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पूरी दुनिया में गया की प्रसिद्धि पिण्डदान को लेकर है। गया तिलकुट और अनरसा के लिए भी प्रसिद्ध है लेकिन इस बार गया किसी और कारण से सुर्खियों में है। गया के मानपुर के 18 बच्चों ने एक साथ कठिन समझी जाने वाली आईआईटी की परीक्षा उत्तीर्ण कर मानपुर का नाम रोशन किया है। मानपुर बुनकरों का कस्बा माना जाता रहा है। यहां के लुंगी-गमछा प्रसिद्ध हैं। बिहार में एक-एक कर बन्द होते कारोबार में मानपुर का करघा उद्योग भी है। भविष्य की आशंका को भांपते हुए यहां के बच्चों ने गत 20 वषोंर् से पढ़ाई को ही अपना सबकुछ मान लिया है। आज इस छोटे कस्बे से प्रतिवर्ष 10 से 15 छात्र आईआईटी की परीक्षा में उत्तीर्ण होते है। इसके अलावा 125 से 200 छात्र एआईईईई तथा अन्य इंजाीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं में सफल होते हैं।
यहां यह सफलता की कहानी 1990 से शुरू होती है। परिवार की स्थिति बदलने के लिए कृतसंकल्प इण्टर के कुछ विद्यार्थियों ने मिलकर पढ़ना शुरू किया। इसका नाम उन्होंने 'कम्बाइंड स्टडी' दिया। मानपुर में दिनभर करघे का कोलाहल होता था। इसलिए इन लोगों ने रात का समय उचित समझा। रात में लालटेन के सहारे पढ़ाई करते थे। '92 में पहली बार इस इलाके से जितेन्द्र प्रसाद ने आईआईटी की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। श्री ठाकुर प्रसाद के सुपुत्र जितेन्द्र प्रसाद अभी कैलिफोर्निया में कार्यरत हैं। आईआईटी में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने इण्टर के छात्रों को आईआईटी के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया था। गर्मी की छुट्टियों में जब वे घर आते तो बच्चों को सफलता के सूत्र बताते। उनकी मेहनत रंग लाने लगी। छात्रों का रुझान आईआईटी की ओर होने लगा। धीरे-धीरे यह कारवां बढ़ता गया। जितेन्द्र प्रसाद का सपना सच होने लगा। जितेन्द्र प्रसाद के साथ तेजनारायण प्रसाद, लालमणि सरीखे छात्र जुड़ने लगे। कई छात्र आईआईटी और अन्य इंजीनियरिंग की परीक्षाओं में सफल होने लगे। प्रेरित करने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ने लगी।
मानपुर के हर छात्र का सपना होने लगा कि यहां के ज्यादा से ज्यादा छात्र आईआईटी की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करें। सबने संकल्प किया कि वे अपनी शक्ति इस नेक काम में लगाएंगे। गर्मी की छुट्टियों में ये लोग छात्रों को पढ़ाई में मदद देने लगे। 2000 में इसे संस्थागत रूप दिया गया। आईआईटी के छात्रों ने मिलकर एमटीएसई (मानपुर टैलेंट सर्च एक्जामिनेशन) लेना शुरू किया। सफल छात्रों को कई सुविधाएं दी जाती थीं। ऑनलाइन कोचिंग की व्यवस्था भी इसमें शामिल थीं। गर्मी की छुट्टियों के बाद जब इंजीनियरिंग के छात्र वापस चले जाते तो इनके लिए स्वाध्याय और 'कम्बाइंड स्टडी' का सहारा ही बचता था। फिर भी धुन के पक्के पटवा टोली के इन बच्चों ने इतिहास लिखना शुरू कर दिया। आज यहां पर सैकड़ों आईआईटी पास छात्र हैं। इंजीनियरों की भरमार है।
नव प्रयास संस्था के द्वारा अब बच्चे मार्गदर्शन लेते हैं। इस बार दोनों पैर से विकलांग एक विद्यार्थी ने आईआईटी में 62वां रैंक प्राप्त कर एक इतिहास रच दिया है। रोहित नामक यह विद्यार्थी प्रतिदिन 14 किमी. अपनी ट्राई साइकिल से दूरी तय कर पढ़ने जाता था। उसने अपने बारे में बताया कि उसके पिताजी का तो अपना घर भी नहीं है? पटवा टोली में उसके पिता लल्लू राम अपने परिवार के साथ किराये के मकान में रहते हैं। पेशे से बुनकर लल्लू राम के 6 बच्चों में रोहित का क्रमांक दूसरा है। ये सभी बच्चे सामान्य परिवार के हैं। इनमें सिर्फ लड़के ही नहीं बल्कि लड़कियां भी हैं।
आज मानपुर मॉडल देश के सामने अभावों में भी सफलता की कहानी बनकर उभरा है। इस सफलता में किसी सरकार या संस्था का सहयोग नहीं है। गत 50 वर्षों से यहां संघ की शाखा नियमित लग रही है।
अपनी सफलता की कहानी बयां करते हुए रोहित कुमार कहते हैं मैं काफी गरीब परिवार से हूं। मेरा अपना मकान नहीं है। मेरे पिताजी श्री लल्लू राम किराये के मकान में रहकर हम लोगों की परवरिश करते हैं। मेरा क्रमांक दूसरा है। पटना टोली के अन्य बच्चों की तरह ही मेरा सपना भी आईआईटी करना था। विकलांग होने के बावजूद मैंने हिम्मत नहीं छोड़ी। संस्था की ओर से प्राप्त ट्राई साइकिल से मैंने पढ़ाई के लिए आवश्यक भागदौड़ की। पटना टोली में जब मुहल्ले की परम्परा के अनुसार हम लोग किसी के कमरे में चटाई लेकर सामूहिक पढ़ाई करने चले जाते थेे। देर रात तक पढ़ाई करके फिर सुबह से विद्यालय और अन्य काम में लग जाते थे।
दसवीं के बाद ई. बालकृष्ण प्रसाद के शिवम् क्लासेज में मैंने दाखिला ले लिया। बालकृष्ण सर पटना टोली के ही हैं तथा उन्होंने भी आईआईटी से पढ़ाई पूरी कर गया में। मैं कोचिंग संस्था खोली। रोज लगभग 4 किमी. साइकिल चलाकर मैं अपने सपने को साकार करने में जुटा। अंतत: मैंने आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। मेरा सपना आईएएस बनना है आईआईटी के बाद मैं इस सपने को भी पूरा करने में जी-जान लगा दूंगा।
मनीष कुमार बताते हैं पटना टोली का माहौल काफी गंदा है। हर ओर धूल व गंदगी है। दिन भर पावरलूम की आवाज आती है। इस माहौल से निकलने का एक ही रास्ता है कि इंजीनियरिंग की जाए। बच्चे का सपना होता है कि आईआईटी की प्रवेश परीक्षा दी जाए। सातवीं से ही बच्चे अपने सपने को साकार करने में लग जाते हैं। किसी तरह समय निकालकर पढ़ना तथा रात में जगकर पढ़ना दिनचर्या में शामिल हो जाता है। घर वाले भी प्रेरणा देते हैं। 9वीं मैं कुछ लोग राष्ट्रीय छात्रवृत्ति की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेते हैं। 10वीं के बाद ऐसे छात्रों का दिल्ली में रहकर पढ़ना आसान हो जाता है।
मैंने भी यह परीक्षा उत्तीर्ण की। पंजाबी बाग मुहल्ले में पटना टोली के कई बच्चे रहकर पढ़ते थे। जेआईआईटीईई की ओर से इन्हें नि:शुल्क पढ़ाया जाता था। मेरे पिताजी उदय प्रकाश में इतना सामर्थ्य नहीं कि वे हमें दिल्ली में रहकर पढ़ाते। अत: छात्रवृत्ति और कोचिंग के माध्यम से पटना टोली के 8 बच्चों ने दिल्ली रहकर आईआईआईटी प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की।
संजीव कुमार
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