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सर चंद्रशेखर वेंकटरमन
7 नवंबर,1888-21 नवंबर, 1970
भारत के चुनिंदा नोबेल पुरस्कार विजेताओं में एक, प्रख्यात भौतिकीविद् सी.वी. रमन की विलक्षण प्रतिभा का सानी न था। उन्होंने केवल 18 वर्ष की आयु में विवि तक की शिक्षा पूरी कर ली। वित्त विभाग में सहायक एकाउंटेंट जनरल का पद संभाल रहे व्यक्ति से भौतिक वैज्ञानिक शोध की अपेक्षा नहीं की जा सकती पर 'रमन के जनक ने इसे झुठला दियाप्रभाव'
तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में जन्मे रमन ने स्कूली शिक्षा के बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज में बी.ए. में प्रवेश लिया। एम.ए. भी उन्होंने यहींं से किया। वे कैंब्रिज विवि. की 'एम.आर.लेबोरेट्रीज ऑफ मोलीक्यूलर बायोलॉजी' के स्ट्रक्चरल स्टडीज विभाग के प्रमुख वैज्ञानिक रहे।
महत्वपूर्ण योगदान
फोटोन्स में ऊर्जा की कुछ कमी और इसके परिणाम स्वरूप स्पेक्ट्रम में कुछ असाधारण रेखाएं होना 'रमन इफेक्ट' या रमन प्रभाव कहलाता है। फोटोन्स द्वारा खोई ऊर्जा की मात्रा उस द्रव रसायन के अणु के बारे में सूचना देती है जो उन्हें छितराते हैं। यह अन्वेषण और आविष्कार पदार्थों की आणविक संरचना समझने में सहायक होता है।
रमन प्रभाव महत्वपूर्ण एवं उपयोगी आविष्कार है। रमन प्रभाव, जिसका सिद्धांत क्वांटम विचार से काफी मिलता है, भविष्य में पदार्थों के अणुओं की संरचना के बारे में जानकारी देगा।
-नील्स बोहर, पाश्चात्य भौतिक वैज्ञानिक
उपयोग
'रमन प्रभाव' की खोज की वजह से पदार्थों में अणुओं और परमाणुओं की आतंरिक संरचना का अध्ययन किया जाता है।
थ्योरी ऑफ क्रिस्टल्स का सिद्धांत आज विज्ञान क्षेत्र में प्रयोग किया जाता है।
रमन प्रभाव से अणुओं की अभिलाक्षणिक आवृत्तियों के बारे में पता चलता है। इससे वर्णक्रम के अवरक्त क्षेत्र में स्थित आवृत्तियों को मापा जाता है।
विज्ञान को लोकप्रिय बनाने तथा लोगों में वैज्ञानिक अभिरुचि को विकसित और पोषित करने के लिए विज्ञान में आम लोगों की जागरूकता को बढ़ाया जाना निश्चित ही श्रेयस्कर होगा।
प्राय: इन्हीं उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए यह निर्णय लिया गया है कि अन्य अनेक महत्वपूर्ण दिवसों की भांति ही विज्ञान दिवस भी मनाया जाए। राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में 28 फरवरी का दिन इसीलिए नियत किया है क्योंकि 28 फरवरी, 1928 को ही महान भारतीय वैज्ञानिक सर चंद्रशेखर वेंकटरमन ने विश्वविख्यात रमन प्रभाव की खोज की थी। सर रमन की इस खोज पर उनको 1930 में दुनिया का सर्वश्रेष्ठ नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था।
सर रमन ने अपने प्रयोगों में पता लगाया कि सामान्यत: जब प्रकाश की किरणें किसी पारदर्शी पदार्थ में से गुजरती हैं तब पदार्थ कुछ प्रकाश ऊर्जा अवशोषित कर लेता है, जो पारदर्शी पदार्थ के अणुओं की कंपन ऊर्जा से संबंधित होती है। उन्होंने यह भी पाया कि पदार्थ में प्रवेश करने वाले प्रकाश की कंपन आवृत्ति में अंतर होता है। यह अंतर पदार्थ के अणुओं की कंपन आवृत्ति से संबंधित होता है। इस प्रकार हम प्रवेश करने वाले प्रकाश और बाहर निकलने वाले प्रकाश की कंपन आवृत्तियों को माप कर पदार्थ के अणुओं का कंपन ज्ञात कर सकते हैं और यह पदार्थ की आणविक संरचना ज्ञात करने की बहुत सरल विधि है।
रमन प्रभाव की मदद से किसी पारदर्शी पदार्थ की आणविक संरचना ज्ञात करने के लिए एक ही तरंगदैर्घ्य का प्रकाश लिया जाता है। उसे पारदर्शी पदार्थ में से गुजारने पर जो वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) प्राप्त होता है, उसमें दो विशेष रेखाएं भी मिलती हैं। ये रेखाएं वर्णक्रम की तुलना में बहुत क्षीण होती हैं। इनमें से एक रेखा 'स्ट्रोक' और दूसरी 'एण्टी स्ट्रोक' कहलाती है। वर्णक्रम में इनकी दूरी तरंग-संख्या पर आधारित होती है।
यहां तरंग संख्या को समझना जरूरी होगा क्योंकि यह उस पदार्थ विशेष पर निर्भर होती है जिसमें से प्रकाश गुजरता है और जो हर पदार्थ के लिए अलग-अलग होती है। यह कंपनों की दर प्रति सेकेंड में दर्शाती है। इसमें उस पदार्थ के, जिसमें से प्रकाश गुजरता है, अणुओं के कंपन की आवृत्ति ज्ञात हो जाती है और उसकी आणविक संरचना भी। रमन ने अपने प्रयोग बहुत सरल और आसानी से बनाये जा सकने वाले उपकरणों के साथ किए थे जो आज भी 'इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन आफ साइंस', कोलकाता में सुरक्षित हैं।
रमन के प्रयोगों के निष्कर्ष पहले 'नेचर' पत्रिका में प्रकाशित हुए और बाद में 'इंडियन जर्नल ऑफ फिजिक्स' में। इनके प्रकाशित होते ही तहलका मच गया। लार्ड रदरफर्ड, जिन्हें नाभिकीय भौतिकी का जनक माना जाता है, ने 1930 में कहा था कि रमन प्रभाव के रूप में अब हमें ऐसी युक्ति मिल गई है जो ठोस, द्रव और गैसों की संरचना ज्ञात करने में बहुत सहायक होगी।
समझा जाता है कि रमन प्रभाव और उसके उपयोगों पर अब तक 6,000 से भी अधिक शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। 1930 के बाद लेजर किरणों की खोज के बाद रमन प्रभाव क्षेत्र अधिक व्यापक हो गया है। इसकी मदद से विभिन्न पदार्थों की आणविक संरचना आसानी से ज्ञात की जा सकती है। अब इसका प्रयोग विविध क्षेत्रों में किया जा रहा है।
रमन का आत्मविश्वास कितना यथार्थपरक था, इसका अंदाजा एक घटना से लगाया जा सकता है। 1920 के आसपास की बात है, रमन ने श्री घनश्यामदास बिरला को एक पत्र में लिखा, ''यदि आप मुझे 22,000 रुपए दें तो मैं अपनी खेाज के लिए एक यंत्र आयात
कर सकूंगा। मुझे आशा है कि मेरी इस
खोज पर नोबेल पुरस्कार मिल सकता है।'' और बिरलाजी ने रमन के नाम चेक भेज दिया और तब वास्तव में रमन को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
यद्यपि बचपन से ही रमन ने वैज्ञानिक बनने के लक्षण प्रकट कर दिए थे, पर उस समय का माहौल ऐसा था कि लोग अपने बच्चों को वैज्ञानिक की अपेक्षा उच्च प्रशासनिक अधिकारी बनाना ही पसंद करते थे, इसलिए इंटरमीडिएट में उन्हें विज्ञान-विषय छोड़ने पड़े थे। पर उनका विज्ञान-प्रेम तो जन्मजात था। स्नातक में उन्होंने पुन: विज्ञान-विषय ले लिए और भौतिकी में स्वर्णपदक प्राप्त किया।
विद्यार्थी काल में ही उनके शोध पत्र लंदन की फिलॉसाफिकल मैगजीन में छपे। शिक्षोपरांत उन्होंने वित्त विभाग में पद संभाला। कलकत्ता के वित्त विभाग में सहायक एकाउंटेंट जनरल होने के बावजूद उनकी रुचि भौतिक विज्ञान में ही थी। उनकी यह रुचि इतनी गहरी थी कि उन्हें स्थान व समय का भी ध्यान नहीं रहता था। उनकी इस रुचि से संबंधित एक रोचक घटना भी है कि एक दिन वे ट्राम से कहीं जा रहे थे। अचानक उन्होंने देखा कि सामने 'इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस' का साइन बोर्ड लगा है। यह साइनबोर्ड देखते ही वे वहां जाने को आतुर हो गए और ट्राम के ड्राइवर से ट्राम रोकने के लिए कहने लगे। ड्राइवर ने कहा कि ट्राम अपने स्टेशन पर रुकेगी। इस पर रमन साहब ट्राम से कूदने लगे, आखिरकार ड्राइवर को मजबूरन ट्राम रोकनी पड़ी।
वे उस संस्था से जुड़े और दिनभर वित्त विभाग की नौकरी करने के बाद शाम को वहां जाकर भौतिक विज्ञान संबंधी शोधकार्य करते। सीमित सुविधाओं के बावजूद उन्होंने 'नेचर', 'द फिलोसोफिकल मैगजीन', 'फिनिक्स रिव्यू' जैसी अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में अपने लगभग 30 मौलिक शोध पत्र प्रकाशित किए। बाद में उनके द्वारा प्रकाशित कुल शोधपत्रों की संख्या 475 हो गई, साथ ही 5 उत्कृष्ट मोनोग्राफ भी प्रकाशित हुए।
अंत में वित्त विभाग की सेवा छोड़कर कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन वाइस चांसलर सर आशुतोष मुखर्जी के आमंत्रण पर उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के भौतिक विभाग में सर तारकनाथ मानद प्रोफेसर का पद 1917 में ग्रहण किया। रमन साहब को 15 मई, 1924 को रॉयल सोसाइटी का फेलो चुना गया था। किंतु कुछ विवादों के चलते 1968 में उन्होंने इस पद से त्यागपत्र दे दिया। वे 'इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस' के सचिव भी चुने गए।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में रमन ने प्रकाश संबंधी अन्य प्रयोग किए थे। 1912 में रमन कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में आयोजित विश्वविद्यालय सम्मेलन में भाग लेने के लिए जहाज से यात्रा कर रहे थे। एक दिन जहाज के डेक पर खड़े वे भूमध्यसागर के जल को निरंतर निहार रहे थे कि अचानक उनके मस्तिष्क में एक ऐसे प्रयोग की रूपरेखा स्पष्ट हो गई जिसमें उन्हें प्रकाश की प्रकृति के रहस्य ज्ञात हो गए। और जो सिद्धांत उभर कर सामने आया, वह रमन प्रभाव के नाम से दुनिया में प्रसिद्ध हुआ।
अपने प्रयोगों के दौरान जिन फोटोग्राफिक प्लेटों को अंकित करने के लिए रमन को 30-40 घंटों का एक्सपोजर देना पड़ा था वे आज कुछ ही मिनटों में उद्भासित हो जाते हैं। आज संसार में विभिन्न प्रयोगों के निष्कर्षों के रूप में प्रति महीने 1,000 से भी ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित होते हैं। उन्होंने बंंगलुरू में रमन इंस्टीट्यूट की स्थापना की और अंत तक वहीं कार्य किया।
सर चंद्रशेखर वेंकटरमन का जन्म 7 नवंबर, 1888 को तिरुचिरापल्ली में हुआ था। उन्हें भौतिकी विषय से बहुत अधिक लगाव था। यही कारण है कि उन्होंने प्रकाश विकिरण/विवर्तन की खोज की जिसे उन्होंने 'रमन प्रभाव' का नाम दिया। उनकी इस खोज के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा 1954 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
रमन का शोधकार्य विशेष रूप से ध्वनि और कंपन पर केन्द्रित रहा। उन्होंने इकतारा, वायलिन, तंबूरा, वीणा, मृदंगम और तबला आदि कई वाद्य यंत्रों का बारीक अध्ययन किया और वायलिन पर अपने विस्तृत अध्ययन के आधार पर एक शोध प्रबंध प्रकाशित किया। 21 नवंबर, 1970 को उन्होंने अंतिम सांस ली।
डॉ. मनोज कुमार पटैरियाि
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