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आरोप के नाम पर सिर्फ अफवाह

by
Jul 4, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jul 2015 12:56:33

तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया का एक छोटा सा तबका अपनी वास्तविक भूमिका से आगे बढ़कर खुद को 'जज' साबित करने पर तुला है। बीते कुछ दिनों में जिस तरह से खबरों का चुनाव किया जा रहा है, उससे इस बात के साफ संकेत देखे जा सकते हैं। जब देश तमाम दूसरी बड़ी चुनौतियों से गुजर रहा है, तब मीडिया की ऐसी प्राथमिकता बहुत से सवाल खड़े    करती है।
बीते कुछ दिनों में अगर समाचार चैनल और अखबारों को देखें तो ऐसा लगेगा मानो ललित मोदी देश का सबसे बड़ा भगोड़ा है और उससे किसी भी तरह का संबंध रखने वाले लोग सबसे बड़े अपराधी हैं। भाजपा  नेताओं और मंत्रियों पर बिना सबूत या बनावटी सबूतों के साथ सीधे हमले बोले गए। प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा।  लेकिन अचानक 26 जून को अपने ट्वीट में ललित मोदी ने लंदन में गांधी परिवार से अपनी मुलाकात का जिक्र कर दिया, तो मानो सबको सांप सूंघ गया। तमाम समाचार चैनलों को अचानक 'कथित' और 'आरोप' जैसे शब्द याद आने लगे। अचानक खबरों की भाषा बेहद संयमित हो गई। लगभग सभी समाचार चैनलों ने पहले तो इस बारे में कुछ बताया ही नहीं और जब बताया तो कांग्रेस के खंडन के साथ। कांग्रेस के प्रवक्ता इस बात से इनकार नहीं कर सके कि मुलाकात हुई थी। फिर भी गांधी परिवार के लिए अटूट निष्ठा वाले संपादक अपने काम में जुट गए थे। एक संपादक ने फौरन कुछ दूसरी बड़ी खबरों को 'ब्रेक' करना शुरू कर दिया, ताकि गांधी परिवार पर लगे आरोप की खबर को दबाया जा सके। सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे के लिए अभद्रता की सारी हदें तोड़ चुके संपादक अचानक हकलाने लगे।
ललित मोदी प्रकरण भारतीय मीडिया, खास तौर पर अंग्रेजी मीडिया की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह बन चुका है। यह सवाल भी उठने लगा है कि कौन सा समाचार समूह किन व्यापारिक हितों को साधने के लिए क्या पैंतरेबाजी कर रहा है। ऐसा करते हुए ये समाचार समूह और उनके संपादक खुद को दिनोदिन हास्यास्पद बनाते जा रहे हैं।
हिंदी चैनल भी बहुत पीछे नहीं रहे। एबीपी न्यूज ने वसुंधरा राजे पर अपने कार्यक्रम 'व्यक्ति विशेष' में 2006 की एक तस्वीर को दिखाकर बेहद भद्दी और अश्लील टिप्पणियां कीं। यह वह फोटो थी जिसकी सच्चाई खुद उसे खींचने वाले फोटोग्राफर ने उसी समय स्पष्ट कर दी थी। यह कार्यक्रम एक सबूत है कि कैसे मीडिया जैसे सम्मानित पेशे में महिलाओं के प्रति घृणित सोच रखने वाले घुसे हुए हैं। क्या एबीपी चैनल ने उस टिप्पणी के लिए कभी माफी मांगी?  क्या मीडिया के तमाम जिम्मेदार लोगों ने इस हरकत के लिए किसी से इस्तीफा मांगा? या उस पत्रकार की पहचान सार्वजनिक की?
 बीते कुछ दिनों से 'काल्पनिक घोटालों' को पैदा करने की कोशिश भी जारी है। विपक्ष के आरोप से पैदा होने वाले इन 'घोटालों' को लगभग हर  चैनल ने खूब दिखाया। बिना तथ्यों की जांच पड़ताल के नाम उछाले गए। धौलपुर हाउस पर वसुंधरा राजे के बेटे और सांसद दुष्यंत सिंह के स्वामित्व पर कांग्रेस ने सवाल उठाए, तो सभी न्यूज चैनलों ने उसे 'एक और बड़े खुलासे' की तरह दिखाया। हालांकि एनडीटीवी इंडिया की रिपोर्टर ने सारी सच्चाई सामने ला दी और बताया कि कैसे कांग्रेस जिन दस्तावेजों को पेश कर रही है, वेे पुराने हैं।
यह कोशिश कहीं न कहीं दिखाई दे रही है कि जब घोटाले न हों तो काल्पनिक घोटाले पैदा करो, ताकि जनता में भ्रम पैदा किया जा सके। इस कोशिश में विपक्ष को मीडिया के  एक बड़े हिस्से का पूरा साथ मिल रहा है। सरकारों के कामकाज पर मीडिया की नजर जरूरी है, लेकिन टीवी पर चल रही तथ्यहीन बातों के पीछे किसी षड़यंत्र की बू आ रही है। आज भी लगभग हर समाचार समूह में ऐसे लोग ऊंचे पदों पर हैं, जिन्हें 10 जनपथ और अहमद पटेल के कृपापात्र के तौर पर जाना जाता है। कांग्रेस ने पिछले 10 साल में मीडिया में बाकायदा अपना काडर खड़ा किया है। इस काडर में बड़ी संख्या में सक्रिय वामपंथी और यहां तक कि माओवादी भी शामिल हैं। समाचार समूहों की संपादकीय नीति भले न हो, लेकिन यह काडर अपने काम में लगातार जुटा हुआ है। यही वेे लोग हैं, जिन्होंने आपातकाल की 40वीं बरसी पर एक साथ कई समाचार पत्रों में लेख लिखकर ये साबित करने की कोशिश की कि आपातकाल लगने से भारतीय लोकतंत्र परिपक्व हुआ। इसलिए गांधी परिवार और कांग्रेस को दोषी नहीं ठहराना चाहिए।
मीडिया के शोरगुल में देश के कई इलाकों में बारिश और बाढ़ से जूझ रही आबादी का दर्द कहीं दबकर रह गया। सरकार ने 'स्मार्ट सिटी' और 'डिजिटल इंडिया' जैसे अभियान शुरू किए। आने वाले वर्षों  में इनसे लाखों की संख्या में रोजगार पैदा होने हैं। इसे विदेशी समाचार पत्रों, यहां तक कि पाकिस्तान में खूब चर्चा मिली, लेकिन ये विषय हमारे सेकुलर मीडिया की प्राथमिकता नहीं बन पाया। प्रधानमंत्री ने 'मन की बात' में लोगों में बेटियों के प्रति गौरव जगाने के लिए सेल्फी मंगाए तो उसका भी मजाक उड़ाने की कोशिश हुई। कुछ मोमबत्ती छाप 'एक्टिविस्टों' ने ट्विटर और टीवी चैनलों पर बैठकर प्रधानमंत्री के लिए अपशब्दों का भी प्रयोग किया। लेकिन इस अभियान की सफलता ने कुंठित मानसिकता वाले ऐसे सभी लोगों को उचित जवाब दे दिया।
स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र की ताकत है। लेकिन इस स्वतंत्रता के दुरुपयोग की कोशिश लगातार चल रही है। इसे रोकने के लिए जरूरी है कि किसी समाचार के प्रति मीडिया और उसके संपादकों की जवाबदेही तय की जाए, ताकि आरोप के नाम पर अफवाहें फैलाने और अपनी राय थोपने की प्रवृत्ति बंद हो।          
  नारद

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