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गुरु के प्रति नतमस्तक होकर कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा। सहज ही सवाल उठता है कि पूर्णिमा को ही क्यों चुना? क्योंकि, गुरु के लिए पूर्णिमा से बढ़कर और कोई तिथि हो ही नहीं सकती। जो स्वयं में पूर्ण है, वही तो पूर्णत्व की प्राप्ति दूसरों को करा सकता है। पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति जिसके जीवन में केवल प्रकाश है, वही तो अपने शिष्यों के अंत:करण में ज्ञान रूपी चंद्र की किरणें बिखेर सकता है। यहां अपने अस्तित्व की यात्रा के भेद जानने के लिए प्रकाश भी है और संसार में परिस्थितियों से संघर्ष के दौरान अनुकूलता के लिए शीतलता भी। इसीलिए गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर के समान बताया गया है। बल्कि परब्रह्म कहा गया है। वह गुरु ही है जो हमें जीवन जीने का सलीका सिखाता है। 'हम क्या हैं? क्यों हैं? से लेकर 'हमें कहां जाना है? क्या करना है? क्या नहीं करना है' तक के सूत्र देता है। जब भी आप गुरु की प्रशस्ति करते हैं प्रेम में डूब ही जाते हैं। हम उसे भगवान मानते हैं, जो कि वह है ही। यह अपेक्षाकृत आसान और सुविधाजनक है। लेकिन कबीर का अनूठापन है कि उन्होंने पहली बार एक चुनौती खड़ी कर दी। लो, एक तरफ गोविन्द खड़े हैं और उनके ठीक सामने गुरु। दोनों हमारे सामने हैं। अब किसके पैर पहले छुओगे? यह चुनौती जिसने खड़ी की उसका शिक्षा से कोई परिचय नहीं। कभी छुआ ही नहीं जीवन में कागज, स्याही से कोई नाता ही नहीं बनाया। सीधी-सादी अनुभूति… चौबीस कैरेट सोने सी खरी-
गुरु गोबिन्द दोउ खड़े काके लागूं पांय
और कौन बताएगा? चारों तरफ सन्नाटा। …फिर खुद ही बताते भी हैं, एकदम साफ-
बलिहारी गुरु आपने गोबिन्द दियो बताय।
इसका मतलब आप सबको पता ही है कि गुरु और ईश्वर दोनों साथ ही खड़े हैं इसलिए पहले किस के पैर छूने हैं? ऐसी दुविधा आए तब पहले गुरु को वंदन करें। क्यों करें? क्योंकि गुरु की वजह से ही ईश्वर के दर्शन हुए हैं। उनके बगैर ईश्वर तक पहुंचना असंभव है। इसीलिए ओशो कहते हैं- 'संत तो हजारों हुए हैं, पर कबीर ऐसे हैं जैसे पूर्णिमा का चाँद- अतुलनीय, अद्वितीय। जैसे अंधेरे में कोई अचानक दीया जला दे, ऐसा यह नाम है। जैसे मरुस्थल में कोई अचानक मरुद्यान प्रकट हो जाए, ऐसे अद्भुत और प्यारे उनके गीत हैं। अपार ज्ञान में पगे, एक-एक शब्द अनमोल। कबीर को बुद्धि से मत सुनना। कबीर का कोई नाता बुद्धि से नहीं। भाषा पर अटकोगे तो कबीर साधारण मालूम होंगे। कबीर ने कहा भी- लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात। पढ़कर नहीं कह रहे… देखा है आंखों से। जो नहीं देखा जा सकता उसे देखा है। और जो नहीं कहा जा सकता उसे कहने की कोशिश की है। बहुत श्रद्धा से ही कबीर समझे जा सकते हैं।'
किसे कहें शिक्षा और क्या है ज्ञान? शिक्षक और अब आध्यात्मिक गुरु पवन सिन्हा बता रहे हैं कि भौतिक विषयों को समझाने वाली शिक्षा होती है। अलौकिक विषयों को समझाने वाला ज्ञान होता है। शिक्षा में जब अनुभव और साधना जुड़ जाती है, तो वह ज्ञान बन जाता है।
रामचरितमानस आदि कुछ अच्छी पुस्तकें भी गुरु रूप हैं। प्रो. संतोष कुमार तिवारी इसी के साथ बता रहे हैं कि सही गुरु मिलना बड़े भाग्य की बात होती है। जे. कृष्णमूर्ति थोड़ा दर्शन और तर्क देते हैं गुरु तत्व की व्याख्या में- वर्तमान से अपने संबंध में ही हम स्वयं को समझ सकते हैं और संबंध ही गुरु है, न कि बाहर कोई व्यक्ति। जबकि सद्गुरु गुरुपूर्णिमा को आदिगुरु शिव की रात बताते हैं जिन्होंने पहला उपदेश गुरुपूर्णिमा को ही दिया था। वह पहले गुरु हैं और वही आखिरी भी हैं। बीच वाले सिर्फ उनके सहायक हैं। गुरु रामानन्द को कैसे भूल सकते हैं जिन्हें दो ऐसे अद्भुत और विलक्षण शिष्य मिले जिन्होंने ज्ञान की दो धाराएं बहाईं- कबीर और रैदास? देखिए कबीर क्या कहते हैं गुरु के बारे में, ईश्वर तक को नाराज करने को राजी हैं-
कबिरा ते नर अंध हैं गुरु को कहते और
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।
अंधा है वह जो गुरु को नहीं समझ पाता। अगर ईश्वर नाराज हो जाए तो गुरु बचा सकता है, लेकिन अगर गुरु नाराज हो जाए तब कौन बचाएगा? लेकिन प्राय: शिष्य अंधा ही होता है। अज्ञान, अहंकार और आसक्तियों की धुंध की इतनी मोटी परत जम जाती है कि गुरु को पहचाने भी तो कैसे? इसी क्रम में आगे ओशो बताते हैं कि गुरु-शिष्य संबंध संयोग मात्र भी है और एक होशपूर्ण चुनाव भी। बल्कि यह दोनों ही है। जहां तक गुरु का सवाल है, यह पूर्णत: होशपूर्ण (जागरूकतापूर्ण) चुनाव है। जहां तक शिष्य का प्रश्न है, यह संयोग ही हो सकता है, क्योंकि अभी होश उसके पास है ही नहीं।
समर्पण के बिना शिष्य का गुरु से मिलन नहीं हो सकता। आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर की मानें तो गुरु के प्रति कृतज्ञता, गुरुपूर्णिमा पर पूर्णता की अभिव्यक्ति है। समर्पण पहली शर्त है कि गुरु तत्व को आप अपने भीतर आसन दे सकें, ताकि वह आपको ज्ञान से प्रकाशित कर सके, पूर्ण कर सके। गुरु शिष्य को अंत:शक्ति से ही परिचित नहीं कराता, बल्कि उसे जागृत एवं विकसित करने के हरसंभव उपाय भी बताता है। देश-विदेश में सिद्धयोगी के रूप में पहचान बनाने वाले परमहंस योगानन्द अपने गुरु की महिमा यूं बताते हैं- ईश्वरत्व में मनुष्यत्व के विलयन में श्री युक्तेश्वरजी ने कोई दुर्लंघ्य बाधा नहीं पाई। बाद में मेरी समझ में आया कि केवल मनुष्य की आध्यात्मिक प्रयासहीनता के अलावा ऐसी कोई बाधा नहीं होती। हालांकि कबीर कोई शिक्षित-दीक्षित नहीं हैं लेकिन आखिरी सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति के लिए भी आश्वासन है कि कबीर पहुंच गए तो वह भी पहुंच सकता है। न मां-बाप का पता, न जाति-धर्म का, जैसा बताया जाता है कि किसी हिन्दू के यहां पैदा हुए और मुसलमान के घर पले, गरीब, अशिक्षित।
कबीर के पास न तर्क, न विचार, न दर्शनशास्त्र है। शास्त्र से कबीर का क्या लेना देना… और कितना बड़ा शास्त्र और सूत्र मुफ्त लुटा रहे हैं! 'गुरु बिन कौन बतावै बाट। बड़ा विकट यम घाट। भ्रांति पहाड़ी नदिया बीच में अहंकार की लाट।'एक सद्गुरु ही हमें भ्रांति और अहंकार के अंधकार से निकाल सकता है क्योंकि उसे ही पता है कि यह और कुछ नहीं मात्र ज्ञान के प्रकाश का ही अभाव है। तो यात्रा प्रारंभ करते हैं…!
अजय विद्युत
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