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गुरु रु, आत्मा और ईश्वर में कोई अंतर नहीं है। ये तीनों एक ही हैं- आपकी आत्मा, गुरु तत्व और ईश्वर। और ये तीनों ही शरीर नहीं हैं। उनका रूप कैसा है? आकाश जैसा है।
व्योमवाद व्याप्त देहाय (व्योम=आकाश, देह=शरीर, व्याप्त=समाना)
आप शरीर नहीं हैं, आप आत्मा हैं, और आत्मा का स्वरुप आकाश जैसा है। यह गुरु के लिए भी समान है। गुरु को एक सीमित शरीर के रूप में मत देखिए। गुरु एक तरंग है, एक ऊर्जा है, जो सर्वव्यापी है, आत्मा की तरह। और गुरु का सम्मान करना अर्थात अपनी आत्मा का सम्मान करना।
इसलिए हम जब समर्पण करते हैं तो वह गुरु को करें, ईश्वर को करें या अपनी आत्मा को करें, एक ही बात है। समर्पण कुछ खोना नहीं है, रूपान्तरण है। वह वैसा ही है कि एक बूंद का महासागर में मिल जाना। बूंद फिर बूंद नहीं रहती, महासागर हो जाती है। समर्पण के बिना न हम गुरु को महसूस कर पाते हैं, न ईश्वर को और न अपनी आत्मा को। समर्पण से गांठ खुलती है… बाधाएं हटती हैं… रास्ता बनता है… नाता जुड़ता है। और तुम वही हो जाते हो, जो मूल स्वरूप में तुम हो। यदि तुम गुरु के निकट अनुभव नहीं कर पा रहे हो तो यह तुम्हारे ही कारण है, तुम्हारे मन, तुम्हारी धारणा, तुम्हारे अहंकार के कारण।
यदि तुम गुरु के साथ निकटता का अनुभव नहीं कर रहे, तो गुरु की आवश्यकता ही क्या है? वह तुम्हारे लिए एक और बोझ है। तुम्हारे पास पहले ही बहुत बोझ हैं। बस, अलविदा कह दो।
तुम गुरु के साथ हो ताकि तुम गुरु के आनंद में सहभागी हो, उसकी चेतना के सहभागी। इसके लिए, पहले तुम्हें अपने आप को खाली करना है, जो पहले से है, उसे गुरु को दे देना है। जो भी है गुरु को व्यक्त करो और यह मत सोचो कि 'यह तो कूड़ा है'। मन में जितना भी कूड़ा हो, जितने भी प्रकार का, गुरु उसे लेने के लिए तैयार हैं। तुम जैसे भी हो, गुरु तुम्हें स्वीकार कर लेंगे। अपनी ओर से वे बांटने को तैयार हैं- तुम्हें केवल अपनी ओर से बांटने के लिए तैयार होना है।
कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, 'तुम मुझे बहुत प्रिय हो।' फिर कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि उसे समर्पण करना होगा। समर्पण की शुरुआत एक धारणा से होती है। पहले तुम्हें यह मानना होगा कि तुम ईश्वर (गुरु) को अत्यंत प्रिय हो। तब समर्पण स्वत: ही होता है।
समर्पण कोई कृत्य नहीं, एक धारणा है। समर्पण न करना अज्ञानता है, एक भ्रम। समर्पण की शुरुआत एक धारणा से होती है, फिर यह वास्तविकता में व्यक्त होती है। और आखिरकार यह एक भ्रम के रूप में अभिव्यक्त होती है, क्योंकि 'दो' तो हैं ही नहीं, कोई द्वैत नहीं। किसी का भी व्यक्तिगत रूप से स्वतंत्र अस्तित्व नहीं, तो समर्पण करने को कुछ नहीं, और न कोई है जिसे समर्पण करना है। यह जानने के लिए कि समर्पण भ्रम है, समर्पण से गुजरना जरूरी है। चुनाव तुम्हारी नियति है। कृष्ण आरंभ में अर्जुन को नहीं कहते कि उसे समर्पण करना है। पहले वे कहते हैं, 'तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो।' बाद में वे उससे कहते हैं, 'तुम्हारे पास और कोई उपाय नहीं… तुम्हें समर्पण करना ही है। या तो अभी करो, वरना बाद में करोगे ही।' यही प्रेम का पथ है।
आत्मनिर्भरता और समर्पण
आत्मनिर्भरता को अपार साहस की आवश्यकता है, समर्पण के लिए कम साहस चाहिए। जो व्यक्ति समर्पित नहीं हो सकता, वह आत्मनिर्भर भी नहीं बन सकता। जैसे पचास रुपए में दस रुपए निहित हैं, वैसे ही आत्मनिर्भरता में समर्पण निहित है। यदि तुम्हारे पास सौ रुपए नहीं हैं तो तुम्हारे पास एक हजार रुपए भी नहीं हो सकते हैं। यदि तुममें समर्पण के लिए साहस नहीं, तब तुम्हारे लिए आत्मनिर्भर होना भी संभव नहीं। जो व्यक्ति समर्पण से डरते हैं, वे अपने आप को धोखा दे रहे हैं, क्योंकि लेशमात्र भय भी आत्मनिर्भरता में बाधक है।
प्राय: लोग समर्पण को जिम्मेदारियों से बचने का रास्ता मानते हैं और अन्त में वे अपनी सभी समस्याओं के लिए ईश्वर/गुरु को दोषी ठहराते हैं। वास्तव में, सच्चा समर्पण है सम्पूर्ण जिम्मेदारी लेना। कैसे? जिम्मेदारी लो, और सहायता के लिए प्रार्थना करो।
समर्पण ही अंतत: तुम्हें आत्म-निर्भरता की ओर अग्रसर करता है क्योंकि आत्मा के सिवाय कुछ है ही नहीं।
गुरुपूर्णिमा के दिन शिष्य अपनी पूर्णता में जागृत होता है, और इस जागृत अवस्था में वह आभार प्रकट किये बिना रह ही नहीं सकता। ये आभार द्वैत का न होकर, अद्वैत का है। गुरु कोई देह नहीं है। यह एक नदी नहीं है जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रही है, यह एक सागर है जो अपने भीतर ही रमण करता है। कृतज्ञता, गुरुपूर्णिमा पर पूर्णता की अभिव्यक्ति है। समर्पण पहली शर्त है कि गुरु तत्व को आप अपने भीतर आसन दे सकें, ताकि वह आपको ज्ञान से प्रकाशित कर सके, पूर्ण कर सके।
श्री श्री रविशंकर
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