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सिद्धांतों और पारदर्शिता की बड़ी बड़ी बात करने वाली आम आदमी पार्टी (आआपा) में नेतृत्व को लेकर जैसा घमासान मचा है, उसने न केवल इस पार्टी के चाल, चरित्र और चेहरे पर सवालिया निशान लगा दिया है बल्कि आआपा का सांप्रदायिक एजेंडा भी उजागर कर दिया है। आआपा के संस्थापक सदस्य प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव के कई सवालों ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को कठघरे में खड़ा कर दिया है।
मैं अरविंद केजरीवाल पर भरोसा करती थी। हमने उनका समर्थन उनके सिद्धांतों की वजह से किया था न कि खरीद-फरोख्त की राजनीति के लिए। मैं आआपा छोड़ रही हूं। मैं इस तरह की खुराफात के लिए आआपा में नहीं आई थी।
-आआपा से नाता तोड़ने वाली अंजलि दमानिया
प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव दिल्ली में आआपा को चुनाव हरवा कर केजरीवाल को संयोजक पद से हटाना चाहते थे लेकिन अपने षड्यंत्र में कामयाब नहीं हो पाए। इन दोनों को अब पार्टी से निकाल देना चाहिए।
-आआपा के लोकसभा सांसद भगवंत मान
26 फरवरी को जब राष्ट्रीय कार्यकारिणी के लोग केजरीवाल से मिलने गए थे तभी उन्होंने यह कह दिया था कि प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव यदि पीएसी में रहे तो वह काम नहीं कर पाएंगे। -मयंक गांधी ने अपने ब्लॉग में लिखा
आआपा को संयोजक पद के बारे में नए सिरे से विचार करना चाहिए। केजरीवाल की दोहरी भूमिका पर विचार होना चाहिए।
– आआपा के लोकपाल एडमिरल रामदास
योगेंद्र यादव ने केजरीवाल पर पार्टी सुप्रीमो के अंदाज में काम करने को लेकर भूषण के आवास पर हुई कार्यकारिणी की बैठक में सवाल उठा दिया था। अरविंद कमरे से बाहर जाने के लिए उठे। केजरीवाल ने कुछ कहना शुरू किया लेकिन पूरा नहीं कर सके। वह रो पड़े। उनकी आंखों से आंसू टपक रहे थे।
-आआपा की दिल्ली इकाई के संयोजक आशुतोष की पुस्तक में खुलासा
आआपा में जो भी केजरीवाल के फैसलों पर आपत्ति जताता है उसे बाहर कर दिया जाता है। प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव आआपा की रीढ़ थे, उनके पीएसी से बाहर होने से आआपा बिना रीढ़ की हो गई है।
यह दुखद है।
-शाजिया इल्मी, आआपा की पूर्व संस्थापक सदस्य
केजरीवाल जिस सीढ़ी से चढ़ते हैं उसे गिरा देते हैं। यही वजह है कि जो लोग अण्णा आंदोलन के जरिए आआपा में शामिल हुए थे उनमें से अधिकांश प्रमुख लोग या तो आआपा से बाहर हो चुके हैं या हो जाएंगे।
-किरण बेदी, भाजपा नेता
मनोज वर्मा
अरविंद केजरीवाल पर भरोसा करती थी। हमने उनका समर्थन उनके सिद्धांतों की वजह से किया था न कि खरीद-फरोख्त की राजनीति के लिए। मैं आआपा छोड़ रही हूं। मैं इस तरह की खुराफात के लिए आआपा में नहीं आई थी। अपने इस ट्वीट के साथ महाराष्ट्र में आआपा का चेहरा रही अंजलि दमानिया ने आआपा से त्यागपत्र दे दिया। अंजलि ने आआपा से इस्तीफा इसलिए दिया क्योंकि उन्होंने एक 'ऑडियो स्टिंग' में केजरीवाल को ऐसी बात करते सुन लिया जिसकी कल्पना वह नहीं करती थीं। लिहाजा भीतर से वे टूट गईं। आंतरिक घमासान के बीच इस 'स्टिंग' में जो बात केजरीवाल कहते सुने जा रहे हैं उसे सुनकर देश और दिल्ली की जनता भी खुद को ठगा सा महसूस कर रही होगी। असल में आआपा के ही एक पूर्व विधायक राजेश गर्ग और अरविंद केजरीवाल के बीच हुई बातचीत का एक 'ऑडियो टेप' सामने आया है। एक चैनल पर खुद राजेश गर्ग ने यह स्वीकार किया कि उनके और केजरीवाल के बीच दिल्ली में पिछली विधानसभा भंग होने से पहले बातचीत हुई थी। टेप में केजरीवाल राजेश गर्ग से यह कहते सुने जा सकते हैं कि 'कांग्रेस के आठ में से छह विधायकों को तोड़ दो और उनकी नई पार्टी बनवाकर आआपा को समर्थन दिलाओ ताकि दिल्ली में सरकार बन सके।' यह टेप सामने आने के कुछ देर बाद ही अंजलि दमानिया ने पार्टी से संबंध तोड़ने की घोषणा कर दी।
इस 'स्टिंग' के साथ ही आआपा की राजनीति में नेतृत्व से लेकर चंदे को लेकर मचे घमासान में नया मोड़ आ गया। केजरीवाल खेमे के निशाने पर चल रहे आआपा के संस्थापक सदस्य और पिछले दिनों पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति पीएसी से बाहर किए गए प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव ने फेसबुक पर पार्टी कार्यकर्ताओं के नाम एक चिठ्ठी जारी कर जो खुलासा किया उसने केजरीवाल पार्टी के सत्ता के लिए कांग्रेस से पुन: जोड़-तोड़ करने और सांप्रदायिक राजनीति के एजेंडे को भी उजागर कर दिया। भूषण और यादव ने यह चिठ्ठी केजरीवाल समर्थकों के उस साझा बयान के जवाब में लिखी है जिसमें केजरीवाल के करीबी माने जाने वाले मनीष सिसोदिया, गोपाल राय, पंकज गुप्ता और संजय सिंह ने एक साझा बयान जारी कर भूषण और यादव पर गंभीर आरोप लगाए थे। माना जा रहा है कि इस साझा बयान के जरिए केजरीवाल समर्थकों ने भूषण और यादव को पार्टी से निकाले जाने की जमीन तैयार करने का काम कर दिया। लेकिन भूषण और यादव ने सीधे कार्यकर्ताओं के नाम चिट्ठी जारी कर खुद पर लगाए जा रहे आरोपों पर न केवल सफाई दी, बल्कि कई ऐसे मुद्दों को सामने ला दिया जो सीधे केजरीवाल को ही कटघरे में खड़ा कर रहे हैं।
मसलन साझी चिट्ठी में यादव और भूषण ने आरोप लगाया है कि 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद केजरीवाल दिल्ली में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहते थे। दोनों ने दावा किया है कि उन्होंने सरकार बनाने का विरोध किया था। दोनों ने पार्टी से इस बारे में लिखी गई चिट्ठियों को सार्वजनिक करने की बात कही है। चिट्ठी में लिखा है कि-'लोकसभा चुनाव के परिणाम आते ही अरविंद भाई ने प्रस्ताव रखा कि अब हम दोबारा कांग्रेस से समर्थन लेकर दिल्ली में फिर से सरकार बना लें। समझाने- बुझाने की तमाम कोशिशों के बावजूद वे और कुछ अन्य सहयोगी इस बात पर अडे़ रहे। दिल्ली के अधिकांश विधायकों ने उनका समर्थन किया। लेकिन दिल्ली और देशभर के जिस-जिस कार्यकर्ता और नेता को पता लगा, अधिकांश ने इसका विरोध किया और पार्टी छोड़ने तक की धमकी दी। यूं भी कांग्रेस पार्टी लोकसभा चुनाव जनता द्वारा खारिज की जा चुकी थी। ऐसे में कांग्रेस के साथ गठबंधन पार्टी की साख खत्म कर सकता था। हमने पार्टी के भीतर यह आवाज उठाई। लेकिन उपराज्यपाल को चिट्ठी लिखी गई और सरकार बनाने की कोशिश हुई। यह कोशिश विधानसभा के भंग होने से ठीक पहले नवंबर माह तक चली रही। हम दोनों ने संगठन के भीतर हर मंच पर इसका विरोध किया। इसी प्रश्न पर सबसे गहरे मतभेद की बुनियाद पड़ी।'
भूषण और प्रशांत ने अपनी चिट्ठी के जरिए कई सवाल उठाए हैं और कई मुद्दों पर अपना पक्ष रखा है। चिट्ठी में दोनों ने लिखा है कि राष्ट्रीय संयोजक पद को लेकर विवाद को बेवजह तूल दिया जा रहा है। प्रचार किया जा रहा है कि केजरीवाल को हटाकर योगेंद्र संयोजक बनना चाहते हैं, जबकि सच यह है कि गत 26 फरवरी को अरविंद के इस्तीफे के खिलाफ उन्होंने वोट किया। इतना ही नहीं इस चिट्ठी में यादव और भूषण ने उन प्रस्तावों का भी जिक्र किया है जो उन्होंने 26 फरवरी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में रखे थे जैसे कि-दो करोड़ के चेक और उम्मीदवार के शराब रखने वाले मामले की जांच हो। राज्यों के फैसले राज्य इकाई ले, हर चीज दिल्ली से तय न हो। पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का सम्मान हो। पीएसी और राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक नियमित हों और पार्टी के फैसलों में 'वालंटियर्स' की आवाज भी शामिल की जाए आदि। सीधे आआपा कार्यकर्ताओं को संबोधित चिट्ठी में भूषण और यादव ने लिखा है कि-'पिछले कुछ दिनों के विवाद से कुछ निहित स्वार्थों को फायदा हुआ है और पार्टी को नुकसान, उससे उबरने का यही तरीका है कि सारे तथ्य सभी कार्यकर्ताओं के सामने रख दिए जाएं। आआपा 'वालंटियर' ही तय करेंगे कि क्या सच है क्या झूठ।' पर दूसरी ओर आआपा पार्टी ने 60 विधायकों के हस्ताक्षर वाली चिट्ठी मीडिया में पहले ही जारी कर दी। इस चिट्ठी मेें भूषण और यादव को पार्टी से निकालने की मांग की गई है। पार्टी के भीतर दोनों को निकालने की भूमिका तैयार है।
तो क्या आआपा में केजरीवाल की मर्जी ही सब कुछ है? यह सवाल पार्टी के भीतर और बाहर उठ रहा है। कारण यह है कि बात जब मर्जी की हो तो दूसरों की नहीं चलती। बस सिर्फ 'मैं ही मैं' का भाव रहता है। भारी बहुमत के साथ दिल्ली की सत्ता संभालने वाली आआपा का भी कुछ ऐसा ही हाल है। सिद्धांतों और पारदर्शिता की बड़ी-बड़ी बात करने वाली आआपा में नेतृत्व को लेकर जैसा घमासान मचा है उसने इस पार्टी के चाल, चरित्र और चेहरे पर सवालिया निशान लगा दिया है। षड्यंत्रों का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि आआपा के नेता एक दूसरे की बातचीत का 'स्टिंग' तक कर रहे हैं। 'ब्लॉग' लिखे जा रहे हैं। पत्रों के जरिए गंभीर आरोप लगा रहे हैं, सवाल उठा रहे हैं और फिर एक दूसरे को पार्टी में या तो किनारे लगा रहे हैं या आआपा छोड़ कर जाने को मजबूर कर रहे हैं। इनमें से अधिकांश वे नेता हैं, जो अण्णा हजारे के आंदोलन से लेकर अरविंद केजरीवाल के दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने तक उनके साथ खड़े नजर आते थे। जैसे आआपा के संस्थापक सदस्य प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव। बीती चार मार्च को दिल्ली में हुई आआपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को आआपा की राजनीतिक मामलों की समिति (पीएसी) से बाहर कर दिया गया। भूषण और यादव को पीएसी से हटाने के प्रस्ताव पर आआपा में साफ
विभाजन दिखा।
एक तरफ भूषण और यादव के खिलाफ कार्रवाई का विरोध करने वाले थे तो दूसरी ओर केजरीवाल समर्थक जो पहले से ही भूषण और यादव के खिलाफ लामबंद होकर आए थे। इतना ही नहीं आआपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और प्रमुख नेताओं में से एक मयंक गांधी ने जो ब्लॉग लिखा उससे तो यही लगता है कि भूषण और यादव को पीएसी से बाहर का रास्ता दिखाने की पटकथा किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने लिखी थी और उन्हीं के कहने पर ही दोनों के खिलाफ कार्रवाई की गई। मयंक गांधी ने अपने सार्वजनिक 'ब्लॉग' में लिखा है कि, 26 फरवरी को जब राष्ट्रीय कार्यकारिणी के लोग केजरीवाल से मिलने गए थे तो उन्होंने यह कह दिया था कि प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव यदि पीएसी में रहे तो वह काम नहीं कर पाएंगे। मयंक गांधी के 'ब्लॉग' पर दूसरे खेमे ने सवाल उठाया। पर हुआ वही जिसका पहले से ही अंदाज था यानी भूषण औार यादव की पीएसी से छुट्टी। यह बात अलग है कि पार्टी में मचे घमासान के बीच मुख्यमंत्री केजरीवाल अपनी खांसी का इलाज करवाने के लिए बंेगलुरू चले गए। बंेगलुरू जाने से पहले केजरीवाल सिर्फ इतना बोले कि जो हो रहा है उससे दुख हो रहा है।
लेकिन केजरीवाल के साथ काम कर चुके उनके राजनीतिक विरोधियों को कोई हैरानी नहीं हो रही। जैसा कि अण्णा हजारे के आंदोलन से लेकर आआपा की संस्थापक सदस्यों में शामिल रही शाजिया इल्मी कहती हंै कि, आआपा में जो भी केजरीवाल के फैसलों पर ऐतराज जताता है उसे बाहर कर दिया जाता है। भूषण और यादव आआपा की रीढ़ थे उनके पीएसी से बाहर होने से आआपा बिना रीढ़ की हो गई है। यह दुखद है। केजरीवाल से मतभेद के कारण शाजिया ने आआपा छोड़ कर भाजपा का दामन थामा था। असल में माना यह जा रहा है कि भूषण और यादव आआपा की पीएसी में दो ऐसे नेता थे तो नीतिगत मुद्दों पर केजरीवाल से सीधा सवाल जवाब करने का कद रखते थे लिहाजा दोनों को पीएसी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। आआपा के संगरूर से लोकसभा सांसद भगवंत मान तो कहते हैं कि, प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव दिल्ली में आआपा को चुनाव हरवा कर केजरीवाल को संयोजक पद से हटाना चाहते थे, लेकिन अपने षड्यंत्र में सफल नहीं हो पाए। इन दोनों को अब पार्टी से निकाल देना चाहिए।
इस बीच आआपा की दिल्ली इकाई के संयोजक और पत्रकार आशुतोष ने अपनी पुस्तक- 'द क्राउन प्रिंस, द ग्लैडिएटर एंड द होप' में जो खुलाया किया है वह और न केवल दिलचस्प है बल्कि यह बताता है कि पार्टी संयोजक पद को लेकर नेतृत्व का झगड़ा आआपा में नया नहीं है। किताब में लिखा है कि दिल्ली के जंगपुरा में प्रशांत भूषण के आवास पर पिछले साल छह से आठ जून तक आआपा की कार्यकारिणी की बैठक हुई थी। उस बैठक में योगेंद्र यादव ने केजरीवाल पर पार्टी सुप्रीमो के अंदाज में काम करने को लेकर सवाल उठा दिया था। कभी केजरीवाल की सहयोगी रही शाजिया इल्मी और अन्य नेताओं ने आंतरिक लोकतंत्र के अभाव का हवाला देकर पार्टी छोड़ दी थी। कार्यकारिणी की बैठक के बारे में किताब में लिखा है कि, अरविंद का चेहरा उतरा हुआ था। वह कमरे से बाहर जाने के लिए उठे। केजरीवाल ने कुछ कहना शुरू किया, लेकिन पूरा नहीं कर सके और वह रो पड़े। उनकी आंखों से आंसू गिर रहे थे। बैठक में केजरीवाल ने कहा था कि-'आप लोग किसी और को राष्ट्रीय संयोजक चुन लें, मैं इसे नहीं चाहता।' केजरीवाल की आंखंे एक बार फिर गीली हो गईं।
वैसे उस बैठक में मौजूद नेताओं का कहना है कि उस कार्यकारिणी में केजरीवाल तीन बार रोए थे। संयोग से इस बार भी विवाद की एक वजह केजरीवाल का पार्टी संयोजक और मुख्यमंत्री दोनों पदों पर बने रहना भी माना जा रहा है। आआपा के आंतरिक लोकपाल एडमिरल रामदास ने दोहरी भूमिका को लेकर सवाल उठाया है। पार्टी के भीतर इस सवाल को भूषण और यादव ने अपने -अपने ढंग से विचार-विमर्श के लिए उठाया भी कि आखिरकार केजरीवाल मुख्यमंत्री और आआपा का संयोजक पद दोनों कैसे संभालेंगे? यह आआपा के सिद्धांतों के खिलाफ है। प्रशांत भूषण ने एक चैनल पर कहा कि उन्हें और यादव को लेकर पीएसी के फैसले से कार्यकर्ताओं का दिल टूटा है। पार्टी में आस्था रखने वालों में गलत संदेश गया है। बकौल भूषण केजरीवाल पार्टी में निर्णय लेने की प्रक्रिया पर अपना प्रभुत्व चाहते हैं जिसका उन्होंने और यादव ने विरोध किया।
लेकिन बात इतनी भर नहीं असल में तो भूषण और यादव के सवाल पार्टी की पोल पट्टी खोल रहे हैं। पार्टी की कथनी करनी के पाखंड को उजागर कर रहे हैं। और जब कोई पार्टी विचारधारा के बजाय किसी व्यक्ति की मर्जी से चलती है तो सवालों पर बहस की गुंजाइश नहीं बचती। असल में भूषण इस सवाल को उठा रहे हैं कि दिल्ली में आआपा ने 23 दागी यानी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को उम्मीदवार क्यों बनाया? एक दर्जन उम्मीदवारों को पैसे लेकर टिकट देने की बात में कितनी सच्चाई है? क्यों नहीं इसकी जांच होनी चाहिए? असल में भूषण की ओर से लिखा गया एक पत्र 26 फरवरी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सदस्यों के बीच वितरित किया था।
इस पत्र में पार्टी में पारदर्शिता, जवाबदेही, कोष, अनैतिक तौर-तरीके, साधन और पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र जैसे कई सवाल उठाए गए हैं। पत्र में पूछा गया कि चुनाव से पहले तो आआपा ने कांग्रेस और भाजपा को पार्टी के अंदर सूचना का अधिकार लागू करने का सवाल उठाया था पर खुद आआपा में लागू क्यों नहीं किया गया है? पीएसी और कार्यकारिणी के फैसलों को भी सार्वजनिक नहीं किया जाता है। ऐसे में संयोजक जो भी कहते हैं वहीं पार्टी का रुख मान लिया जाता है। क्या यही आंतरिक लोकतंत्र है? केजरीवाल पर व्यक्तिवाद और हाईकमान संस्कृति को लेकर भी सवाल उठाया गया है। तो सवाल आआपा के चंदे और खर्च को लेकर
भी है।
मसलन चंदे की जानकारी तो आआपा की वेबसाइट पर दी गई है, लेकिन खर्चे की जानकारी नहीं दी जाती है। खर्चे का फैसला कुछ लोगों द्वारा मनमर्जी से लिया जाता है। यही नहीं अपना लक्ष्य साधने के लिए अनैतिक तरीकों को भी अपना लिया जाता है। पार्टी में गुपचुप तरीके से फैसले लेने पर भी सवाल है। असल में जिस दिन यह पत्र कार्यकारिणी के सदस्यों के बीच बंटा था उसी दिन भूषण को पीएसी से बाहर करने की पटकथा तैयार हो गई थी।
वैसे आआपा के घमासान की वजह केवल प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव के सवाल ही नहीं, बल्कि असल वजह पार्टी पर वर्चस्व को लेकर है। केजरीवाल और उनकी मंडली को इस बात का एहसास है कि भूषण और यादव के रहते वे अपने ढंग से पार्टी नहीं चला पाएंगे। दूसरी वजह दिल्ली में भारी भरकम जीत के बाद आआपा के कई नेताओं की नजर आगामी राज्यसभा चुनाव पर है। राज्यसभा में जाने को लेकर एक अनार कई बीमार वाली स्थिति है। तो पार्टी के कई नेता आआपा का राष्ट्रीय स्तर पर और दूसरे राज्यों में विस्तार चाहते हैं।
जाहिर है केजरीवाल के रुख के कारण आआपा के कुछ नेताओं को भी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा टूटती लग रही है। पार्टी के भीतर तमाम नेता ऐसे हैं तो दबे सुर में यह पूछने लगे हैं कि अण्णा के आंदोलन से निकले केजरीवाल ने पहले तो राजनीति करने से मना किया। अण्णा राजनीति को कीचड़ मानते हैं पर केजरीवाल ने राजनीतिक पार्टी बना ली। अण्णा के आंदोलन में शांति भूषण, प्रशांत भूषण, केजरीवाल, योगेंद्र यादव, किरण बेदी, शाजिया इल्मी, विनोद कुमार बिन्नी जैसे अनेक लोग शामिल थे, लेकिन आआपा में जैसे-जैसे केजरीवाल का प्रभुत्व बढ़ता गया तो किसी ने पहले साथ छोड़ा तो किसी ने बाद में। जिसने नहीं छोड़ा उसे पार्टी में किनारे लगा दिया गया। लिहाजा ऐसे नेताओं को यह दर्द भी है कि आंदोलन खड़ा किया सबने, पार्टी भी बनाई मिलकर, लेकिन अब जब बारी आई सत्ता की तो केजरीवाल मुख्यमंत्री भी और पार्टी के संयोजक भी। आखिर क्यों?
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आआपा के भीतर सुलगते सवाल
क्या अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री और आआपा संयोजक की दोहरी भूमिका निभानी चाहिए? क्या यह पार्टी सिद्धांतों के खिलाफ नहीं है?
एक पद- एक व्यक्ति के सिद्धांत का क्या होगा?
पार्टी और सरकार एक व्यक्ति के ईद-गिर्द ही घूमेगी तो दूसरी राजनीतिक पार्टियों से कैसे अलग होगी?
दिल्ली में आआपा ने 23 दागी यानी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को उम्मीदवार क्यों बनाया?
एक दर्जन उम्मीदवारों को पैसे लेकर टिकट देने की बात में कितनी सच्चाई है? इसकी जांच क्यों नहीं होनी चाहिए?
चुनाव से पहले आआपा ने कांग्रेस और भाजपा को पार्टी के अंदर सूचना का अधिकार लागू करने का सवाल उठाया था पर खुद आआपा में लागू क्यों नहीं किया गया है?
पीएसी और कार्यकारिणी के फैसलों को सार्वजनिक नहीं किया जाता है। ऐसे में संयोजक जो भी कहते हैं वही पार्टी का रुख मान लिया जाता है। क्या यही आंतरिक लोकतंत्र है?
चंदे की जानकारी तो आआपा की वेबसाइट पर दी गई है लेकिन खर्चे की जानकारी नहीं दी जाती है क्यों?
दिल्ली में पिछले साल सरकार गिरने के बाद भी आआपा- कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने की कवायद क्यों कर रही थी?
पार्टी के फैसलों में पारदर्शिता की कमी। गुपचुप फैसले क्यों?
आआपा की सांप्रदायिक
राजनीति का खुलासा
यह बात कोई और कहता तो शायद इतना महत्व नहीं रखती, लेकिन बात जब आआपा के भीतर के लोगों के बीच से ही सामने आई है तो अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी की सांप्रदायिक राजनीति को लेकर भी सवाल उठ खड़ा हुआ है। आआपा के संस्थापक सदस्य प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव ने सांप्रदायिक और भड़काऊ पोस्टर के साथ अमानतुल्लाह की भूमिका को लेकर जो सवाल खड़ा किया है उससे यही संदेश निकल रहा है कि 'केजरीवाल पार्टी' ने दिल्ली का चुनाव जीतने के लिए सांप्रदायिकता का सहारा लिया।
भूषण और यादव ने जुलाई, 2014 का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस माह जब कांग्रेस के कुछ मुसलमान विधायकों के भाजपा में जाने की अफवाह चली, तब दिल्ली में मुस्लिम इलाकों में एक गुमनाम सांप्रदायिक और भड़काऊ पोस्टर लगा। पुलिस ने आरोप लगाया कि यह पोस्टर आआपा पार्टी ने लगाया था। दिलीप पांडे और दो अन्य 'वालंटियर' को आरोपी बताकर इस मामले में गिरफ्तार भी किया गया। इस पोस्टर की जिम्मेदारी पार्टी के एक कार्यकर्ता अमानतुल्लाह ने ली और अरविंद ने उनकी गिरफ्तारी की मांग पर बाद में अमानतुल्लाह को ओखला का प्रभारी और फिर पार्टी का उम्मीदवार बनाया। योगेंद्र ने सार्वजनिक बयान दिया कि ऐसे पोस्टर आआपा की विचारधारा के खिलाफ हैं। साथ ही यादव ने विश्वास जताया कि इस मामले में गिरफ्तार साथियों का इस घटना से कोई संबंध नहीं है। भूषण और यादव ने लिखा है कि पार्टी ने एक ओर तो कहा कि इस पोस्टर से हमारा कोई लेना देना नहीं है, लेकिन दूसरी ओर योगेंद्र के इस बयान को पार्टी विरोधी बताकर उनके खिलाफ कार्यकर्ताओं में विष वमन किया गया। दोनों ने कार्यकर्ताओं से पूछा है कि-'आप ही बताइये,क्या ऐसे मुद्दे पर हमें चुप रहना चाहिए था?' भूषण और यादव का उक्त सवाल इस बात की पुष्टि करता है कि मजहबी राजनीति को साधने के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सांप्रदायिक हथकंड़ा अपनाया गया।
यह तो बात रही भूषण और यादव की लेकिन सच तो यह है कि दिल्ली विधानसभा के बीते चुनाव में जिस प्रकार से मजहबी राजनीति हुई और जिस तरह से दिल्ली के विभिन्न इलाकों में चर्च को निशाना बनाया गया उसने भी कई तरह के सवाल खड़े कर दिए। वैसे दिल्ली में चुनाव के दौरान चर्च पर हमले की झूठी अफवाहें प्रचारित की गईं। जांच के बाद चर्च पर कथित हमलों की कुछ और ही कहानी सामने आई। तो क्या राजनीतिक लाभ के लिए नई राजनीति करने का दावा करने वालों ने चर्च को निशाना बनाया?
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