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जो सरकार अपने आपको पंथनिरपेक्ष कहती है वह हर साल 13 जुलाई के काले दिन को 'शहीद दिवस' की तरह मनाकर उन हिन्दुओं के जले पर खुलेआम नमक छिड़कती है जिन्हें उस पूरी तरह से मजहबी उन्मादी आंदोलन के कारण मुस्लिमोंं के हाथों निर्मम अत्याचार सहने पड़े। बाद में यह आंदोलन सांप्रदायिक तनाव को जिंदा रखते हुए मीरपुर और कोटली तक फैल गया था। उस दिन घटी घटनाएं तब तक पूवर्ग्रह से मुक्त नहीं होंगी जब तक उनके पक्ष में प्रामाणिक और निष्पक्ष तथ्य नहीं रखे जाएंगे। तभी तय हो पाएगा कि इन सांप्रदायिक दंगों में पुलिस और सेना की गोलीबारी में मारे गए लोगों को क्या शहीद घोषित किया जाना चाहिए?
एक ब्रिटिश सैनिक अधिकारी ने एक मजहबी उग्रवादी को अपने रसोइये रूप में पेशावर से कश्मीर में प्रवेश करने में मदद दी थी। वह बहुत अच्छा वक्ता था और उसे खानक्वा-ए-मुल्ला की सभा में शरीक होने के लिए बुलाया गया था। उसने अपने भड़काऊ बयानों के समर्थन में कुरान का हवाला देते हुए बेहद राष्ट्रविरोधी और सांप्रदायिक भाषण दिया। कानून के मुताबिक उसे गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया किया गया। लेकिन भीड़ ने न केवल उसकी गिरफ्तारी का विरोध किया वरन् आपत्तिजनक नारे भी लगाए। अदालत की कार्यवाही में भी खलल डालने की धमकी दी जो उस समय सेंट्रल जेल के परिसर में चल रही थी।
मामले की सुनवाई के लिए 13 जुलाई, 1931 का दिन तय किया गया था। तभी श्रीनगर और अन्य उपनगरों में सांप्रदायिक दंगे फैल गए, जिसमें बड़े पैमाने पर हिन्दुओं के घर और दुकानें जलाईं गईं। पुलिस और सेना की गोलीबारी में 22 लोग मारे गए। आजादी के बाद यहां रहीं तमाम सेकुलर सरकारें हर साल इस काले दिवस को 'शहीद दिवस' के रूप में मनाती आ रही हैं, मुस्लिमों के हाथों जुल्म के शिकार समुदायों के जले पर नमक छिड़कती रही और उन्माद की आग भड़काए रखी गई।
हिन्दुस्तान टाइम्स, द नेशन, संडे टाइम्स और अन्य अखबारों के संपादक रहे जी.एस. राघवन ने 1931 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'द वानिंर्ग फ्रॉम काश्मीर' में लिखते हैं,'13 जुलाई को जेल में सुनवाई थी। उस दिन भीड़ ने जेल पर हल्ला बोल दिया और सेशन जज के साथ जेल में प्रवेश की मांग की। जब जज अंदर चले गए तो भीड़ ने भी अंदर घुसने की कोशिश की। दूसरे दरवाजों से भी जबरन घुसने की कोशिश की गई। अंदर के गेट पर भी हमला बोला गया। जज के कहने पर आरोपी का प्रतिनिधित्व करने वाले दो वकीलों ने अंदर आए लोगों से बाहर जाने को कहा। जब भीड़ ने देखा कि अंदर जाने की कोई संभावना नहीं है तो वह बाहर आ गई और अफसरों पर पथराव करने लगी, पुलिस लाइन्स में आग लगा दी। तब पुलिस बल को बुलाया गया। बेकाबू भीड़ को शांत करने के सारे उपाय निरर्थक साबित हुए। जब जेल के बाहर हो हल्ला हो रहा था तब अंदर भी अशांति फैलने लगी। कैदियों ने लोहे के दरवाजों को खोलने की कोशिश की। उस समय कुछ कैदी अदालत से जेल ले जाए जा रहे थे। भीड़ ने पुलिस वालों पर पथराव किया और कैदियों को छुड़ाने की कोशिश की। हालात किसी भी तरह से संतोषजनक नहीं थे। उस समय मौके पर बुलाए गए जिला मजिस्ट्रेट के आदेशों का उल्लंघन हो रहा था। उसने भीड़ इकट्ठा होने को गैर कानूनी बताया और उसे तितर-बितर करने के आदेश दिए। जब आदेशों का पालन नहीं हुआ। तब यह तय किया गया कि भीड़ न शांत हो रही है, न छंट रही है तो जिला मजिस्ट्रेट ने गोली चलाने के आदेश दिए। भीड़ पहले तो तितर-बितर हो गई लोकिन फिर इकट्ठी होकर पथराव करने लगी। लाठीचार्ज करना पड़ा। भीड़ का एक हिस्सा हरि पर्वत किले की तरफ चला गया। घुड़सवारों की टुकड़ी को उनका पीछा कर उसे तितर-बितर करना पड़ा। उपद्रवियों का एक झुण्ड व्यापारिक क्षेत्र महाराजगंज की ओर चला गया और लूटपाट करने लगा। भोरीकदल से अलीकदल तक के बहुत बड़े इलाके में हिन्दुओं की दुकानों पर हमले होने लगे। इसके अलावा सफाकदल, गंजी, खुद, नवाकदल में भी लूटपाट होने लगी। बाजारों की सड़कों पर लूट का सामान बिखरा हुआ था। कहीं दुकानें जलाई जा रही थीं। हिन्दू दुकानदारों के परेशान किया जा रहा था। संक्षेप में उपद्रव का माहौल था। हिन्दू व्यापारियों के लाखों के माल का नुक्सान हुआ। मि़ वेक्फील्ड ने लिखा है-रास्ते पर सामान इस तरह से फैला हुआ था कि उनकी कार निकल नहीं पाई। लेकिन उन्होंने यह भी बयान दिया कि किसी मुसलमान ने उनसे शिकायत नहीं की कि उनके यहां किसी ने हमला बोला हो।'
'कहानी का सबसे असाधारण पहलू यह है कि श्रीनगर की घटनाओं के समय 5-6 मील की दूरी पर स्थित विचारनाग में भी उपद्रव हुए। बताया जाता है कि वहां भी बहुत अत्याचार हुए। जिनके पास लाखों थे वे कंगाल हो गए। महिलाओं पर भी हमले हुए। वहां फौज भेजी गई, लेकिन तब तक उपद्रवी अपना काम कर चुके थे। और जगहों पर भी हिन्दू शिकार बनें। कुछ लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा, कुछ को चोटें आईं। इसके बाद भी लंबे समय तक छिटपुट हमले जारी रहे।' ऐसे हिन्दुओं के लिए दमनकारी दिन को कश्मीर की सरकारें 'शहीद दिवस' के तौर पर मनाती हैं।
शेख अब्दुल्ला इसके अपराधियों में से थे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वे दोषी पाए गए और उन्हें सजा हुई। लेकिन 1932 में महाराजा द्वारा माफी दिए जाने के कारण सजा पूरी होने से पहले ही वे रिहा कर दिए गए। इसके बाद उन्होंने ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस की स्थापना की और उसके पहले अध्यक्ष बन गए।
जम्मू में हुई घटनाओं के वर्णन के बगैर इस काले दिवस की कहानी अधूरी रहेगी। यह सांप्रदायिक उन्माद बाद में दूरदराज के इलाकों मीरपुर, कोटली, राजौरी आदि में भी फैल गया और खूब कहर बरपाया गया। हिन्दू और सिखों के घर लूटे गए, उन्हें जलाया गया। निदार्ेष लोगों को निर्दयतापूर्वक मारा गया। कइयों को जबरन मुसलमान बनाया गया। हिन्दू और सिखों के पूजास्थलों का भी वही हश्र हुआ। इन घटनाओं को '88 का शौरश' (विक्रम संवत् 1988 के दंगे) कहा जाता है। इसकी यादें न केवल दंगा पीडि़तों में वरन् उनकी अगली पीढ़ी में आज भी ताजा हैं। इसके बारे में तमाम सरकारी एजेंसियों यानी राज्य सरकार और भारत सरकार यानी ब्रिटिश सरकार के बीच हुआ पत्राचार लंदन की ब्रिटिश लाइब्रेरी में सुरक्षित है। इन दस्तावेजों में कुछ कुछ प्रासंगिक रपटों को ही यहां पेश किया जा रहा है जो इस बात का प्रमाण हैं कि कि किस तरह मुस्लिमों के हाथों हिन्दू और सिख अत्याचार के शिकार हुए।(देखें, बॉक्स)
हालांकि इन घटनाओं का पूरा विवरण उपलब्ध नहीं है मगर उनका सावधानी से अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि घाटी की तुलना में इस इलाके का बहुत नुकसान हुआ था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 1947 के बाद के कालखंड की सरकारों ने न्याय तो नहीं ही किया, लेकिन 13 जुलाई को शहीद दिवस घोषित करके हिन्दुओं का जानबूझकर अपमान जरूर किया है।
-युवराज गुप्ता
मजहबी दंगों का वह विवरण जो तत्कालीन प्रशासन ने जारी किया था
– राजौरी -120,सेरी-12, भीमबेर-206़ कोटली-224 (जम्मू कश्मीर के वजीर खजाना श्री जारदीन द्वारा भारत सरकार के उपसचिव आर. एल. वाल्टर को लिखित)
– चल अचल संपत्ति का विवरण नहीं मिला। मगर अभी तक यह बताया गया कि गैर मुस्लिमों की संपत्ति का नुकसान बहुत ज्यादा है। (संदर्भ नंबर पीए 238 डीई तारीख 30 जून 1932-प्रधानमंत्री ई.जी.आई. कोलीन द्वारा कश्मीर के निवासी मि़ लेटीमर को प्रेषित )
– सुखचैनपुर और सामवाल (मीरपुर) के हिन्दुओं, जिनके मकान पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हैं या जलाए गए हैं, का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। सुखचैनपुर तो पूरी तरह से निर्जन हो गया है।
– मीरपुर तहसील की तुलना में कोटली तहसील के नुकसान बुहत ज्यादा हैं। दंगाइयों से स्थानीय लोग भी मिल गए। उनकी मदद से हिन्दू-सिखों के मकान लूटे गए, जलाए गए। हिन्दू गांव सेरी,राजोआ,खई राता और धना पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। हिन्दुओं की संपत्ति लूटी गई और पूजास्थल पूरी तरह नष्ट कर दिए गए।
– सेना के पहुंचने के बाद कुछ पूजा स्थलों को हालांकि नष्ट नहीं किया गया था लेकिन मगर देवताओं की मूर्ति और गुरूग्रंथ साहिब को अपवित्र किया गया था। कोटली के मुख्य बाजार में सेना की मौजूदगी के बावजूद वही हश्र हुआ। इसके कारण मीरपुर और भींबर और पास के पंजाब से हिन्दू और सिख परिवारों का पलायन हुआ। (संदर्भ क्रमांक एफएम 467, 18-5-1932)
– 18 और 19 जनवरी 1932 को मुस्लिमों की विशाल भीड़ ने कोटली को घेर लिया। लेकिन कुछ घंटों में ही हमला नाकाम हो गया, क्योंकि हमलावरों के पास पुराने किस्म के हथियार थे और गोला बारूद की कमी थी। हमले से पहले चावला,पनजिरा,कोटली सोहलम और गुईराता में हिन्दुओं के घर और मकान जलाए गए। (संदर्भ, कश्मीर फाइट फार फ्रीडम, लेखक जस्टिस रिटायर्ड मोहम्मद यूसुफ सराफ)
– 18 जनवरी 1932 को 50 गांवों पर हमला हुआ जिसमें 300 घर लूटे गए और 70 जलाए गए। हालांकि किसी की मौत नहीं हुई, लेकिन 40 हिन्दू और सिखों को जबरन मुसलमान बनाया गया। ये सभी गांव राजौरी पुलिस स्टेशन के तहत आते हैं। यह एक माना हुआ तथ्य है कि ये सांप्रदायिक दंगे कश्मीर में जो हुआ उसका विस्तार थे।
– इन गांवों में से थन्मा गांव और उसके बाजार का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। यह 20 जनवरी 1932 को हुआ। 36 घर लूटे गए और 8 जलाए गए। अन्य दो गांव जहां भारी नुकसान हुआ वे थे सोहना और सोहनी। 84 घर लूटे गए और चार जलाए गए। दूसरे गांव में 31 घर लूटे गए और 2 घर जलाए गए। यह हमला 28 जनवरी 1932 को हुआ। भरोट गांव में मोहनलाल का बहुत बड़ा मकान लूटा और जलाया गया। (संदर्भ, डीओ प 6 क्रमांक एफ 12 सी 32, 29़ 03़1932, कश्मीर के निवासी सी. लाटीमार द्वारा)
राष्ट्रविरोधी गतिविधियां बर्दाश्त नहीं : इंद्रेश कुमार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री इंद्रेश कुमार ने कहा है कि देश में किसी को भी राष्ट्रविरोधी गतिविधियां करने की अनुमति नहीं है, चाहे वह किसी भी जाति सम्प्रदाय का व्यक्ति हो। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान का झंडा फहराने वालों के खिलाफ लोगों में भारी आक्रोश और हर भारतवासी चाहता है कि ऐसे लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई ही न हो बल्कि उन्हें पाकिस्तान भेज देना चाहिए। वे गत 7 जुलाई को करनाल के एक निजी अस्पताल में 'कार्डिक यूनिट और कैथ लैब' के उद्घाटन अवसर पर पत्रकारों से बात कर रहे थे।
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