोई दवा नहीं मिलती। यदि इसे सख्ती से लागू किया जाए तो काफी हद तक दवाओं की कालाबाजारी को रोका जा सकता है।
2008 में रिसर्च एजेंसी अर्नेस्ट एंड यंग व फिक्की (भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ) के सर्वे में यह बात सामने आई थी कि स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर होने वाले खर्च के कारण भारत की आबादी में 3 फीसद लोग हर साल गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले कुल खर्च का 72 प्रतिशत केवल दवाइयों पर खर्च होता है। पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान 2012 में जब गुलाम नबी आजाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री थे तो सदन के पटल पर भी यह बात आ चुकी है कि देश में दवाइयां 1100 फीसद तक महंगी हैं। जब सरकार को यह बात मालूम है कि देश में दवाइयां इतनी महंगी हैं तो उसे दवाइयों के दाम कम करने की व्यवस्था करनी चाहिए। इसके लिए मूल्य निर्धारण नीति को स्पष्ट करने की जरूरत है। आशुतोष कहते हैं ''सरकार को चाहिए कि वह दवाइयों के मानक तय करने के साथ उनके दामों को भी तय करे। 1990 से पहले देश में एमआरपी का मतलब होता था मिनिमम रिटेल प्राइस लेकिन बाजारीकरण के चलते इसका अर्थ हो गया मैक्सिमम रिटेल प्राइज। एनपीपीए दवाओं के मूल्य निर्धारण करती है वह जिन दवाओं के मूल्य निर्धारित करती है उस जरूरी दवा सूची में 530 दवाइयां हैं। मेरा मानना है कि जब दवा का मतलब ही जरूरी होता है। ऐसे में जरूरी दवा सूची बनाने की आवश्यकता क्या है। दवा सारी जरूरी होती हैं। ऐसे में एनपीपीए को ज्यादा अधिकार देने की जरूरत है।''
जाहिर है, महंगी दवा और महंगे इलाज से गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या में वृद्धि को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों का इस मामले में गंभीर दखल देना जरूरी हो गया है। ब्रांड के नाम पर बिना पेटेंट दवाओं को महंगी बेचे जाने के दवा कंपनियों के खेल की रोकथाम के लिए केंद्र को कानूनों को कड़ा करना चाहिए और जरूरत हो तो उनमें संशोधन करना चाहिए। ल्ल
क्या है जेनरिक दवाइयां
सवाल उठता है कि जेनरिक दवाइयां क्या हैं? यदि आसान शब्दों में समझा जाए तो जेनरिक दवाइयां वह हैं जिन पर किसी कंपनी का पेटेंट नहीं है। उदाहरण के तौर पर यदि किसी एक कंपनी ने कोई दवा की खोज की तो उस दवा के शोध व बनाने में लगे खर्च को निकालने के लिए वह कंपनी उस दवा का पेटेंट कराती है ताकि कंपनी द्वारा किया गया खर्च बाजार से वसूल सके। अलग-अलग देशों में पेटेंट के लिए समय सीमा अलग-अलग है भारत में ज्यादा से ज्यादा 20 वर्ष की अवधि तक किसी दवा को पेटेंट कराया जा सकता है। बाजार में आने के बाद समय सीमा खत्म होने पर उस दवा पर कंपनी का एकाधिकार नहीं रह जाता। ऐसे में उस दवा के मूल साल्ट नाम के साथ अन्य कंपनियां भी उसे बनाकर बेच सकती हैं। इन दवाओं को जेनरिक कहा जाता है यानी जो दवा पहले ब्रांडेड थीं अब वह ब्रांडेड नहीं रह गई, वे जेनरिक दवाइयों के श्रेणी में आ गईं। ऐसे में दवाई सस्ती हो जाती है लेकिन कंपनियां फिर इन दवाइयों के सॉल्ट नए नाम से ब्रांड बनाकर उन्हें बाजार में बेचती हैं। जबकि भारत में बेचे जाने वाली 90 प्रतिशत से ज्यादा दवाइयां जेनरिक हैं यानी उन पर किसी दवा कंपनी का पेटेंट नहीं है।
करोड़ों का टॉरगेट देती हैं कंपनियां
नाम न छापने की शर्त पर एक बड़ी दवा कंपनी के प्रतिनिधि ने बताया कि कंपनी की तरफ से उन्हें करोड़ों रुपए का टॉरगेट दिया जाता है। वे डॉक्टरों के पास जाते हैं और उन्हें कंपनी द्वारा बनाई गई दवा के बारे में समझाते हैं। डॉक्टर का उस दवा को लिखने व दवा की दुकानों का उस दवा को बेचने पर कमीशन तय होता है।
दवा एक, नाम अनेक दाम अलग अलग
डाइक्लोफेनक सोडियम और पैरासेटामल साल्ट से बनने वाली दवाएं सिर दर्द, बदन दर्द में दी जाती हैं। डाइक्लोफेनक 100 एमजी की टेबलेट के एक पत्ते का मूल्य 5.75 रुपए है। यानी एक गोली लगभग 50 पैसे की मिलती है। जबकि ब्रांड में सेरेडिक नाम से यह 83 रुपए व डाइक्लोजाइम नाम से 64 रुपए में मिलती है। आई ब्रूफिन 400 एमजी टेबलेट के पत्ते का मूल्य 12.97 रुपए है। जबकि ब्रांड में यह कॉम्बिफेलेम नाम से 23 रुपए में मिलती है। एजेन्थ्रोमाइसिन 500 एमजी एक एंटीबॉयोटिक दवा है जिसके पत्ते का सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य 81.5 रुपए है। जबकि ब्रांड में एजीथ्रॉल नाम से इसका मूल्य 118 है। एमोक्सोसाइलिन 500 एमजी दवा के एक पत्ते का मूल्य 21.5 रुपए है। जबकि ब्रांड में मोक्स नाम से इसका मूल्य 105, नोवामोक्स नाम से 57, एमपोक्सिन नाम से 57 रुपए है। सिट्रीजिन सबसे साधारण एंटी एलर्जिक है जो अमूमन डॉक्टर दूसरी दवाइयों के साथ मरीज को लेने के लिए लिखते हैं। इस दवा की दस गोलियों का पत्ता 3 रुपए का है। जबकि इसे ब्रांड में सिटजिन नाम से इसे 21 रुपए, एलसेट नाम से 30 रुपए तक में बेचा जाता है। आशुतोष कहते हैं ये महज कुछ दवाएं हैं। ऐसी हजारों दवाएं हैं जो लोगों को सस्ती मिल सकती हैं, लेकिन दवा कंपनियां ब्रांडिंग के खेल में लोगों को उलझाकर मुनाफा कमा रही हैं। वहीं दवा पर जो मूल्य लिखा होता है, उसके मुकाबले उत्पादन लागत तो और कम होती है। कंपनी से थोक विक्रेता और वहां से दवा दुकानों पर पहुंचने के बाद जब दवा आम आदमी के हाथ में पहंुचती है तो उसका दाम कई गुना बढ़ चुका होता है। -आदित्य भारद्वाज
टिप्पणियाँ