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अ.भा. प्रतिनिधि सभा ने गुणवत्तापूर्ण और सस्ती शिक्षा सबको सुलभ कराने की जरूरत
को रेखांकित करते हुए शिक्षा क्षेत्र में बुनियादी सोच बदलतने की वकालत की
बहुधा हम जनसांख्यिकीय लाभ की बात करते हैं। इसे पाने के लिए हमारे युवाओं की गुणात्मक क्षमता सबसे महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय पुनरुत्थान के लिए मानव संसाधन को सही दिशा देने की खातिर शिक्षा और कौशल स्वाभाविक उपकरण हैं। पर हम सभी जानते वास्तविकता अपेक्षाओं से कोसों दूर है।
प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में निजीकरण का चलन बढ़ रहा है। शिक्षा की जिला सूचना प्रणाली (डीआईएसई) के 2012 के आंकड़ों से पता चलता है कि पहली से पांचवी तक के शहरी और ग्रामीण मिलाकर 29.8 प्रतिशत भारतीय बच्चे 2010-11 में निजी स्कूलों में पढ़ रहे थे। निजी शिक्षा के बढ़ते चलन की ओर संकेत करते हुए एएसईआर 2010 की रिपोर्ट में कहा गया है कि पहली से पांचवी कक्षा तक के 22.5 प्रतिशत ग्रामीण बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे थे। इसी तरह एसएसईआर 2012 की रिपोर्ट बताती है कि यह औसत 5.8 प्रतिशत की वृद्धि के साथ दो वर्षों में 28.39 प्रतिशत तक पहुंच गया। एक अनुमान के अनुसार 2014 तक अखिल भारतीय स्तर पर प्राथमिक आयु वर्ग के छात्र 41 प्रतिशत छात्र निजी स्कूलों में पढ़े और 2019 तक निजी क्षेत्र भारत वर्ष में पूरी तरह से औपचारिक शिक्षा देने वाला बन जाएगा।
उच्च शिक्षा क्षेत्र में स्वतंत्रता के बाद से विश्वविद्यालयों/ विश्वविद्यालय स्तर के संस्थानों और महाविद्यालयों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि दिखी। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 1950 में 20 विश्वविद्यालयों के साथ शुरुआत कर 2014 में 677 विश्वविद्यालयों की संख्या को छूने तक लगभग 34 गुना बढ़ोतरी हुई है। इसी तरह कॉलेजों की संख्या में भी 74 गुना वृद्धि हुई, जहां ये 1950 में कुल 500 थे वहीं 31 मार्च तक 2013 तक 37,204 हो गए। ठीक इसी दौरान निजी क्षेत्र के लिए खोले जाने के बाद 232 निजी विश्वविद्यालय बन गए। इसके साथ ही कई अन्य स्वायत्त गैर मान्यता प्राप्त निजी संस्थान भी हैं। इस रुझान ने शिक्षा को भारी कारोबार वाले धंधे में बदलकर रख दिया। कई अंतरराष्ट्रीय और निजी शैक्षिक कारोबारी मांग और पूर्ति का अंतर पाटने के नाम पर अधिक से अधिक लाभ कमाने की फिराक में हैं। सरकार बड़े पैमाने पर हो रही इस कमाई के नियमन के लिए कई उपाय भी कर रही है। ग्रामीण-शहरी और सार्वजनिक-निजी शिक्षा के बीच गुणवत्ता के मानक या पैमाने कैसे हैं यह सभी जानते हैं। इसका नतीजा यह कि भारत संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट 2015, जिसमें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक आसान पहुंच एक महत्वपूर्ण पैमाना है, 188 देशों की मानव विकास सूचकांक सूची में 130वें नंबर पर है। ब्रिक्स देशों में भारत रूस, ब्राजील और दक्षिणी अफ्रीका से पीछे है। वर्तमान सरकार ने पिछले दो वर्ष से शिक्षा के लिए संसाधनों के वितरण में बढ़ोतरी की है। बजट में देशभर में 1,500 बहुआयामी दक्षता प्रशिक्षण संस्थान खोलने के साथ ही ग्रामीण घरों के लिए डिजिटल साक्षरता कार्यक्रम शुरू पर जोर दिया गया है। उच्च शिक्षा के लिए 1,000 करोड़ रू. के कोष के साथ उच्च शिक्षा अनुदान एजेंसी (एचईएफए) की स्थापना भी स्वागतयोग्य कदम है। इसके बाद भी शिक्षा क्षेत्र में मौजूद खाई पाटने के लिए इन प्रयत्नों को और अधिक ताकत देना, आंबटन राशि बढ़ाना और सामाजिक प्रतिभागिता जरूरी है।
इस पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने प्रस्ताव पारित कर कहा कि सामान्य लोगों को सहज, सस्ती और गुणात्मक शिक्षा उपलब्ध कराई जानी चाहिए और समाज तथा सरकार दोनों को सभी वर्गों को शिक्षा देने का दायित्व निभाना चाहिए। निजी क्षेत्र की बुराइयों और आज के परिदृश्य में शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त व्यापारीकरण के संदर्भ में प्रस्ताव में सुझाव है कि सरकार को शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधनों का वितरण और समुचित नीतियों का निर्माण करना चाहिए।
शिक्षा को कम से कम खर्च में उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाना चाहिए। प्रतिनिधि सभा ने कहा कि हरेक बच्चे को मूल्य आधारित, राष्ट्रवादी, रोजगारपरक, कौशल आधारित शिक्षा समान अवसरों वाले वातावरण में मिलनी चाहिए। यदि शिक्षा क्षेत्र के सभी हितधारक इन प्रस्तावों को क्रियान्वित करने के लिए आगे आएं तो शिक्षा क्षेत्र पहले से अधिक सहभागिता के साथ भारत के परिवर्तन की गति तीव्र कर सकता है। ल्ल
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