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हम सभी धरतीवासी दुनिया की सबसे ताकतवर हस्ती ईश्वर को ही मानते हैं। यद्यपि समय-समय पर जन्म लेने वाली राजसत्ताओं ने स्वयं को ईश्वरीय ताकत के समकक्ष प्रस्तुत करने का भरपूर प्रयास किया। भले ही स्वयं को ईश्वर नहीं कहा हो लेकिन अपने आपको ईश्वर का प्रतिनिधि कहकर अपनी ताकत को दर्शाने का भरपूर प्रयास किया। विश्व की महासभाएं ज्यों ही अपनी सफलता की चरम सीमा पर पहुंच जाती हैं, उन्हें उनके अनुयायी बोलचाल की भाषा में भगवान की संज्ञा से विभूषित करने में तनिक भी हिचकिचाते नहीं हैं। ईसा मसीह को भगवान का बेटा ही नहीं कहने लगे बल्कि पोप को ईश्वर का प्रतिनिधि भी स्वीकार कर लिया। पाश्चात्य दुनिया में चर्च की सत्ता को ईश्वरीय सत्ता का दर्जा मिल गया। धर्म को ईश्वर तक पहुंचने की सीढ़ी माना जाता है। इसलिए धर्म को धारण करना मनुष्य के लिए मजबूरी बन गया है। धर्म में जब विश्वास बढ़ जाता है तो उसे आस्था कहा जाता है। जब मनुष्य सभ्यता में समाज को दिशा देने की आवश्यकता महसूस हुई तो उसमें धर्मग्रंथों ने महत्व की भूमिका निभाई और उन्हीं को आधार बनाकर शासन संचालन के लिए संविधान बना लिए। अधिकांश कानून के स्रोत वे ही धर्म की पवित्र पुस्तकें हैं। इसलिए सरकार बनाने के अवसर पर धर्म ग्रंथ को ही हाथ पर रखकर शपथ ली जाती है। लेकिन एक समय ऐसा भी आया कि जब धर्म, मत, पंथ के कारण झगड़े होने लगे तो उसका स्थान हर देश की अपनी सुविधाओं ने ले लिया। यानी धर्म-मत, पंथ और देश चलाने वाले कानून कहीं न कहीं जुड़े रहे। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन्हीं के नाम पर ही इंसान का खून बहता रहा।
धमोंर्, मत-पंथों को प्रतिपादित करने वाले धर्माचार्य एवं उनके अनुयायी अन्य मत-पंथों से इतनी घृणा करने लगे कि किसी पैगम्बर के कार्टून बनाकर अपने विरोधियों को चिढ़ाने लगे, तो कुछ दाइश जैसे शैतानी संगठन बनाकर इंसानियत के खून के प्यासे हो गए। इसलिए सभ्य दुनिया के लोग सोचने लगे कि क्यों न इस मजहब को ही दस हाथ जमीन के नीचे दफना दिया जाए जो मानव को मानव से नफरत करना सिखलाता है। इसलिए असंख्य जागरूक नागरिकों ने अपने मत-पंथ को ही नकारना शुरू कर दिया। अब असंख्य लोग यह सोचने लगे हैं कि अपने देश का संविधान ऐसा बनाओ जिसमें धर्म अथवा मत-पंथ को स्थान ही न मिले। कुछ ने इसका नाम धर्मनिरपेक्षता यानी सेकुलरिज्म दे दिया।
विश्व में एक ऐसा बड़ा वर्ग भी पैदा हो गया जिसने ईश्वर को नकारकर स्वयं को नास्तिक कहना शुरू कर दिया। आज स्थिति यह आ गई है कि दुनिया आस्तिक और नास्तिक के दो धड़ों में बंट गई। हर व्यक्ति का अपना विचार और दृष्टिकोण भिन्न हो सकता है। हम तो केवल उन तथ्यों पर विचार करेंगे कि दुनिया में अब ईश्वर की सत्ता में कितने लोग विश्वास करेंगे, कितने लोग विश्वास करते हैं और निजी रूप से अपने जीवन की सत्ता को बेदखल करने वाले लोग कितने हैं?
एशिया महाद्वीप जो लगभग सभी बड़े धर्मों और मत पंथों की जन्मस्थली है वहां आज भी धर्म प्रेरित सत्ता कम है लेकिन यूरोप और अमरीका जो विज्ञान की कर्मभूमि हैं वहां से धर्मसत्ता का खात्मा होता नजर आता है। जिस इंग्लैंड की सत्ता का कभी सूर्य अस्त नहीं होता था वहां अब ईसाइयत का सूर्य अस्त होता दिखलाई पड़ता है। इसका श्रेय अथवा अपश्रेय किसको दिया जाए यह विवाद का मुद्दा हो सकता है लेकिन एक ताजे सर्वेक्षण से पता चला है कि इंग्लैड में ईसाइयत का तेजी से लोप होता जा रहा है और नास्तिकों की संख्या में लगातार वृद्धि होती जा रही है।
ब्रिटेन के समाचार पत्रों में एक चौंका देने वाला सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ है। इस सर्वे के अनुसार पिछले दिनों चर्च ने अपने 20 लाख अनुयाई खो दिए हैं। वे चर्च ऑफ इंग्लैंड के अनुयाई थे। इन ईसाइयों पर ही चर्च की सत्ता कायम है। भले ही भिन्न-भिन्न कारणों से ईसाइयों की संख्या घटी हो लेकिन आज भी वहां वर्चस्व तो ईसा के मानने वालों का ही है। लेकिन विश्व में नास्तिकों की संख्या सबसे कहीं अधिक है तो वह इंग्लैंड में ही है।
कैथोलिक पंथ को नकारने वाली प्रोटेस्टेंट विचारधारा द्वारा श्रइंग्लंैड में ही जन्मे कैथोलिक पंथ के पोपों ने ऐसा अत्याचार ढाया कि ईसाइयों का समझदार वर्ग उससे दूर होता चला गया। नास्तिक विचारधारा प्रारम्भ से चली आ रही है लेकिन उसका संगठित रूप इंग्लैंड में ही सर्वप्रथम देखने को मिला। यह विचार आगे चलकर विरोधियों का जमावड़ा बन गया और फिर एक दिन चर्च के ही रूप में विचारधारा में परिणत हो गया जो आज ईसाई मतावलम्बियों का एक पंथ बन गया। प्रोटेस्टेंट विचारधारा ईसाई पोपों और पादरियों का भले ही विरोध करती हो लेकिन उसे नास्तिकता की परिभाषा नहीं दी जा सकती। ब्रिटेन में केवल नास्तिक हुए हों ऐसी बात नहीं है। बल्कि विश्व के अन्य मतावलम्बी भी इसमें शामिल हैं। इन सबका कुल प्रतिशत 49 है। दूसरे शब्दों में दुनिया के आधे नास्तिक ब्रिटेन में रहते हैं।
1983 में इंग्लंैड में नास्तिकों की कुल आबादी दशमलव 28 करोड़ थी। जो 2014 में बढ़कर 2 दशमलव 47 करोड़ हो गई। 'दि नेशन' नामक पत्र के सर्वे के अनुसार युवा ब्रिटिश नागरिक बहुत ही कम चर्च की ओर आकर्षित हो रहे हैं। पत्र यह भी लिखता है कि इंग्लैंड में ईसाइयों की संख्या घट रही है। यह बात जितनी चिंता उपजाती है उससे भी बढ़कर भयभीत करने वाली बात यह है कि यहां मुसलमानों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। पिछले दिनों घटी घटनाओं का उल्लेख करते हुए पत्र लिखता है कि 1983 में इस्लाम मानने वालों की संख्या कुल जनसंख्या का दशमलव 6 प्रतिशत थी जो 2014 में बढ़कर 5 प्रतिशत हो गई। जनसंख्या के आंकड़े बतलाते हैं कि कैथोलिक ईसाइयों की जनसंख्या में कोई वृद्धि ही नहीं हुई है। इंग्लैड के जागरूक नागरिकों का मानना है कि इंग्लैंड में ईसाइयों का जो चाहे वर्ग रहे हमें उससे बहस नहीं है, लेकिन यदि किसी अन्य मत-पंथ के लोग अपनी जनसंख्या में वृद्धि करते हैं तो वह इंग्लैड की परम्परा और पहचान के विरुद्ध है।
विश्व के अन्य देशों की तरह ब्रिटेन भी मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या को लेकर चिंतित है। मुसलमानों की कट्टरता पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए पिछले दिनों वहां सभी ईसाई पंथों के प्रमुखों की एक बैठक सम्पन्न है। पोप ने पिछले क्रिसमस पर अपने संदेश में इस पर चिंता जतलाई थी। लंदन टाइम्स लिखता है कि चिंता इस बात की नहीं है कि इंग्लैंड में नास्तिक बढ़ रहे हैं बल्कि असली समस्या यह है कि बेतहाशा बढ़ती मुलसलमानों की जनसंख्या ब्रिटिश परम्पराओं को दीमक बनकर चाट रही है।
मुजफ्फर हुसैन
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