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पिछले दिनों चेन्नई आईआईटी में 'पेरियार- आंबेडकर स्टडी सर्कल' पर पाबंदी लगने पर टीवी पर काफी बहस चली। इन बहसों में 'पेरियार-आंबेडकर स्टडी सर्कल' के नेता भी आए थे। लेकिन किसी ने उनसे यह सवाल पूछने की जुर्रत नहीं की कि 'पेरियार-आंबेडकर स्टडी सर्कल' बनाने का क्या तुक है, क्योंकि पेरियार और आंबेडकर की विचारधारा और राजनीति एक दूसरे से भिन्न ही नहीं विपरीत भी हैं। पिछले दिनों जाने-माने पत्रकार अरविंद नीलाक्षन ने अपने एक लेख में यह सवाल उठाया और टिप्पणी की है कि किसी समूह को 'पेरियार-आंबेडकर स्टडी सर्कल' का नाम देना वैसा ही है जैसे किसी स्टडी सर्कल को जिन्ना-नेहरू स्टडी सर्कल जैसा बेतुका नाम दे दिया जाए। उन्होंने दस कारण बताए जिनकी वजह से पेरियार और आंबेडकर साथ-साथ नहीं चल सकते। इसलिए उनके नाम पर स्टडी सर्कल बनाना दोनों के साथ मजाक करने जैसा है।
अरविंद नीलाक्षन के मुताबिक पहली बात यह है कि डॉ़ आंबेडकर आर्य और द्रविड़ के नस्लीय भेद को स्वीकार नहीं करते थे। अपनी 'हू वर द शूद्राज' पुस्तक में उन्होंने कहा कि सवर्ण और अस्पृश्य के सामाजिक भेदभाव का नस्ल से कोई लेना-देना नहीं है। जबकि पेरियार नस्लवादी सिद्धांतों में विश्वास करते थे। उनकी सारी राजनीति आर्य-द्रविड़ के विभेद पर आधारित थी इसलिए ही वे अलग द्रविड़नाडु की वकालत करते थे। दूसरे, आंबेडकर लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करते थे। पेरियार लोकतंत्र के खिलाफ थे। उनका मानना था कि समाज की सारी समस्याओं का मूल कारण लोकतंत्र है। उन्होंने 8 फरवरी 1931 को लिखे संपादकीय में लिखा था-भिन्न भाषाओं, पंथों, जातियों तथा बहुत कम साक्षरता वाले देश में लोकतंत्र किसी तरह से प्रगति नहीं ला सकता। तीसरे, पेरियार घोर भारत विरोधी थे जबकि डा़ आंबेडकर भारत की सांस्कृतिक एकता में विश्वास करते थे। पेरियार भारत का नस्ल और भाषा के आधार पर विभाजन चाहते थे। जबकि डा़ आंबेडकर का मानना था कि भारत की राजनीतिक एकता उसकी सांस्कृतिक एकता पर आधारित होगी। यही वजह थी कि उन्होंने भाषायी आधार पर राज्यों के निर्माण का विरोध किया था। चौथे, पेरियार आयोंर् और ब्राह्मणों से जुड़ी हर चीज के विरोधी थे इसलिए संस्कृत के भी कट्टर विरोधी थे। दूसरी तरफ डा़ आंबेडकर संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने के समर्थक थे। पांचवें, आंबेडकर की सोच का आधार वस्तुनिष्ठ चिंतन था इसलिए श्रुति और स्मृति पर आधारित धर्म के खात्मे की वकालत करने के बावजूद वे कहते थे कि हिन्दुओं को अपना धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के सिद्धांतों पर स्थापित करना चाहिए जो उपनिषद में भी मौजूद हैं। उन्होंने 'एनिहीलेशन आफ कास्ट' पुस्तक में कहा है-स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के सिद्धांतों के अनुकूल धार्मिक सिद्धांतों को विदेशी स्रोतों से लेने की आवश्यकता नहीं है। इस तरह के सिद्धांत आप उपनिषदों से ले सकते हैं। लेकिन पेरियार से तो आप इस तरह के गहन चिंतन और विश्लेषण की उम्मीद ही नहीं कर सकते। छठे, एक तरफ डा आंबेडकर वंचितों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले मसीहा थे तो दूसरी तरफ पेरियार वंचित विरोधी थे। उन्हें वंचितों से गहरी नफरत थी जो उनके वंचित विरोधी बयानों से साफ उभरकर आती है। एक बार उन्होंने कहा कि कपड़े के भाव इसलिए बढ़ गए हैं क्योंकि वंचित वर्ग की महिलाएं कपड़े पहनने लगी हैं। एक बार तो उन्होंने कहा था कि उच्च शिक्षा की संस्थाओं को इसलिए बंद कर देना चाहिए क्योंकि लोगों को सस्ता श्रम उपलब्ध होता रहे।
ऐसे परस्पर विरोधी विचारों के व्यक्तित्वों को अपने 'स्टडी सर्कल' के जरिये एक मंच पर लाने का द्रविड़ी प्रयास पेरियार-आंबेडकर स्टडी सर्कल कर रहा है। इस तरह की कोशिश बसपा भी करती रहती है। उसके 'दलित महापुरुषों' में पेरियार भी शामिल हैं। कई बार लगता है कांशीराम और मायावती ने अंग्रेजी में छपे पेरियार के विचारों के आधार पर पेरियार के बारे में सोच बनाकर उसको बसपा पर थोप दिया। उन्होंने पेरियार के तमिल में छपे विचारों को पूरी तरह पढ़ा नहीं होगा। पेरियार का ज्यादातर साहित्य और भाषण तमिल में ही हैं। यदि वे पेरियार की वंचित और अल्पसंख्यक विरोधी सोच को जानते होते तो उन्हें 'दलित महापुरुषों' में शामिल न करते। पेरियार के विचारों को न जानने के कारण ही कांशीराम और मायावती ने पेरियार की मूर्ति स्थापित करने के नाम पर अपनी उत्तर प्रदेश की सरकार दाव पर लगा दी थी। शायद उन्हें पता नहीं था कि वे एक वंचित विरोधी के लिए अपनी सरकार को अस्थिर कर रहे हैं। अब कई 'दलित' लेखक और बुद्धिजीवी पेरियार के बारे में मिली जानकारी के प्रकाश में पेरियार का फिर से मूल्यांकन कर रहे हैं, इस तरह पेरियार का असली वंचित विरोधी चेहरा सामने आ रहा है।
पेरियार राष्ट्रविरोधी, ईश्वर विरोधी, आर्य विरोधी, हिन्दू विरोधी, जाति विरोधी, संस्कृत-हिन्दी विरोधी सोच के सबसे बड़े 'मसीहा' माने जाते हैं। वे पहले दक्षिण में द्रविड़नाडु और फिर तमिलनाडु को अलग राज्य बनाने के सबसे बड़े पक्षधर थे। उनसे बड़ा गैर ब्राह्मणवादी देश में शायद ही कोई हुआ हो। वे तमिलनाडु में घूम-घूमकर अपने ईश्वर विरोधी और 'रेशनलिस्ट' विचारों का प्रचार करते रहे। उनकी 'सच्ची रामायण' पुस्तक काफी विवादित रही। उन्होंने अपने विचारों की प्रखरता दिखाने के लिए भगवान गणेश की प्रतिमाएं तोड़ीं। राम के चित्र जलाए। लेकिन उनके विचारों का नतीजा क्या हुआ? उनका तमिलनाडु पर क्या प्रभाव पड़ा? पेरियार के इन कदमों का थोड़े ही समय प्रभाव रहा। फिर बार-बार उनकी उन्हीं बातों को सुनकर लोग ऊब गए। पेरियार बातें चाहे जितनी बड़ी-बड़ी करते रहे हों लेकिन वे जाति विरोधी कम, ब्राह्मण और वंचित विरोधी ज्यादा थे। पेरियार की क्रांति का परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणों की जगह संपन्न मध्यम जातियां सत्ता में काबिज हो गईं। वंचित संगठन लिबरेशन पैंथर्स के नेता तिरुमालवन कहते हैं-पेरियार के आंदोलन ने मंदिर और सरकार की नौकरियों को मध्यम जातियों के लिए खोला, लेकिन पेरियार के पास वंचितों के लिए अलग एजेंडा नहीं था। पेरियार समर्थक आज भी शंकराचार्य को चुनौती देने को तैयार रहते हैं, लेकिन गैर ब्राह्मणों द्वारा नियंत्रित मंदिरों में वंचितों को प्रवेश देने को उत्सुक नहीं होते थे। पेरियार की एकमात्र उपलब्धि है कि उन्होंने ब्राह्मण एकाधिकार को खत्म किया लेकिन अंधविश्वास, समानता, गैर ईश्वरवाद और 'रेशनल' मानवतावाद के मामले में नाकाम रहे।
वंचित लेखक चंद्रभान प्रसाद कहते हैं, 'मैं नेयवल्ली के पास के एक गांव में गया था। वहां चाय की दुकान पर वंचितों को खड़े होकर ही चाय पीनी पड़ती थी भले ही कुर्सी खाली हो। स्थानीय नाई उनके बाल नहीं काटता था, क्योंकि आज भी तमिलनाडु में वंचित को छूना अपवित्र होना माना जाता है। वंचित बुद्धिजीवी रविकुमार कहते हैं कि पेरियार ने केवल गैर वंचित, गैर ब्राह्मण मध्यम जातियों के लिए काम किया।
इन 'दलित' चिंतकों की बात में दम है। यदि पेरियार के जीवन और उनके भाषणों पर नजर डालें तो असली पेरियार बेनकाब हो जाते हैं। उनकी तरफ बुद्धिजीवियों ने ध्यान ही नहीं दिया। उनके ब्राह्मण विरोध से अभिभूत होकर उन्हें सिर पर लेकर नाचते रहे। किसी ने उनके समग्र रूप को जानने की कोशिश ही नहीं की। जाति को खत्म करने का दावा करने वाले पेरियार की असलियत यह थी कि उन्होंने मध्यम जातियों को छोड़कर किसी के हितों की परवाह नहीं की। उन्होंने तमिल तक नहीं माना। एक जगह वे कहते हैं-तमिलनाडु की कुल आबादी में 2़ 75 प्रतिशत ब्राह्मण हैं, 5 प्रतिशत मुसलमान, 8 प्रतिशत मलयाली और 5 प्रतिशत कर्नाटक के लोग हैं। इन सबको मिलाने पर तमिलनाडु में गैर तमिल 25 प्रतिशत हैं। लेकिन तमिलनाडु के 75 प्रतिशत बड़े पद इन गैर तमिल लोगों के पास हैं। तमिल परेशान हो रहे हैं। वे ब्राह्मण, ईसाई, मुस्लिम व अन्य लोगों के कारण परेशान हो रहे हैं, जो तमिल होने का दावा करते हैं।
वे मध्य जातियों को लेकर इतने व्यस्त थे कि उन्होंने वंचितों की चिंता नहीं की। कई अस्पृश्य नेता थे जो वंचितों की शिक्षा पर बहुत ध्यान देते थे। वे सरकारी क्षेत्र में वंचितों को नौकरियां दिलाने के लिए संघर्ष करते थे पर पेरियार उनका मजाक उड़ाते थे। वे कहते थे, सरकार से नौकरियां, शिक्षा, झोपडियां, घर मांगना और मिरासदारों से दो मुट्ठी ज्यादा चावल मांगना, क्या इन चीजों के लिए लड़ना बुद्धिमानी और सम्माननीय कहा जा सकता है?
इन वंचित नेताओं का कहना है, पेरियार कभी सीधे किसी वंचित संघर्ष में शामिल नहीं हुए। अक्सर पेरियारवादी वक्कोम सत्याग्रह (1924) का हवाला देते हैं और उसके लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं, लेकिन उसकी शुरुआत पेरियार ने नहीं की थी। उसे त्रावणकोर के इज्ड्वा जाति के लोगों ने नारायण गुरु के सहयोग से शुरू किया था। पेरियार तो उसमें हिस्सा लेने वाले हजारों लोगों में से एक थे। वंचित लेखक वेंकटेशन का कहना है-महात्मा गांधी और अन्य हिन्दू नेताओं ने हरिजनों को मंदिरों में प्रवेश दिलाकर सामाजिक समरसता का युग लाने की कोशिश की। हरिजनों को बराबरी का दर्जा दिया जाना पेरियार को नागवार गुजरा। उन्होंने मंदिर के खिलाफ उग्र अभियान शुरू किया। उनका तर्क था-'मैं उनका मंदिर में प्रवेश नहीं होने दूंगा। इसका नतीजा यह होगा कि हरिजनों को पिछड़ी जातियों के बराबर माना जाएगा।'
वंचितों और अल्पसंख्यकों के बारे में उनके विचार नफरत भरे थे। एक जगह वे कहते हैं,'हम ब्राह्मणों से डरते थे और मुसलमानों को ज्यादा महत्व देते रहे। उसके नतीजे हम झेल रहे हैं। यह उस कहावत की तरह है कि गोबर से डरकर हमने मलमूत्र में पांव डाल दिया। साहबों (मुसलमानों) को मिला आनुपातिक प्रतिनिधित्व और वंचितों को मिला नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण। बाकी पदों पर ब्राह्मणों का एकाधिकार हो गया तो हे शूद्र, तुम्हारा भाग्य और भविष्य क्या होगा?'
एक वंचित बुद्धिजीवी एम. वेंकटेशन ने तो रामस्वामी पेरियार के दोहरे चरित्र पर एक किताब लिखी है-'ईवी रामस्वामी नायकर का दूसरा पक्ष', जिसमें उन्होंने पेरियार के पाखंड को बेनकाब किया है। वेंकटेशन अपनी पुस्तक में कहते हैं-'पेरियार ने जुल्म के शिकार बने वंचितों के लिए कुछ नहीं किया। इसके विपरीत वे वंचितों को हिकारत से देखते थे। वे वंचितों से 90 प्रतिशत हिकारत करते थे, उससे ज्यादा हिकारत ब्राह्मणों से करते थे यानी 100 प्रतिशत हिकारत करते थे।' पेरियार वंचितों से किस कदर आतंकित थे इसका अंदाजा उनके बयानों से लगाया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि कपड़े के दाम इसलिए बढ़ने लगे हैं क्योंकि वंचित वर्ग की महिलाएं कपड़े पहनने लगी हैं, बेरोजगारी इसलिए बढ़ रही है क्योंकि वंचित नौकरियों के लिए आवेदन करने लगे हैं, चावल के दाम इसलिए बढ़ गए हैं कि शराब पीने वाले चावल खाने लगे हैं।'इसके बाद वे लिखते हैं कि पेरियार वंचितों, उनकी शिक्षा, उनके कल्याण और विकास के कट्टर विरोधी थे। एक वंचित के तौर पर उनके विचार और आकलन को पढ़ने के बाद मैं इसी नतीजे पर पहुंचा हूं।'
पेरियार को हमेशा द्रविड़नाडु और तमिल संस्कृति का समर्थक माना जाता रहा। पर एक भाषण में पेरियार ने खुद को कन्नड़ बताया है। लेकिन वेंकटेशन की पुस्तक इस मिथक को तोड़ती है। वे अपनी पुस्तक में लिखते हैं-'चालीस साल से ज्यादा समय में मैं तमिल को जंगलियों की भाषा कहता रहा हूं जिसे जंगली ही इस्तेमाल करते रहे हैं। लेकिन जब ब्राह्मणांे और ब्राह्मणों के वर्चस्व वाली सरकार ने हिन्दी को राजभाषा बनाना चाहा तो मैंने हिन्दी को थोपने का विरोध करने के लिए बहुत सीमित तौर पर तमिल भाषा को बढ़ावा देने की वकालत की। केवल एक ही भाषा है जो तमिल को विस्थापित कर सकती है और वह है अंग्रेजी। अंग्रेजी में क्या नहीं है जो तमिल भाषा में है?'
पेरियार के लिए देशभक्ति और आजादी क्या मायने रखती थी यह उनके ही शब्दों में सुन लीजिए-'हालांकि मैंने अंग्रेजों को भारत से जाने से रोका होगा। हो सकता है मैंने भारत की आजादी के मकसद से गद्दारी करके उन्हें रोका होगा, लेकिन मैं ब्राह्मण समुदाय के पापियों को स्थापित करने का समर्थन करने वाला नहीं रहा, जिसका नतीजा होगा उत्तर भारत के लोगों का प्रभुत्व।'
दरअसल पेरियार ने अपनी तरफ से तो देश का विभाजन कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जून 1940 में उन्होंने कांचीपुरम में प्रस्तावित द्रविडि़स्तान का नक्शा जारी किया था, लेकिन उसे अंग्रेजांे का समर्थन नहीं मिला। बाद में इसे संशोधित कर तमिलनाडु की मांग की गई। इस मांग के लिए एक बार उन्होंने राष्ट्रध्वज तिरंगा जलाने और एक बार संविधान जलाने के भड़काऊ कार्यक्रम करने का भी ऐलान किया। इसी तरह पेरियार का 'रेशनलिज्म' भी अजीब और मनमाना था। वे घोषित तौर पर ईश्वर विरोधी थे। वे हिन्दू भगवान के खिलाफ थे, हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां तोड़ते थे, उनके चित्र जलाते थे मगर मुसलमानों और ईसाइयों के ईश्वर से उन्हें प्यार था। उनके सामने उनका 'रेशनलिज्म' गायब हो जाता था।
इस तरह कह सकते हैं, पेरियार महानायक नहीं, खलनायक थे। उनके इस नए रूप के संदर्भ में तमाम सामाजिक न्याय के पुरोधाओं को पेरियार पर पुनर्विचार करना चाहिए। बसपा जैसी पार्टी को भी सोचना चाहिए कि पेरियार को महानायक कैसे कहा जा सकता है। वे वंचितों के महानायक नहीं, खलनायक थे। और केवल वंचितों के ही क्यों, सारे भारत के खलनायक थे, जिन्होंने केवल नफरत फैलाने का काम किया। नए तथ्यों के प्रकाश में उनका पुनर्मूल्यांकन बेहद जरूरी है। – सतीश पेडणेकर
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