इतिहास दृष्टि - भारतीय संसद में कांग्रेस की घिनौनी भूमिका
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इतिहास दृष्टि – भारतीय संसद में कांग्रेस की घिनौनी भूमिका

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Jun 20, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 20 Jun 2015 11:42:10

स्वतंत्र भारत में कांग्रेस सरकार ने न केवल पाश्चात्य 'मॉडल' के संविधान को अपनाया, बल्कि उनके जीवनादर्शों, परंपराओं, धर्म तथा सांस्कृतिक जीवन पद्धति को भी भौंडे ढंग से लागू करने में कोई कसर न रखी। यूरोपीय राष्ट्र 19वीं शताब्दी से भारत को एक ईसाई देश बनाने का स्वप्न लेते रहे, कांग्रेस ने अपने शासनकाल में इस विदेशी मनोकामना को पूरा करने में पूर्ण सहयोग दिया।
ऐतिहासिक संदर्भ
20 मई 1498 का दिन यूरोपीय महत्वाकांक्षी शासकों तथा रोम के पोप षष्टम् के लिए स्वर्ण दिवस था जब वास्कोडिगामा ने भारत की धरती पर अपना पांव रखा। विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने इसे विश्व की एक महान घटना कहा (देखें, उनकी पुस्तक द वैल्थ ऑफ नेशंस, पृ. 526-27) सर जी. वाईवुड़ ने इस तथाकथित खोज को रोमन युग से चले आ रहे लम्बे प्रयत्नों के परिणाम का फल बताया (देखें, रिपोर्ट- ऑफ द ओल्ड रिकार्ड्स ऑॅफ इंडिया ऑफिस, पृ. 256) गोवा और उसके आसपास के क्षेत्र का जबरदस्ती ईसाईकरण हुआ। इसे पूरब का रोम बनाने का प्रयत्न हुआ। ढाई सौ वर्षों (1560-1862) तक राजनीतिक उत्पीड़न द्वारा हिन्दुओं पर नृशंस, क्रूर तथा बर्बर अत्याचार हुए (विस्तार के लिए देखें ए.के. प्रियोलकर, द गोआ इन्क्विजिशन (नई दिल्ली 1961) रिचर्ड बर्टन ने लिखा 'सोने का गोआ' शीष्र ही भूतों का नगर बन गया। विश्वप्रसिद्ध उपन्यासकार वी.एस नायपाल ने इस वीभत्स विजय की तुलना स्पेन के आक्रमणकारी कोर्टिन से की जिसने मैक्सिको की तत्कालीन सभ्यता का विध्वंस किया था (देखें ए मिलियन म्युटिनी (लंदन, 1910)
जो कार्य भयंकर लूटमार तथा कन्वर्जन का पुर्तगालियों ने गोआ में किया, वहां कार्य अंग्रेजों की ईस्ट इण्डिया कंपनी ने किया। पहले 150 वर्षों तक भारत की अपार सम्पत्ति को लूटा तथा 1760 में बंगाल पर कब्जा कर भारत में ईसाई मिशनरियों की सेना को प्रोत्साहन दिया, ईसाई पादरियों ने ईसाई गास्पल के संत मैथ्यू के संदेश जाओ और समस्त राष्ट्रों को अनुयायी बनाओ तथा कन्वर्जन करो को अक्षरश: अपनाने में लग गये। इससे ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक चार्ल्स ग्रांट (1746-1823) तथा एक अमीर ब्रिटिश सांसद विलियम विल्बरफोर्स (1759-1833) का विशेष योगदान रहा। लाला लाजपतराय ने चार्ल्स ग्रांट को ब्रिटिश शासन का महानतम भार कहा है (देखें अनहैपी इंडिया, पृ. 338)
1813 ई. में पहली बार ब्रिटिश संसद में भारत में ईसाई कन्वर्जन के लिए पांच दिनों की लम्बी बहस हुई। इसका विस्तृत वर्णन ब्रिटिश 'पार्लियामेंटरी डीबेट' में उपलब्ध है। विल्वरफोर्स ने अपने दो भाषणों में हिन्दुओं को जी भर कर गालियां दीं। उसने भारतीय समाज को नैतिकता में निम्नतम स्तर का विखंडित तथा अत्यंत पिछड़ा बतलाया (देखें हसडर्ड, 22 जून की संसद की कार्यवाही, कॉलम 834) उसने भारतीय समाज को धूर्त, असभ्य  कामी, क्रूर तथा कायर बतलाया तथा उनमें सर्वाधिक गुणों का अभाव बतलाया (वही कॉलम, 848) इन्हीं गालियों को बाद में जेम्स मिल ने एक लेख 'आर्टिकल ऑन हिन्दूज' भी लिखा जिसमें हिन्दुओं को 39 गालियां दीं। इतना ही नहीं एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में उक्त चिंतन के आधार पर अगले संस्करण में एक नया अध्याय जोड़ा गया।
1813 के चार्टर ऐक्ट में एक नई 23वीं धारा जोड़ी गई जिसमें भारत में ईसाईकरण को कानूनी मान्यता दी गई। कन्वर्जन के लिए अनेक भौंडे तथा वीभत्स तरीके अपनाये गये। सरकारी स्कूलों में बाइबिल पढ़ाई जाने लगी। 1834-1857 के काल में भारत ईसाई प्रचार तथा कन्वर्जन का स्वर्ग बन गया। सरकारी कर्मचारियों को ईसाई बनने के लिए मजबूर किया गया। एक आंकड़े के अनुसार 1850 तक भारत में ईसाइयों के 260 केन्द्र बन गये, इसमें 360 विदेशी पादरी तथा 500 भारतीय प्रचारक थे, 266 चर्चों की स्थापना हो गई थी तथा प्रोटेस्टेंट ईसाइयों की संख्या 91,295 थी, रोमन कैथोलिक की ज्ञात नहीं है। भारत में अंग्रेजों द्वारा ईसाईकरण का षड्यंत्र 1857 की महान क्रांति को एक प्रमुख कारण था। मिशनरी भारत को एक ईसाई देश बनाने में पूर्ण असफल रहे। कंपनी के गुप्तचर विभाग के प्रमुख जे. डब्ल्यू केयी ने घबराकर ईसाइयों को अब मध्यम मार्ग अपनाने को कहा (देखें क्रिश्चियनिटी इन इंडिया ए हिस्टोरिकल नरेशंस, पृ. 500-501) भारत में अंग्रेजों के प्रत्यक्ष शासन स्थापित हो जाने पर भारत मंत्री चार्ल्स वुड ने भारत के वायसराय को ईसाईकरण पर निगरानी तथा नियंत्रण के आदेश दिये (देखें, चार्ल्स वुड्स पेपर्स)
परन्तु 1857-1947 के कालखण्ड में ईसाईकरण की प्रक्रिया चलती रही। जनगणना के आंकड़ों में 0.71 प्रतिशत, 1891 में 0.77 प्रतिशत, 1901 में 0.98 प्रतिशत 1911 में 1.21 प्रतिशत, 1921 में 1.47 प्रतिशत, 1931 में 1.77 प्रतिशत तथा 1941 में 1.91 प्रतिशत रही।
संविधान सभा में असभ्य भूल
विभाजित भारत में भारतीय संविधान में ईसाइयों को कन्वर्जन की इतनी छूट दी गई जो उन्हें ब्रिटिश शासन में कभी कल्पना भी न थी। यह उल्लेखनीय है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू प्रारंभ में भारतीय संविधान बनाने के अत्यंत महत्व के कार्य को ब्रिटेन के सुप्रसिद्ध संविधानशास्त्री सर विलियम आइवर जोनिंग्स 1903-1965 को सौंपना चाहते थे। संविधान के संदर्भ में वे न गांधीजी को सुनना चाहते थे और न डॉ. आंबेडकर के सुझावों को मानने को तत्पर थे। 1813 के चार्टर ऐक्ट में 1897 की क्रांति तक ईसाइयों के कुचक्रों तथा षड्यंत्रों को जानते हुए भी कांग्रेस सरकार ने अनुच्छेद 25 के मौलिक अधिकार के संबंध में अल्पसंख्यकों को छल-कपट, लोभ-लालच, भय तथा आतंक के संदर्भ में खुली छूट पर भारतीय जन समाज के साथ एक असभ्य अपराध किया। इसके लिए न केवल उन्होंने अपने वरिष्ठ नेताओं की भावी संकटों की चेतावनी को सुना और न डॉ. ऑम्बेडकर को सुना जिन्होंने यह प्रश्न आने वाली पीढ़ी पर छोड़ने को कहा। निश्चय ही इससे विभेदकारी, अलगाववादी भारतीय संस्कृति विरोधी तथा अराष्ट्रीय धारा का संरक्षण तथा संबंर्द्धन हुआ।
भारतीय संसद में
1950 ई. में भारतीय संविधान लागू होते ही मुसलमानों तथा ईसाइयो को कन्वर्जन करने की पूरी छूट मिल गई। अब तो ईसाइयों पर ब्रिटिश साम्राज्यवादी कहलाने का तमगा भी हट गया। आगामी चार वर्षों में तीव्रता से ईसाई जनसंख्या बढ़ी। नेहरू जी के सेकुलरवाद ने महात्मा गांधी के सर्वधर्म-समभाव को पीछे खदेड़ दिया। स्टालिन तथा माओत्से तुंग समर्थित भारतीय कम्युनिस्टों के सहयोग से हिन्दू प्रतिरोध बढ़ा।
एक प्रसिद्ध ईसाई मिशनरी ने इसे खुशी का अवसर बतलाते हुए कहा कि इससे पहले भारतीय इतिहास में ऐसा अवसर पहले कभी न आया। उसने लिखा- भारतीय चर्च के लिए खुशी का प्रसंग है कि भारतीय संविधान में दूसरे भारत के अन्य धार्मिक सम्प्रदायों के साथ उन्हें स्वतंत्रता के काल में न केवल अपना संदेश ले जाने में बल्कि अपने मिशन को बढ़ाने तथा अपने कार्य को करने में बिना किसी रुकावट या कौतुहल के अच्छा मौका मिलेगा जो पहले कभी न था (देखें, प्लेंटेनर, द कैथोलिक चर्च इन इंडिया, यस्टरडे एण्ड टुडे, इलाहाबाद, 1964, पृ. 6) स्वाभाविक रूप से मिशनरियों द्वारा ईसाईकरण तथा उनकी धर्मान्धता बढ़ी। 1953 में कश्मीर विश्वविद्यालय में उपकुलपति रहे के.एम. पन्निकर की पुस्तक एशिया एण्ड वेस्टर्न डिमोनियन्स पर विवाद खड़ा किया जिसमें 1498-1945 तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सर्वेक्षण करते हुए मिशन की गतिविधियों का भी वर्णन है (पृ. 481) मिशनरियों द्वारा हो-हल्ला करने पर भारत सरकार के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने चुप्पी साध ली। भारतीय संसद में भी प्रश्न गूंजा, क्या धर्म प्रचार का अधिकार भारतीय नागरिकों पर लागू होता है या भारत में रहने वाले विदेशियों पर भी? मार्च 1954 में इस संदर्भ में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी राय, भारतीय सविधान के अनुरूप दी तथा इसे मौलिक अधिकार बताते हुए कहा कि मौलिक अधिकार भारत के संविधान में प्रत्येक व्यक्ति पर लागू होता है।
1955 में भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में संसद में श्री जेठा लाल हरिकेश ने एक इंडियन कन्वर्जन (रेग्यूलेशन एण्ड रजिस्ट्रेशन) बिल रखा। निश्चय ही यदि बिल स्वीकृत हो जाता तो भारतीय संविधान सभा द्वारा की गई भूल में सुधार हो जात्ाा। भारत में ईसाइयों की मनमानी में बाधा आ सकती थी। इस बिल में कन्वर्जन के नियमों से एक कठोर व्यवस्था अपनाने की बात की गई थी। इसमें छल-कपट, प्रलोभन या भय के द्वारा कन्वर्जन पर कठोर नियम की बातें कही गई थीं। परंतु बिल के विरोध में ईसाई मिशनरियों के समर्थन में स्वयं प्रधानमंत्री श्री नेहरू आये। उन्होंने कहा, मुझे भय है कि यह बिल किसी प्रकार से तरीकों को दबाने में कोई मदद करेगा बल्कि अनेक लोगों के लिए एक महान पीड़ा का कारण हो सकता है। हमें इन बुराइयों को दूसरे ढंग से सुलझाना चाहिए, दूसरे शब्दों में, न कि उस मार्ग से जो दूसरे प्रकार के दमन को प्रोत्साहन दे। ईसाइयत भारत में एक अत्यंत महत्वपूर्ण विचारधारा है जो लगभग 2000 वर्षों से भारत में स्थापित है। हमें ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जो ईसाई दोस्तों या उनके अनुयायियों के मनों में कोई दमन या दबाव की भावना को पैदा करे। इस संदर्भ में मुम्बई के कार्डिनल ग्रेसस के नेतृत्व में एक ईसाई प्रतिनिधि दल पं. नेहरू तथा गृहमंत्री पंडित गोविन्दबल्लभ पंत से मिला। पंत जी ने उनसे सहानुभूति दर्शाते हुए कहा कि सवाल राजनीतिक तथा राष्ट्रीय है, धार्मिक नहीं। इसी दौरान 16 अप्रैल 1994 को मध्य प्रदेश सरकार ने ईसाइयों की गतिविधियों की जांच पड़ताल के लिए जस्टिस नियोगी के नेतृत्व में सात सदस्यीय एक कमीशन नियुक्त किया जिसमें एक ईसाई सदस्य भी था। कमीशन ने अपनी रपट जुलाई 1956 में प्रस्तुत की। जिसमें ईसाई क्रूर कारनामों के घिनौने कार्यों का पर्दाफाश किया तथा मिशनरियों का उद्देश्य भारत के छह लाख ग्रामों का कन्वर्जन बतलाया। इसी भांति जनवरी 1950 से जून 1954 तक पाश्चात्य देशों द्वारा भारत के चर्च मिशन को 29.27 करोड़ रुपए की भारी धनराशि दिये जाने की बात प्रकाश में आई जो उस काल में मूल्य की कीमत से आश्चर्यजनक तथा भौंचक्का करने वाली थी। इस पर भी भारत के गृह विभाग के राज्यमंत्री वी.एस. दातार ने सितम्बर 1956 में नियोगी रपट का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं माना। साथ ही यह भी कहा विदेशी मिशनरियों के कार्य को नियंत्रित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाएगा।  
1960 में श्री प्रकाशवीर शास्त्री ने पुन: पं. नेहरू के काल में भारतीय संसद में बैकवर्ड क्रिमिनल लॉ (रिलीजंस प्रोटेक्शन) बिल रखा गया। यह बिल अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों पर दबाव व अनुचित तरीकों द्वारा कन्वर्जन के संदर्भ में था। सरकार द्वारा यह भी अस्वीकृत कर दिया गया। इसे असंवैधानिक बताते हुए, केन्द्रीय मंत्री ने यह भी कहा कि वे ईसा मसीह के संदेश को मानवता की सेवा तथा ऐसे कार्य में लगे हैं जो विश्व में उनकी महानतम देन थी। खुश होकर एक ईसाई मिशनरी ने संपूर्ण भारत में 1951-71 में 64.9 की वृद्धि देकर भविष्य के प्रति आशावाद की बात की। कैथोलिक विशपों की एक कांफ्रेंस में एक मिशनरी ने कहा कि भारत में मिशन ने प्रोग्राम के पहले भाग को प्राप्त कर लिया है तथा चर्च का अगला कदम उत्तरदायित्वपूर्ण कर्त्तव्य का होगा यानी भारतीय जनता को कन्वर्जन करने का।
1979 में सरकार में श्री मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व काल में श्री ओप्रकाश त्यागी ने धार्मिक स्वातंत्र्य बिल (फ्रीडम ऑफ रिलीजन बिल, 1979) रखा। इसका सर्वाधिक विरोध भारतरत्न प्राप्त मदर टेरेसा तथा उनके अनुयायियों ने किया। संसद के कुछ सदस्यों तथा अल्पसंख्यक आयोग के तीव्र विरोध पर बिल पास न हो सका।
राजीव गांधी ने असंवैधानिक ढंग से 1986 में पोप को राजकीय सम्मान देकर तथा सोनिया-मनमोहन सिंह की सरकार ने ईसाई गतिविधियों की अनदेखी कर उनको प्रोत्साहन दिया। कांग्रेस सरकार तथा उसके नकलची समाजवादियों ने ईसाई मिशनरियों के संघ परिवार के विरोध में साझीदार बन गये। वोट बैंक की खातिर 2008 में हुए ईसाई दंगों तथा उसकी न्यायिक कमीशन की सोमशेखर की रपट पर कोई कार्रवाई न की। जोश में आकर भारत के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने हिन्दू को ही आतंकवादी कह 2011 में मनमोहन सिंह की सरकार में हिन्दू बहुसंख्यक विरोधी एक कानून साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा विधेयक का प्रारूप तैयार किया। कांग्रेस नेताओं ने इसकी आवश्यकता अल्पसंख्यकों के हित में बताई। यह एक ऐसे कानून की योजना थी जो किसी भी साम्प्रदायिक हिंसा के लिए हमेशा बहुसंख्यकों या हिन्दुओं को दोषी मानकर चलेगा। इसमें किसी भी अज्ञात व्यक्ति की शिकायत पर भी कोई हिन्दू गिरफ्तार किया जा सकता था, पर ऐसी कोई शिकायत किसी अल्पसंख्यक के विरुद्ध लागू न होगी। (विस्तार के लिए देखें, एस. शंकर, न्याय का भयंकर मजाक, दैनिक जागरण, 26 अक्तूबर 2013 विश्व में अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए किसी देश के संविधान में या कोई कानून ऐसा न मिलेगा। यह तो अंधेर नगरी चौपट राजा की कहावत का एक हास्यास्पद उदाहरण कहा जा सकता है। पर यह विभेदकारी तथा विघटनकारी बिल कानून न बन सका। इससे पूर्व 2014 के चुनाव में कांग्रेस की शर्मनाक हार हो गई।
अनोखी विडम्बना है कि कांग्रेस सत्ता के ध्वंस से, बहुमत सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी देश के नागरिकों को सबके साथ का संदेश दे रही है, इसके विपरीत दूसरी ओर तथाकथित समाजवाद के पूंजीपति नेता एवं उनके साथी, छह दल मिलकर देश के उत्थान के लिए एकमात्र एजेंडा 'भाजपा को सत्ता से दूर करो' में लगे हुए हैं। राष्ट्र निर्माण की यह विचित्र तथा हास्यास्पद प्रक्रिया है। इसके साथ जोर जबरदस्ती को नियंत्रित करने के लिए शिव सेना के सदस्य ने 27 जनवरी 2015 को एक धर्म स्वातंत्र्य बिल भी प्रस्तुत किया जिसमें जबरदस्ती या छल कपट से कन्वर्जन पर 10 वर्ष के कारावास का प्रावधान है। देखिए देश का भविष्य क्या करवट लेता है!

-डॉ. सतीशचन्द्र मित्तल            

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