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पाञ्चजन्य के पन्नों से
वर्ष: 12 अंक: 12
25 अगस्त 1958
संघीय संविधान के दुष्परिणाम सामने आए
11 वर्ष पूर्व हमारे सत्तारूढ़ नेताओं ने अभिनवता के आवेश में पश्चिम की अंधी नकल कर भारत को संघीय संविधान का विदेशी जामा पहनाया, उस समय राष्ट्रीय आत्मा से परिचित कई महापुरुषों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से भावी के मस्तक पर अंकित इस दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय के भीषण दुष्परिणाम को पढ़ लिया था।
इतना ही नहीं, अपने ज्वलंत राष्ट्र प्रेम से प्रेरित होकर उन्होंने विजय के गर्व में फूले भारतीय नेताओं का ध्यान इस ओर खींचने का प्रयास भी किया और सरसंघचालक श्री गुरुजी ने 'प्रान्त' के स्थान पर 'राज्य' शब्द के प्रयोग पर आपत्ति करते हुए भविष्यवाणी की कि इससे राष्ट्र की एकता खंडित होगी और पृथकतावादी भावनाओं का पोषण होगा। भारतीय जनसंघ के महामंत्री पं. दीनदयाल उपाध्याय ने सार्वजनिक मंचों से एकात्मक शासन की मांग करते हुए कई बार चेतावनी दी कि किसी भी दिन जब केंद्र तथा राज्यों में पृथक-पृथक राजनैतिक दल सत्तारूढ़ होंगे, इस राष्ट्र की परम्परागत एकता खतरे में पड़ जाएगी।
शासन द्वारा उर्दू का 'गड़ा मुर्दा' उखाड़ा जाना राष्ट्र के साथ अपघात
उर्दू कोई स्वतंत्र भाषा नहीं: उ. प्र. के छ: जिलों व एक नगर में प्रमुखता दिया जाना नितांत अनुचित
लखनऊ। ''उर्दू को राजनीतिक हथियार बनाकर जो विघटनकारी तत्व एक संस्कृति तथा एक राष्ट्रीयता के विरुद्ध निरन्तर षड्यंत्र करते रहे हैं और देश के विभाजन के रूप में जिसके लिए राष्ट्र ने बहुत बड़ा मूल्य चुकाया है, उनको उत्तर प्रदेश सरकार के नए निश्चय सांप्रदायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बढ़ावा देने का काम करेंगे, जो राष्ट्रीय एकता व अखण्डता के लिए अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण होगा।'' ये शब्द हैं उस प्रस्ताव के जो यहां आयोजित प्रादेशिक राज्यभाषा सम्मेलन में पारित किया गया। सम्मेलन गत 17 अगस्त को सम्पन्न हुआ। सम्मेलन में नगर के प्रमुख साहित्यकार, पत्रकार, प्राध्यापक तथा अनेक गणमान्य नागरिकों के अतिरिक्त प्रदेश के विभिन्न जिलों से आए हुए लगभग 50 प्रतिनिधि भी उपस्थित थे। इस अवसर पर संसद सदस्य सर्वश्री अजित प्रतापसिंह, उत्तमराव पाटिल व प्रेमजी भाई आसर भी उपस्थित थे। सायं 4 बजे स्थानीय सेन्ट्रल होटल के हॉल में भाषा समस्या निवारण समिति द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी से सम्मेलन की कार्यवाही आरम्भ हुई। विचार गोष्ठी में विद्वज्जनों ने प्रदेश सरकार द्वारा अपनाई गई 'नई भाषा नीति', उसकी उत्पत्ति के कारणों और उसके दुष्परिणामों पर अपने-अपने विचार प्रकट किए। सायंकाल 6 बजे गंगाप्रसाद मेमोरियल हाल में राजभाषा सम्मेलन प्रारम्भ हुआ। हाल खचाखच भरा था तथा हजारों लोग बाहर खड़े सरकार की 'नई भाषा नीति' के संबंध में विद्वानों द्वारा प्रकट किए जाने वाले विचारों को सुन रहे थे।
डा. भगीरथ मिश्र द्वारा उद्घाटन
सम्मेलन का उद्घाटन लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के रीडर डा. भगीरथ मिश्र ने किया। आपने कहा:''यह देश का दुर्भाग्य रहा है कि जब तक राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु महत्वपूर्ण राष्ट्रीय निर्णयों को भी मनमानी तौर पर बदला जाता रहा है। उर्दू का प्रश्न इसका सबसे ताजा उदाहरण है। आपने उर्दू की उत्पत्ति की विवेचना करते हुए कहा कि केवल लिपि तथा कुछ अरबी-फारसी के शब्दों के होने मात्र से उर्दू को पृथक भाषा मानना गलत है। भाषा का व्याकरण होता है-विभक्तियां, अव्यय, समास आदि होते हैं। इस कसौटी पर कसने से पता चलता है कि वास्तव में उर्दू कोई भाषा ही नहीं। वह बोलचाल की भाषा है- मात्र हिंदी की एक शैली है जैसी भोजपुरी, मैथिली या ब्रज। आगे आपने कहा: ''मुसलमान जब इस देश में पहुंचे जन-सम्पर्क में आने के लिए उन्हें एक भाषा की आवश्यकता पड़ी। उन्होंने दिल्ली के आस-पास बोली जाने वाली बोली को अपनाया। वही आगे चलकर उर्दू कहलाई। उर्दू से तात्पर्य था बाजारू भाषा-साधारण बोलचाल की भाषा।'' उर्दू में अलग भाषा का कोई लक्षण नहीं, व्यवहार में आने वाली बोली को भाषा के रूप में मान्यता प्रदान नहीं करनी चाहिए। संविधान की 14 भाषाओं में उर्दू को स्थान देने का कोई शास्त्रीय औचित्य नहीं-राजनीतिक भले ही हो।''
अध्यक्षीय भाषण
अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा:''यदि अल्पमत सरकार को किसी गलत कार्य को करवाने के लिए विवश कर सकता है तो बहुमत में इतना बल है कि वह उसे फिर सुधरवा ले। अतएव यदि उर्दू को केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा मात्र राजनीतिक कारणों से लादा जा रहा है तो हम राजनीतिक शक्ति के द्वारा ही इस विष को समाप्त करने का दम रखते हैं।''
दिशाबोध – भारतीय अर्थरचना के राष्ट्रीय लक्ष्य
हमारे देश को दीर्घ प्रयासों के बाद स्वतंत्रता मिली है। अत: इस राजनीतिक स्वतंत्रता को जो सुरक्षित रखे, ऐसी व्यवस्था हमें करनी चाहिए। यही हमारा प्रथम लक्ष्य है। दूसरी बात, हमारी जनतंत्रीय प्रणाली जिससे संकट में पड़ जाए या जो उसके लिए बाधक सिद्ध हो, ऐसा आर्थिक नियोजन हम न करें। तीसरा लक्ष्य है, हमारे सांस्कृतिक मूल्य अपने राष्ट्रजीवन के लिए ही नहीं, सारे संसार भर के लिए अत्यंत उपयोगी हैं, अत: उनकी रक्षा करनी है। अपनी संस्कृति को खोकर हम आर्थिक समृद्धि लाते हैं, तो वह व्यर्थ सिद्ध होगी। चौथा लक्ष्य हमें सैनिक दृष्टि से आत्मरक्षा में समर्थ बनाने का होना चाहिए। पांचवां लक्ष्य आर्थिक स्वावलंबन का हो। जो राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से दूसरों पर निर्भर रहता है उसका स्वाभिमान नष्ट हो जाता है। स्वाभिमानशून्य राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की रक्षा कभी नहीं कर सकता।
(पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार-दर्शन, खण्ड 3 राजनीतिक चिन्तन)
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