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जब देश में राजनीतिक विरासत की बात पर बहस होती है तो एक अजीब धारणा दिखती है। राजनीतिक दल विशेषकर कांग्रेस जिसने देश पर आजादी के 68 वर्षों में लगभग 60 वर्ष तक राज किया। यह पार्टी ऐसा सोचती है मानो कुछ नेता इनकी व्यक्तिगत संपत्ति हैं और किसी को भी उनको आंकने और देश के लिए उनके योगदान का मूल्यांकन करने का अधिकार नहीं है। कुछ नेता जैसे जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और अटल बिहारी वाजपेयी- ये सभी न तो दल विशेष की संपत्ति हैं और न ही कुछ विशेष लोगों के समूह के नेता। ये सभी राष्टÑीय नायक हैं और देश को अधिकार है कि इनके योगदान का अच्छी तरह से मूल्यांकन करें। क्योंकि जिन राजनीतिक दलों से ये जुड़े रहे इनका कार्य और प्रभाव उनसे ज्यादा बड़ा रहा।
हाल ही में प्रकाशित कांग्रेस के मुखपत्र के एक लेख पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी सहित अनेक कांग्रेसी नेताओं की प्रतिक्रिया से किसी को भी दु:ख हो सकता है कि कैसे एक बड़े कद के राष्टÑीय नेता की और आधुनिक भारत के निर्माता माने जाने वाले व्यक्ति का कद कम कर दिया जाता है। उन्हें केवल एक पार्टी के नेता या नेहरू घराने का प्रमुख प्रतीक मात्र सिद्ध किया जाता है। अब हम उन कुछ प्रमुख बिन्दुओं को देखते हैं जो कांग्रेस के मुखपत्र में प्रकाशित हुए हैं। दस्तावेजों की पड़ताल के आधार पर देखते हैं ऐतिहासिक रूप से ये कितने सही हैं। इस लेख के एक टुकड़ें में बहुत ही प्रासंगिक वक्तव्य है जिसमें यह कहा गया है- ‘बेशक सरदार वल्लभभाई पटेल को उपप्रधानमंत्री-गृहमंत्री का पद दिया गया था लेकिन उन दोनों के आपसी संबंध ठीक नहीं रहे।’ वक्तव्य से यह भाव प्रकट होता है कि नेहरू और कांग्रेस ने ऐसा किया था। यह यदि सच्चाई से दूर है तो इसको खंगालने की जरूरत है।
प्रथम प्रधानमंत्री
जब द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्ति की ओर था तो यह स्पष्ट होने लगा था कि अब भारत की आजादी ज्यादा दूर नहीं है। यह भी बहुत स्पष्ट था कि केन्द्र में कांग्रेस अध्यक्ष को अंतरिम सरकार के गठन के लिए आमंत्रित किया जाएगा। गांधीजी ने 20 अप्रैल 1946 को ही नेहरू को अपनी विशेष पसंद घोषित कर दिया था, जबकि कांग्रेस पार्टी सरदार वल्लभभाई पटेल को अध्यक्ष के रूप में और उसके बाद स्वाभाविक रूप से देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में लाना चाहती थी, क्योंकि पार्टी पहले से ही सरदार पटेल को एक कुशल प्रशासक, संगठनकर्ता और नेता मानती थी। 29 अप्रैल 1946 को कांग्रेस अध्यक्ष के और उसी क्रम में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के पद हेतु नामांकन की अंतिम तिथि थी। 15 प्रदेश कांग्रेस समितियों में से 12 ने सरदार वल्लभभाई पटेल को नामांकित किया, शेष 3 नामांकन प्रक्रिया से अनुपस्थित रहे। इस प्रकार 29 अप्रैल 1946 को नामांकन भरने के अंतिम दिन तक भी किसी एक प्रदेश कांग्रेस समिति ने भी पं. जवाहरलाल नेहरू के नाम की संस्तुति नहीं की थी। बेशक पं. नेहरू का नाम औपचारिक रूप से कुछ कार्यसमिति सदस्यों द्वारा प्रस्तावित किया गया जो किसी भी प्रकार की निर्वाचन प्रक्रिया का हिस्सा नहीं थे।
जब यह बात हो गयी तो सरदार पटेल को मनाने और पं. जवाहरलाल नेहरू के पक्ष में नामांकन वापस लेने के प्रयास शुरू हो गए। पटेल इस मामले में महात्मा गांधी की सलाह चाहते थे जिन्होंने उनके पूछने पर यही करने को कहा। वल्लभभाई ने एक बार में ही वह कर दिया। लेकिन यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि सरदार पटेल को नाम वापस लेने की सलाह से पूर्व गांधीजी ने नेहरू को सरदार पटेल के पक्ष में हटने की बहुत सलाह दी। गांधीजी ने नेहरू से कहा- ‘प्रदेश कांग्रेस समितियों ने आपका नाम आगे नहीं बढ़ाया है, केवल कार्य समिति के कुछ सदस्यों ने ऐसा किया है।’ गांधीजी की इस टिप्पणी पर जवाहरलाल नेहरू ‘पूरी तरह मौन’ रहे। गांधीजी को एक बार यह सूचित कर दिया गया था कि ‘जवाहरलाल नेहरू दूसरा स्थान नहीं लेंगे।’ उन्होंने सरदार पटेल को अपना नाम वापस करने के लिए कहा। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इस प्रसंग पर कहा- ‘क्या एक बार फिर विश्वस्त सेनापति को ‘आकर्षक नेहरू के लिए बलि किया जाएगा।’ और आगे वे इस बात के लिए भी आशंकित रहेंगे कि ‘नेहरू अंग्रेजों के रास्ते पर चलेंगे।’ गांधी जी ने यह निर्णय इसलिए लिया क्योंकि वह इस बात के लिए आश्वस्त थे कि जवाहरलाल नेहरू कभी भी दूसरा स्थान नहीं लेंगे लेकिन उनको पहला स्थान देकर देश पटेल की सेवाओं को कमतर नहीं आंकेगा और ये दोनों सारथी सरकार की गाड़ी को आगे लेकर जाएंगे। दोनों को एक दूसरे की जरूरत पड़ेगी और दोनों गाड़ी को साथ लेकर बढ़ेंगे।
इसी प्रकार मौलाना अबुल कलाम आजाद जो हमेशा जवाहरलाल नेहरू के खास दोस्त और विश्वसनीय रहे, उन्होंने 26 अप्रैल 1946 को एक वक्तव्य जारी किया जिसमें नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में चुनने का आह्वान किया गया था। यह उनकी आत्मकथा में लिखा हुआ है जो 1959 में उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई-
‘समर्थक और विरोधी’ इन दो पाटों के बीच मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि विद्यमान परिस्थितियों में सरदार पटेल का चयन ठीक नहीं होगा। सभी तथ्यों पर विचार करने के बाद मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि पं. जवाहरलाल नेहरू को नया अध्यक्ष होना चाहिए…। मैंने अपने विवेक के अनुसार कार्य किया लेकिन जिस प्रकार धीरे-धीरे चीजों ने आकार ग्रहण किया। उन्होंने मुझे यह महसूस करवा दिया कि शायद मेरे राजनीतिक जीवन की ये सबसे बड़ी भूल थी। मैं इस बात से दु:खी हूं कि कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के नामांकन वापसी के निर्णय में मैं कुछ नहीं कर पाया। यह एक ऐसी गलती थी जिसे यदि मैं महात्मा गांधी के शब्दों में कहूं तो यह एक प्रकार से ‘हिमालयी आयाम’ कहा जा सकता है।’ राजगोपालाचारी प्रसंग पर नजर दौड़ायें तो वे सरदार पटेल से नाराज, दु:खी और अविश्वास से भरे थे। क्यों राजाजी को लगता था कि सरदार पटेल द्वारा उनके कार्य और सेवा को दरकिनार करते हुए उन्हें देश का पहला राष्टÑपति बनने से रोक दिया गया था। सरदार पटेल की मृत्यु के 22 वर्ष बाद राजगोपालाचारी ने लिखा- ‘जब भारत की आजादी हमारे बहुत नजदीक आ रही थी तो गांधीजी हमारे मौन सूत्रधार थे। वे इस निर्णय पर पहुंच चुके थे कि जवाहरलाल जो हम कांग्रेस के नेताओं में विदेशी मामलों में सबसे ज्यादा समझ रखने वाले हैं उन्हें ही भारत का प्रधानमंत्री बनना चाहिए। बेशक वे यह भी जानते थे कि उन सब में वल्लभभाई सबसे श्रेष्ठ प्रशासक हैं। नि:संदेह यह ज्यादा बेहतर होता यदि पं. नेहरू को विदेश मंत्री बनने के लिए कहा जाता और सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाता। मैं भी यह महसूस करता हूं कि यह विश्वास करना कि नेहरू दोनों व्यक्तियों में ज्यादा प्रभावी थे अनुचित होगा। पटेल के बारे में एक मिथक खड़ा किया गया कि वे मुसलमानों के बारे में बहुत कड़क हैं। यह एक गलत व्याख्या थी लेकिन एक पूर्वाग्रह को जोर से प्रचारित कर दिया गया।’ इस प्रकार केवल इस देश के लोग ही नहीं बल्कि कांग्रेस के वे महान नेता भी जो नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने के समर्थक थे, उन्होंने बाद में अपने किये हुए फैसले पर पश्चाताप किया।
अनुच्छेद 370 और कश्मीर
कश्मीर के संदर्भ में यह अनुच्छेद कहता है कि गृहमंत्री यद्यपि सरदार पटेल थे लेकिन नेहरू ने कश्मीर संबंधी मामले अपने पास रखे। यह सच नहीं है। कश्मीर मामला सरदार पटेल के पास ही था। यह उनसे तब ले लिया गया जब नेहरू को लगा कि पटेल के हस्तक्षेप के चलते वह अपनी मनमानी नहीं कर पाएंगे। ‘देश के संविधान निर्माण की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में थी। कश्मीर के क्षेत्र से जुड़े भाग का प्रभारी गोपालस्वामी को बनाया गया था। जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, गोपाल स्वामी, डॉ. आंबेडकर, जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह, शेख अब्दुला और उनके तीन सहयोगियों की सहभागिता में आखिर में एक प्रस्ताव पर सहमति बनी। इसे गठित विधानसभा और कांग्रेस पार्टी ने भी संस्तुति प्रदान की। कश्मीर संबंधित अनुच्छेद इस प्रस्ताव के साथ अनुच्छेद 306ए के रूप में जाना जाता है। लेकिन शेख अब्दुल्ला और उनके दल ने श्रीनगर में वापस लौटने पर इसका विरोध शुरू कर दिया। शेख अब्दुल्ला को पं. नेहरू का संरक्षण प्राप्त था। शायद वे नेहरू ही थे जिन्होंने शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर क्षेत्र को विशेष दर्जा देने के लिए डॉ. आंबेडकर के परामर्श की सलाह दी थी।
शेख अब्दुल्ला की बात को धैर्यपूर्वक सुनकर डॉ. आंबेडकर ने कहा- ‘भारत को आपके प्रदेश के सुशासन और विकास के लिए धन उपलब्ध कराना चाहिए। भारत को आपके राज्य को पाकिस्तान और अन्य उपद्रवियों की आक्रमण से भी बचाना चाहिए। भारतीयों को आपके राज्य की रक्षा के लिए मरने को तैयार रहना चाहिए। आपका एक पृथक संविधान होगा, पृथक राज्य प्रमुख,कानूनों के पृथक प्रारूप और पृथक झंडा। आपके लोग देश में किसी भी जगह जमीन खरीद सकते हैं लेकिन ऐसा कोई भी व्यक्ति जो जम्मू-कश्मीर में पैदा नहीं हुआ वह आपके राज्य में संपत्ति नहीं खरीद सकता। भारतीय आपकी जमीन को विकसित करने के लिए अपना सब कुछ देंगे। सभी प्रकार की घुसपैठ से आपकी सुरक्षा करेंगे लेकिन आपको भारतीय परिक्षेत्र से कोई लगाव नहीं रहेगा। …मैं किसी भी राज्य को ऐसा विशेष दर्जा देने पर अपनी सहमति नहीं दूंगा।’
गोपालस्वामी और नेहरू चाहे शेख अब्दुल्ला पर आरोप लगाएं लेकिन 15 अक्तूबर 1949 को गोपालस्वामी ने संविधान में अनुच्छेद के प्रस्ताव को क्रियान्वित करने के संबंध में पटेल की सहमति वाले बिंदुओं के स्थान पर 306ए में बदल दिया।
गोपालस्वामी जिसे एक ‘छोटा सा’ सामंजस्य बता रहे थे वह वास्तव में मूल ड्राफ्ट था। इसे देखकर सरदार पटेल ने गोपालस्वामी को कहा- ‘मैंने पाया कि मूल ड्राफ्ट में कुछ बदलाव किये गये हैं। विशेषकर मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के क्रियान्वयन की नीति पर। जहां एक तरफ राज्य को देश का अभिन्न हिस्सा बनाने की बात हो रही है उसी समय इन प्रावधानों की अनदेखी की जा रही है… इन परिस्थितियों में मेरे अनुमोदन का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि यह सही है तो आप इसको लेकर आगे बढ़ सकते हैं।’ केवल इसी घटना के बाद सरदार पटेल से कश्मीर विभाग ले लिया गया था। जहां तक चीन के साथ संबंधों का प्रश्न है या तिब्बत का प्रकरण है। इसे बूरी तरह पं. नेहरू ने गड्डमड्ड किया। अपनी मृत्यु से लगभग एक महीने पहले सरदार पटेल ने एक लंबा पत्र लिखा था जो कि कई अखबारों में छपा था। इसमें पं. नेहरू की लचीली चीन नीति को देश के लिए भावी खतरे के रूप में चेताया गया था। एक महान नेता होने के बाद भी नेहरू ने चीन और रूस के मॉडल पर आधारित कम्युनिस्ट दर्शन को आधार बनाकर भारत की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह गड़बड़ाया। राष्टीयकरण की प्रक्रिया, बढ़ते औद्योगीकरण, किसानों एवं लघु कुटीर उद्योगों को खत्म करने में और देश की अर्थव्यवस्था को गर्त में ले जाने में प्रमुख भूमिका निभायी।
प्रो. मक्खन लाल (लेखक विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में वरिष्ठ अध्येता है)
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