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रपट/ बिहार – डर की डोर से बंधा गठबंधन

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Jul 11, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Jul 2015 13:19:57

 

उमस भरी गर्मी के साथ बिहार में राजनीतिक पारा भी चढ़ने लगा है। सभी राजनीतिक दलों के नेता अपने चुनावी गुणाभाग को ठीक करने में लग गए हैं। इसी कड़ी में दो धुर विरोधी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के बीच दोस्ती हो गई है। लोगों का मानना है कि नीतीश और लालू की दोस्ती स्वाभाविक नहीं, बल्कि डर की है। भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का डर। दोनों को अपने वजूद की ही चिन्ता हो रही है। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि दोनों एक तो हुए हैं, लेकिन दोनों के मनभेद खत्म नहीं हुए हैं। दोनों के बीच अभी भी गांठ है। दोनों एक-दूसरे को शक की निगाह से देखते हैं। उमाशंकर प्रसाद इंटर कॉलेज, महाराजगंज (सीवान) के पूर्व प्राचार्य रामनाथ सिंह कहते हैं, 'नीतीश कुमार और लालू प्रसाद दोनों जे.पी. आन्दोलन की उपज हैं। कांग्रेस और आपातकाल का विरोध करके ही ये दोनों नेता बने थे। दोनों समाजवादी थे, लेकिन व्यक्तिगत स्वार्थ ने इन दोनों को एक नहीं रहने दिया और दोनों की राहें अलग हो गईं। अब उनकी हालत यह हो गई है कि उनके वजूद पर ही संकट आ खड़ा हो गया है। वजूद बचाने के लिए ही दोनों एक हुए हैं। आश्चर्य की बात है कि उन्हें हार का इतना डर है कि उन्होंने उस कांग्रेस को भी अपने साथ ले लिया है, जिसके विरोध के बल पर दोनों नेता बने थे। नीतीश और लालू लोकतंत्र के साथ बलात्कार कर रहे हैं।' भागलपुर के प्रसिद्ध नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ. चन्द्रशेखर शाह भी कहते हैं,  'लालू और नीतीश के बीच स्वार्थ की दोस्ती हुई है। इन दोनों के बीच कभी भी नहीं बनी है। दोनों सत्ता के भूखे हैं। सत्ता के लिए ही मौकापरस्त बने हैं। हालांकि बिहार के चुनाव में जातिवाद एक बहुत बड़ा कारक होता है, इसलिए यहां की राजनीतिक संभावनाओं  को लेकर ज्यादा कुछ कहा नहीं जा सकता है। साथ ही यह भी नहीं कह सकते हैं कि एक जाति के सभी लोग किसी एक दल को वोट करते हैं। लोग अब विकास के नाम पर जात-पात के बंधन से ऊपर उठ रहे हैं।' वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा में विधि विभाग के संकायाध्यक्ष डॉ. कमालुद्दीन खान कहते हैं, 'लालू और नीतीश की दोस्ती सहज नहीं है, यह मजबूरी की दोस्ती है। यदि दोनों साथ नहीं आते तो दोनों का राजनीतिक पतन होता। दोनों के साथ आने से सेकुलर ताकतों को बल मिला है। जो लोग सेकुलरवाद पर विश्वास करते हैं वे और अल्पसंख्यक समाज के लोग जदयू और राजद गठबंधन को ही वोट करेंगे। लोग लालू प्रसाद पर तो उतना विश्वास नहीं कर रहे हैं, लेकिन नीतीश कुमार की 'सुशासन बाबू' वाली छवि से प्रभावित हैं। यह मानना पड़ेगा कि नीतीश कुमार ने विकास की गाड़ी को तो आगे जरूर बढ़ाया है। इसका फायदा उन्हें मिलेगा।' लेकिन मधुबनी के रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजीत झा इससे सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं, 'लालू प्रसाद से दोस्ती करना नीतीश कुमार को भारी पड़ सकता है। लोगों को डर है कि नीतीश कुमार यदि लालू के साथ सरकार बनाने में कामयाब हो जाते हैं, तो एक बार फिर बिहार में अराजकता का माहौल बन सकता है। इससे बिहार का ही नुकसान होगा। दूसरी बात राजद और जदयू के बीच मुख्यमंत्री पद के दावेदार को भी लेकर खींचातानी है। इसलिए लोग इस बार बहुत ही सोच-समझकर वोट करने वाले हैं।' बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. हेमन्त कुमार मालवीय कहते हैं, 'नीतीश कुमार और लालू प्रसाद कुर्मी, यादव और मुसलमान वोट के बल पर भाजपा को रोकना चाहते हैं, लेकिन शायद ऐसा नहीं हो पाएगा। युवा पीढ़ी सजग हो चुकी है। वह जातिवाद की राजनीति को पसन्द नहीं कर रही है। उन्हें रोजगार चाहिए, सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार चाहिए। बी.एच.यू. में बिहार के हजारों छात्र पढ़ते हैं। उनमें से अनेक से बराबर बात होती है। उनका कहना है कि कब तक बिहार के युवा मुम्बई, सूरत, कोलकाता और दिल्ली जैसे शहरों में रोजगार के लिए धक्के खाते रहेंगे? भाजपा किसी को मुख्यमंत्री के रूप में आगे न करे और केवल सुशासन और विकास की बात करे। तभी वह जातिवाद की राजनीति करने वालों को हरा सकती है।' मोतीहारी में वकालत करने वाले राजन कुमार कहते हैं, 'स्वार्थवश किया गया कोई समझौता ज्यादा दिन तक टिक नहीं सकता है। दोनों के स्वार्थ अभी भी टकरा रहे हैं।  लालू और नीतीश के बीच हुए समझौते से लालू फायदे में रहेंगे और नीतीश कुमार को नुकसान होगा। इसके बाद नीतीश का राजनीतिक पतन भी संभव है।' महाराजा हरेन्द्र किशोर इंटर कॉलेज, मोतीहारी में इतिहास के प्राध्यापक प्रो. अरुण प्रसाद का मानना है कि लालू और नीतीश कुमार अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। भाजपा के साथ पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के आने से महादलितों का एक बड़ा वर्ग भाजपा की ओर आ रहा है। इसका लाभ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को मिलेगा। बी.एन. कॉलेज, पटना में भूगर्भशास्त्र के विभागाध्यक्ष प्रो. रामबली सिंह कहते हैं, 'लालू और नीतीश दोनों एक ही विद्यालय (समाजवाद) के विद्यार्थी रहे हैं। दोनों की दोस्ती असहज नहीं, बल्कि स्वाभाविक है, क्योंकि दोनों की विचारधारा एक है। स्वार्थवश दोनों अलग हुए थे। इसका लाभ भाजपा ने उठाया है। हालांकि भाजपा का साथ पाकर नीतीश कुमार भी अपने को कम बड़े नेता नहीं मानते थे। अब समय की मांग है कि लालू और नीतीश एक रहें और भाजपा का मुकाबला करें, नहीं तो दोनों इतिहास के पन्नों में सिमट जाएंगे।' पटना उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता सर्वदेव सिंह कहते हैं, 'नीतीश कुमार ने लालू से दोस्ती करके उन्हें राजनीतिक जीवनदान दिया है। यह दोस्ती लालू के लिए वरदान साबित हो सकती है, वहीं नीतीश कुमार घाटे में रहने वाले हैं। इस समय बिहार भाजपा में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसको सामने करके चुनाव लड़ा जा सकता है, इसका कुछ फायदा नीतीश कुमार को मिल सकता है।' बेगूसराय में कारोबार करने वाले विनोद हिसारिया का मानना है कि लालू और नीतीश दोनों जाति की राजनीति करने वाले हैं। जाति के नाम पर समाज को बांटने वाले हैं। दोनों के अपने-अपने एजेंडे हैं। इसलिए उनकी दोस्ती सहज नहीं है। जब भी उनके स्वार्थ टकराएंगे तब यह दोस्ती टूट जाएगी।     – अरुण कुमार सिंह

नीतीश कुमार और लालू प्रसाद कुर्मी, यादव और मुसलमान वोट के बल पर भाजपा को रोकना चाहते हैं, लेकिन शायद ऐसा नहीं हो पाएगा। युवा पीढ़ी सजग हो चुकी है। वह जातिवाद की राजनीति को पसन्द नहीं कर रही है। उन्हें रोजगार चाहिए, सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार चाहिए।      —हेमन्त कुमार मालवीय, एसोसिएट प्रोफेसर, राजनीतिशास्त्र विभाग, बी.एच. यू.

आश्चर्य की बात है कि लालू और नीतीश को  हार का इतना डर है कि उन्होंने उस कांग्रेस को भी अपने साथ ले लिया है, जिसके विरोध के बल पर दोनों नेता बने थे। नीतीश और लालू लोकतंत्र के साथ बलात्कार कर रहे हैं।     
                                                                       —रामनाथ सिंह, पूर्व प्राचार्य
 उमाशंकर प्रसाद इंटर कॉलेज, महाराजगंज (सीवान)

लालू प्रसाद से दोस्ती करना नीतीश कुमार को भारी पड़ सकता है। लोगों को डर है कि नीतीश कुमार यदि लालू के साथ सरकार बनाने में कामयाब हो जाते हैं, तो एक बार फिर बिहार में अराजकता का माहौल बन सकता है।
—अजीत झा
वरिष्ठ पत्रकार

लालू और नीतीश दोनों एक ही विद्यालय (समाजवाद) के विद्यार्थी रहे हैं। दोनों की दोस्ती असहज नहीं, बल्कि स्वाभाविक है, क्योंकि दोनों की विचारधारा
एक है।  स्वार्थवश दोनों अलग
हुए थे। अब समय की मांग है कि दोनों एक रहें।  
—प्रो. रामबली सिंह, विभागाध्यक्ष भूगर्भशास्त्र, बी.एन. कॉलेज, पटना

लोग लालू प्रसाद पर तो उतना विश्वास नहीं कर रहे हैं, लेकिन नीतीश कुमार की 'सुशासन बाबू' वाली छवि से प्रभावित हैं। यह मानना पड़ेगा कि नीतीश कुमार ने विकास की गाड़ी को तो आगे जरूर बढ़ाया है। इसका फायदा उन्हें मिलेगा।
—डॉ. कमालुद्दीन खान, संकायाध्यक्ष विधि, वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा

लालू और नीतीश के बीच स्वार्थ की दोस्ती हुई है। इन दोनों के बीच कभी भी नहीं बनी है। दोनों सत्ता के       भूखे हैं। सत्ता के लिए ही मौकापरस्त बने हैं।
—डॉ. चन्द्रशेखर शाह
नेत्र रोग विशेषज्ञ 

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