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इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति विष्णु सहाय आयोग की रिपोर्ट मुजफ्फरनगर दंगों पर उठे सवालों का तसल्लीबख्श जवाब देने में नाकाम रही है। जांच का सबसे अहम बिंदु यह था कि दंगा क्यों भड़का और कैसे हालात शासन-प्रशासन के नियंत्रण से बाहर हुए? यह बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट दंगे की जवाबदेही भी तय नहीं कर पाई। सभी को उम्मीद थी कि न्यायमूर्ति अपनी जांच में दंगे को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी करने का काम करेंगे, लेकिन ऐसी इच्छा रखने वालों को मायूसी ही हाथ लगी।
न्यायमूर्ति सहाय ने ढाई साल की लंबी अवधि में 775 पन्नों की रिपोर्ट तैयार करने में 377 सामान्यजन और 101 सरकारी गवाहों के बयानों का सहारा लिया। रिपोर्ट में सहाय राज्य सरकार की भूमिका पर पूरी तरह मौन साध गए। वे ऐसे सुझाव पर भी ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए, जिससे भविष्य में दंगों की पुनरावृत्ति रुक सके। न्यायमूर्ति विष्णु सहाय की रिपोर्ट में 7 सितंबर, 2013 को नंगला मंदौड़ पंचायत से लौटते लोगों पर एक साथ और एक ही तरीके से किए गए हमलों की साजिश का कोई खुलासा नहीं हुआ। इस दिन जबरदस्त कत्लेआम हुआ और 65 से ज्यादा बेकसूरों की जान गई। उसी दिन शाम को मुजफ्फरनगर में दंगा भड़क उठा था। जौली गंग नहर, पुरबालियान, जट मुझेड़ा, बहेड़ा सादात, मीरापुर एवं शेरनगर आदि स्थानों पर नंगला मंदौड़ पंचायत से ट्रैक्टर-ट्रालियों से लौटते लोगों पर एक साथ अचानक ताबड़तोड़ हमले हुए। इस पूरे घटनाक्रम में पुलिस प्रशासन लोगों की सुरक्षा करने में क्यों नाकाम हुआ, इसका भी सटीक उत्तर रिपोर्ट से नहीं मिला।
भारतीय जनता पार्टी के नेताओें सुरेश राणा एवं संगीत सोम, बिजनौर सांसद कुंवर भारतेंद्र सिंह एवं मुजफ्फरनगर के भाजपा सांसद डा़ॅ संजीव बालियान आदि को राज्य सरकार और पुलिस के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा था। लेकिन सहाय रिपोर्ट ने इन सबसे किनारा कर लिया। भाजपा ने इसकी जांच सीबीआई से कराने की मांग की है। वहीं विधायक सुरेश राणा एवं संगीत सोम ने प्रदेश के नगर विकास मंत्री और मुजफ्फरनगर के प्रभारी आजम खान की भूमिका को रिपोर्ट में नजरअंदाज करने पर हैरत जताई। भाजपा नेताओं का कहना है कि सहाय रिपोर्ट ने राज्य सरकार की कमियों पर सिर्फ पर्दा ही डाला है। इस रिपोर्ट से अपेक्षा थी कि वह एक समुदाय कोे मिले संरक्षण और जाटों को भड़काने वाले लोगों के चेहरे उजागर करेगी, पर ऐसा नहीं हुआ।
गौरतलब है कि 27 अगस्त, 2013 को कवाल के गांव मजरा मलिकपुरा की एक स्कूली छात्रा के साथ छेड़छाड़ करने वाले एक समुदाय विशेष के युवक शाहनवाज कुरैशी का विरोध करने वाले छात्रा के दो ममेरे भाइयों सचिन एवं गौरव मलिक की दौड़ा-दौड़ाकर सरेआम नृशंस हत्या कर दी गई थी। जैसे ही यह समाचार क्षेत्र में फैला, स्थिती बिगड़ती गई। सच तो यह है कि यह क्षेत्र अभी तक संदेह के माहौल से उबर नहीं पाया है। जांच आयोग इस सबकी भी कोई जवाबदेही तय करने में नाकाम रहा है। न्यायमूर्ति सहाय ने इस महत्वपूर्ण सवाल का जवाब तलाशने का काम भी नहीं किया कि 27 अगस्त को सचिन और गौरव की हत्या के संदेह में डीएम सुरेंद्र सिंह और एसएसपी मंजिल सैनी के निर्देश में पकडे़ गए 14 लोगों में से आठ को आखिर किसने छुड़वाने का काम किया? घटनाक्रम में शाहनवाज कुरैशी की हत्या हो गई जिसमें मृतक गौरव और सचिन के परिवार के सदस्यों की नामजदगी किसके इशारे पर और क्यों की गई? इस पर भी आयोग खामोश है।
कवाल प्रकरण के पूर्व तत्कालीन एडीजी कानून-व्यवस्था अरुण कुमार और बाद में डीजीपी देवराज नागर ने मुजफ्फरनगर का दौरा कर स्थिति का स्वयं आकलन किया था। ऐसे में मुजफ्फरनगर में हुई हिंसा की जांच की परिधि में आला अफसर भी आते थे। लेकिन सहाय ने अपनी रिपोर्ट में एसएसपी सुभाष चंद्र दुबे और एलआईयू इंस्पेक्टर प्रबल प्रताप सिंह पर उंगली उठाई है। आयोग ने प्रदेश के तत्कालीन प्रमुख गृह सचिव आरएम श्रीवास्तव, तत्कालीन पुलिस उपाधीक्षक जानसठ जगत राम जोशी और जिलाधिकारी कौशलराज शर्मा को भी दंगों के लिए उत्तरादायी माना है।
गौर करने लायक बात यह है कि दंगों की आंच में झुलसने वाले ज्यादातर अफसर वर्तमान में पहले से ऊंचे और महत्वूपर्ण पदों पर तैनात हैं। कौशलराज शर्मा इन दिनों कानपुर नगर में जिलाधिकारी पद पर तैनात हैं जबकि मंजिल सैनी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के गृह जनपद इटावा की एसएसपी हैं। एलआईयू इंस्पेक्टर प्रबल प्रताप सिंह अभी मुजफ्फरनगर में ही तैनात हैं। ल्ल सुरेंद्र सिंघल
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