|
हाल ही में हुए एक समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि विपक्ष उनकी सरकार को अस्थिर करने के लिए कुछ विदेशी मदद प्राप्त करने वाली गैर सरकारी संस्थाओं की मदद ले रहा है। वर्ष 2014 में हुए चुनावों में मिले जनादेश को देखते हुए इस आरोप से किसी को आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि इस चुनाव के नतीजों ने भारत में कइयों को उनके भविष्य और उनकी प्रासंगिकता के बारे में चिंतित कर दिया है। भारत में विदेशी एनजीओ मुख्यत: दो एजेंडों पर काम कर रहे हैं – पहला, सरकार के विकास के एजेंडे पर सवाल उठाना और दूसरा मूलभूत जरूरतों के लिए परेशान और सामाजिक भेदभाव के शिकार तबके को सुरक्षा का भरोसा दिलाकर उनका धर्मांतरण करना और उन्हें ईसाई बनाना।
पिछली सरकारों की तरह ही मोदी सरकार को भी इस बात की आशंका है कि पर्यावरण के प्रति अपनी चिंता के नाम पर एनजीओ सरकार की विकास योजनाओं को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं। पिछली सरकारों ने सार्वजनिक तौर पर अपना संदेह जाहिर तो किया लेकिन इस तरह के संगठनों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। उन्हें डर था कि इससे जनता उनसे नाराज हो जाएगी, साथ ही गठबंधन सहयोगी भी अलग हो सकते हैं।
मोदी सरकार पर इस बात के आरोप लगते रहे हैं कि वह कुछ कापार्ेरेट घरानों के पक्ष में काम कर रही है। मोदी जैसे ही अपने विकास के एजेंडे के साथ आगे बढ़ेंगे, विपक्ष अथवा एनजीओ के ये आरोप और तेज होते जाएंगे।
यहां यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि ये तमाम एनजीओ इस सरकार पर समाजवादी न होने और पूंजीवादी होने के आरोप क्यों लगा रहे हैं। क्या नया समाजवाद पूंजी के साथ समन्वित विकास नहीं है जैसा कि रूस और चीन में हो रहा है? इन दोनो देशों ने बिना किसी हिचक के पूंजीवाद को स्वीकार कर लिया है। भारत में गैर सरकारी संगठनों का अध्ययन करने से पता चलता है कि ये महत्वपूर्ण परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं। अब ये संगठन किसी एक विषय पर काम नहीं करते बल्कि मानवाधिकार, पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला और सूचना क्रांति जैसे विषयों पर भी सक्रिय रहते हैं।
उनकी सोच का पता तब भी चलता है जब वे विदेशों से प्राप्त रकम का ब्योरा देने से इनकार करते हैं। वे तो यह तर्क भी देते हैं कि सरकार को उनसे यह पूछने का नैतिक अधिकार नहीं है क्योंकि सरकार को भी नीतियों को प्रभावित करने वाले विभिन्न कार्यों के लिए विदेशों से राशि प्राप्त होती है।
भूमंडलीकरण के इस दौर में सरकार को ऐसे कई मुद्दों का सामना करना है और इन्हें संतोषजनक तरीके से सुलझाना भी है। हमें यह भी समझना होगा कि इस दौरान एनजीओ की ताकत और उनके संसाधन लगातार बढ़ रहे हैं। उनका दायरा और असर ऐसे वक्त आक्रामक रूप से बढ़ रहा है जब सरकारें, जिस के खिलाफ वे काम कर रहे हैं, समस्याओं से जूझ रही हैं।
सरकारी तंत्र मंजबूत करने के साथ-साथ मोदी सरकार को गैर सरकारी संगठनों की मंशा समझने के लिए इनके क्रियाकलापों, पैसा जुटाने के तरीकों और उनके संबंधों पर नजर रखनी होगी। किन्हें, कहां से और किस आधार पर फंड मिल रहा है? ज्यादातर एनजीओ दावा करते हैं कि वे सेवा करते हैं और सशक्तिकरण पर ध्यान देते हैं, इन दावों की सही तरीके से पड़ताल करनी होगी। क्या इन एनजीओ के दिलों में भी लोगों के लिए विकास और सशक्तिकरण को लेकर वैसी ही भावनाएं हैं जैसे वे दावे करते हैं? विदेशी मदद से जुड़े कानूनों के पालन का भी समुचित ध्यान रखा जाना आवश्यक है। विदेशी थिंक टैंक जो विचारों की असली प्रयोगशालाएं हैं; उनसे भी एजीओ और व्यक्तियों के संपकार्ें को बारीकी से देखना होगा।
अब यह बात साफ है कि बहुत-सी ताकतें ऐसी हैं जो भारत का विकास नहीं देखना चाहतीं, क्योंकि इस क्षेत्र में विशाल भू-क्षेत्र वाली चीन जैसी एक और बड़ी शक्ति का खड़ा होना उन्हें खटकता है। एक बात पर और ध्यान देना होगा कि विकास, मानवाधिकार और मिशनरी पर काम कर रहे एनजीओ किस तरह आपस में जुड़े हैं।
और अंत में देखना यह है कि भविष्य में कौन सफल होगा और शासन कैसे चलेगा? क्या सरकार स्वार्थी गैर सरकारी संगठनों और उनके बात-बात में अड़चनें खड़ी करने वाले अप्रिय मंसूबों के दबाब में आ जाएगी या फिर यह जनमत को साथ लेकर उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ेगी।
क्या सरकार कुछ गैर सरकारी संगठनों की गड़बड़ मंशाओं को मात देते हुए विकास की चुनौती उठा पाएगी, या हर योजना में सरकार का दानवी रूप उभारने वालों के दबाव में झुक जाएगी? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किस मार्ग को चुनते हैं, यह देखने वाली बात होगी। -भाग्यश्री पांडे
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)
टिप्पणियाँ