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पश्चिम का कैलेंडर नया है, फिर भी हम 21वीं सदी के डेढ़ दशक का सफर पूरा कर चुके हैं। इस आंग्ल नववर्ष, 2016 में यही संकल्प लें कि कैसे हम अपने जीवन को सफल, समर्थ व सार्थक बनाए। परमात्मा ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में जिन विशेषताओं से हम सभी को सुशोभित किया है, उसका प्रत्येक पक्ष अपने आप में अद्भुत व विलक्षण है। किंतु इन उम्मीदों को साकार करने में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। आज हम सभी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है प्रकृति व प्रवृत्ति में बढ़ रहे अंधाधुंध प्रदूषण को रोकना। प्रकृति में बढ़ते प्रदूषण ने ही भूकंप, बाढ़ जैसी विनाशकारी आपदाओं के भयावह दृश्य खड़े किये हैं। दिल दहला देने वाली इन महाआपदाओं से उपजी करुण कराह को आखिर कौन अनसुना कर सकता है। यही नहीं, इससे भी ज्यादा तबाही मनुष्य की प्रवृत्तियों में आये प्रदूषण से हुई है। यह इंसान की अपनी ही दूषित प्रवृत्तियां हैं, जो आये दिन नरसंहार, सामूहिक बलात्कार व अन्य आतंकी घटनाओं के खौफनाक मंजर समाज के सामने रखती हंै। आज इंसानियत का सबसे ज्यादा संघर्ष इन्हीं कुप्रवृत्तियों से है।
जरा विचार कीजिए! क्या यह वही पवित्र भारतभूमि है, जिसकी अमूल्य चिंतनधारा का शंखनाद युगद्रष्टा स्वामी विवेकानंद ने समूची दुनिया में किया था तथा जिस भारतमाता को विदेशी दासता के चंगुल से निकालने के लिए अनेकानेक राष्टÑ बलिदानियों ने अपने प्राण तक हंसते-हंसते दे दिए थे। संभवत: हमने कुछ दशकों में अपने उस गौरवशाली अतीत को विस्मृत किया है। राष्टÑ के गौरव स्वामी विवेकानंद से जुड़ा एक भावभरा संस्मरण, जो उनके जीवन के उत्तरार्ध में बेलूर मठ प्रवास के दौरान का है। स्वामी जी बेलूर मठ में गंगातट पर टहल रहे थे। सूर्योदय हो रहा था, भुवन भास्कर की मोहक छवि गंगाजल में उतर रही थी। सूर्य की उदयकालीन रश्मियां गंगा की लहरों के साथ मिलकर अठखेलियां कर रही थीं। उनकी आत्मचेतना सर्वदा ब्रह्मभाव में विचरण किया करती थी। सुबह वे ब्रह्ममुहूर्त में सूर्योदय से पहले ही गंगातट पर आ गये थे। उदयकालीन सूर्य उनके उज्ज्वल मुखमंडल को और भी अधिक प्रकाशित कर रहा था। उस समय उनकी अलौकिक-आध्यात्मिक आभा कुछ ऐसी थी, मानो ब्रह्मांड में एक साथ दो सूर्य उदय हुए हों। एक गगन में और एक धरती पर। इस दौरान वे ‘निर्वाण शतक’ की इन पंक्तियों को गुनगुना रहे थे-
ऊं मनोबुद्धयहंकार चित्तानि नाऽहं
न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योमभूमी न तेजो न वायु:
चिदानन्दरूप: शिवोऽहं शिवोऽहं॥
‘मैं न तो मन-बुद्धि हूं और न ही अहंकार और न ही चित्त। न मैं कर्ण-जिह्वा हूं और न नासिका और नेत्र। न तो आकाश-पृथ्वी हूं, न अग्नि और वायु। मैं तो सच्चिदानंद स्वरूप शिव हूं, शिव हूं।’
एक शीतभरी प्रात: का उन्हें स्मरण था भी या नहीं किन्तु उनके गुरुभाइयों एवं मठ के साधु-ब्रह्मचारियों को अवश्य था। उन सभी के लिए यह पावन तिथि यानी 12 जनवरी बेहद महत्वपूर्ण थी। हो भी क्यों न! आखिर इसी दिन उन सभी के अनन्य, आत्मीय और विश्ववंद्य युगाचार्य स्वामी विवेकानंद जी का धरा पर अवतरण जो हुआ था। हालांकि इस विश्वविख्यात नाम से उन्हें मठ में कोई भी संबोधित नहीं करता था। उनके सभी गुरु भाई प्राय: उन्हें ‘नरेन’ कहते थे और मठ के अन्य साधु-संन्यासी ‘स्वामी जी।’
प्रात:काल के उन क्षणों में मठ के एक ब्रह्मचारी ने जब उन्हें गंगातट पर टहलते देखा तो उसका अन्तर्मन हर्ष से भर उठा। क्योंकि बीते कई दिनों से खराब स्वास्थ्य के चलते वे अपने कक्ष से बाहर तक नहीं निकले थे। उसने झटपट यह शुभ समाचार महाराज यानी स्वामी ब्रह्मानंद को जाकर बताया। महाराज मठ के अध्यक्ष थे। यह समाचार सुनकर वे भी खुशी से झूम उठे और आनन्दित स्वर में बोले,‘तुम जल्दी जाकर शरत व शशी को बुला लो और हां! बाबूराम महाराज और महापुरुष दा यानी स्वामी शिवानंद को भी कहना न भूलना।’
ये सभी लोग जो, स्वामी जी के गुरुभ्राता व श्री रामकृष्ण परमहंस के प्रमुख संन्यासी शिष्यों में शुमार थे। ब्रह्मचारी से यह सूचना मिलने पर जल्द ही महाराज के कक्ष के पास आ गये और साथ मिलकर उस ओर चल पड़े, जहां गंगातट पर स्वामी जी टहल रहे थे। दूर से उन्हें टहलते हुए देखकर महाराज ने कहा,‘स्वामी जी को इस तरह टहलते हुए स्वस्थ-प्रसन्न देखकर बड़ा आनंद हो रहा है।’ इस पर शरत महाराज ने कहा, ‘श्री श्री ठाकुर उन पर कृपा करें कि हम सबके साथ वे दीर्घकाल तक इसी तरह स्वस्थ होकर साथ बने रहें।’ वे सभी कुछ इसी तरह परस्पर बातें करते हुए आगे बढ़ रहे थे, तभी स्वामी जी की दृष्टि उन पर जा पड़ी। उनकी भावलीन चेतना बहिर्मुखी हुई और वह उन सबको देखकर प्रश्नवाचक दृष्टि से मुस्कराए। प्रत्युत्तर में वे सभी साथ बोल उठे,‘बस तुम्हारे सान्निध्य की चाहत हम सबको इधर खींच लाई।’ उनके ऐसा कहने पर स्वामी जी ने हंसते हुए कहा,‘चलो अच्छा हुआ। आओ, अब हम सब लोग मिलकर गंगातट पर बैठते हैं।’ यह कहकर वे सबको साथ लेकर गंगातट पर बैठने का उपक्रम करने लगे। शशि महाराज ने आसन वहां पर बिछाने की चेष्टा की, तो उन्होंने उन्हें यह कहते हुए रोक दिया,‘अरे क्या करते हो शशि! हम सब भूमि पर ही बैठेंगे। गंगा के रज-कण हमें पावन बनाएंगे।’ यह कहते हुए उनकी आंखों में सहज ही भक्ति की तरलता तैरने लगी किन्तु स्वयं को नियंत्रित करते हुए उन्होंने अपने गुरुभाइयों की ओर देखते हुए कहा, ‘राखाल बीती रात्रि हमें दिव्य दर्शन हुआ। इस दिव्यदर्शन में हमने अपने देश भारत के अभ्युदय को देखा। भारत के समुज्ज्वल भविष्य का साक्षात्कार किया। इस दिव्यदर्शन में हमने प्रत्यक्ष अनुभव किया कि घोर अंधकार की महानिशा अब शीघ्र ही समाप्त होने वाली है। महादु:ख का अंत अब जल्द ही दूर होगा, ऐसा प्रतीत होता है। सुदूर अतीत से एक गंभीर स्वर हमारे पास आ रहा है।…मंैने स्वप्न में देखा कि हमारी मातृभूमि भारत के सिरमौर अनंत हिमालय की प्रत्येक शिखर से प्रतिध्वनित होकर यह आवाज मृदु, दृढ़, परंतु अभ्रांत स्वर में निरन्तर हमारे पास तक आ रही है। ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है, वह स्वर उतना ही स्पष्ट तथा गंभीर होने लगता है।़.़.. निद्रित भारत अब जागने लगा है। हिमालय की गहन प्राणवायु के स्पर्श से मानो मृतदेहों के सदृश शिथिल पड़े अस्थि-मांस, पिंजरों में पुन: नव प्राणों का संचार होने लगा है। जड़ता धीरे-धीरे दूर होती जा रही है। जो आंखों से नहीं, अपितु मन के अंधे हैं, सिर्फ वे ही इस सुखद परिवर्तन को देख नहीं सकते और जो विकृत बुद्धि के हैं, सिर्फ वे ही इसे समझ नहीं सकते कि हमारी मातृभूमि अब जाग रही है। अब यह फिर से सो नहीं सकती। कोई बाह्यशक्ति अब इसे दबा नहीं सकती। अब अधिक समय तक कोई भी इसे दासता की बेड़ियों में कैद नहीं रख सकता।’
अपना यह दिव्य स्वप्न सुनाकर वह थोड़ी देर के लिए मौन हो गये। फिर अपने मित्रों-सहयोगियों से कहने लगे, ‘प्राचीनकाल में बहुत-सी चीजें अच्छी थीं, लेकिन कई बुरी भी। हमें अपने अतीत की उत्तम वस्तुओं की रक्षा करनी होगी और निरर्थक चीजों का त्याग। हमारे भविष्य का भारत प्राचीन भारत से कहीं अधिक महान व विकसित होगा। हमारा अतीत निश्चित रूप से गौरवपूर्ण था, परंतु मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमारा भविष्य और भी अधिक गौरवमय होगा।’ स्वामी जी जब ये बातें कह रहे थे, तब उनकी मुखमुद्रा अद्भुत प्रतीत हो रही थी और दृष्टि अपूर्व। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि मानो पुरातन वैदिक युग का कोई महान तत्वदर्शी व मंत्रद्रष्टा ऋषि हिमालय से उतरकर बेलूर मठ में गंगातट पर अपने हृदयोद्गारों को वाणी दे रहा हो। स्वामी जी अभी और कुछ कहने वाले थे कि तभी बेलूर मठ के उस गंगाघाट पर एक नाव आकर रुकी। नाव से गिरीशचंद्र घोष, शरदचंद्र चक्रवर्ती और भगिनी निवेदिता उतरीं। उन्हें देखकर स्वामी जी ने हर्षित स्वर में कहा,‘अरे देखो!
ये लोग भी आ गये।’ शरदचंद्र चक्रवर्ती व भगिनी निवेदिता ने उन्हें प्रणाम किया। गिरीशचंद्र घोष ने उन्हें गले से लगाकर बधाई देते हुए कहा, ‘तुम सब को याद तो है न आज की तारीख। आज 12 जनवरी है यानी नरेन का जन्मदिन।’ उनके इस कथन पर स्वामी जी हंसते हुए बोले,‘किसी को कुछ याद हो अथवा न हो, अपने जीसी (गिरीशचंद्र घोष) को सब कुछ याद रहता है।’ यह सुन सभी भावविभोर हो मुस्कुरा दिये। सचमुच भारत ही स्वामी जी का महानतम भाव था। भारत ही उनके हृदय में धड़कता था और भारत ही उनकी धमनियों में प्रवाहित होता था। भारत का उज्ज्वल भविष्य ही उनका दिव्य स्वप्न था और भारत ही उनकी सोच। पूनम नेगी
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