संघ-पथ का अविश्रांत पथिक
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संघ-पथ का अविश्रांत पथिक

by
Mar 16, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Mar 2015 11:41:22

 

माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी
जिस महापुरुष की प्रेरणा और ज्ञान से हम कार्य करते हैं, उसने अपने हृदय पर सत्संस्कार करके अपने अन्दर के सारे अवगुणों का उन्मूलन कर सद्गुणों को प्रकट किया। संघ के जन्मदाता का यदि हम स्मरण करें तो हम भी अपने स्वभाव पर नियंत्रण ला उसमें परिवर्तन अवश्य कर सकते हैं। बाल्यावस्था में बड़ा उग्र स्वभाव, अपनी टेक पर अड़े रहना यह थी उनकी कुल परंपरा। सारा कुल ही बड़ा क्रोधी और वे स्वयं महाक्रोधी। किन्तु उनके तेजस्वी अन्त:करण ने जिस दिन से इस विशाल संगठन को निर्माण करने का निश्चय किया उसी दिन से उन्हें क्रुद्ध होते हुए शायद ही किसी ने देखा हो। उन्होंने अपने स्वभाव को संगठन के अनुकूल अमृतमय बनाकर दिखाया। वही हमारे लिए सर्वथा योग्य है।
उनके जीवन के दैनिक क्रम में मैंने केवल अपने स्वभाव को बदलने की चेष्टा ही नहीं देखी परन्तु परम श्रेष्ठ गुणों को धारण करने का आत्मविश्वासपूर्ण प्रयास भी पाया किन्तु उस प्रयत्न में इस प्रकार के अहंकार का लेशमात्र भी उदय नहीं हुआ था कि मैं कोई बड़ा आदमी बन रहा हूं। मैं बड़ा अहंकारशून्य और बड़ा नम्र हूं यह भी अहंकार का एक बड़ा भयानक प्रकार है। अभिमानरहित कतृर्त्व से मन को स्थायी आनन्द प्राप्त होता है। अत: इस अहंकार को दूर करना ही श्रेयस्कर है और इसके लिए एकमात्र उपाय है निरन्तर चिन्तन। परमपूजनीय डॉक्टर जी ने इसे सुसाध्य कर परमश्रेष्ठता को प्रकट किया है। हम भी उसी महापुरुष के उदाहरण को सामने रख अपने हृदय की ऐसी रचना करें कि अन्त:करण आत्मविश्वासपूर्ण हो परन्तु अहंकार का लेश भी न हो।
जीवन की प्रत्येक घटना में संघ-दृष्टि
डॉक्टर साहब ने छोटी अवस्था से लेकर अन्त तक कोई भी कार्य अपने लिए नहीं किया। अपना पेट भरने की उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। समाज के लिए जीने की भावना और निरन्तर कार्य करने की लगन, बस यही थी उनकी संपूर्ण भावना जो कुछ पढ़ा-लिखा वह भी इसी दृष्टि से कि जिससे लोगों के दिलों में सद्भाव ही उत्पन्न हो। इसी कारण डॉक्टर की उपाधि उन्होंने प्राप्त की थी किन्तु डाक्टरी एक दिन भी नहीं की। इसी प्रकार जब चाचा ने विवाह के लिए उनको उपाय करने की अनेक चेष्टाएं कीं तो उन्होंने एक पत्र में स्पष्ट लिख दिया कि मेरे जीवन का एक ही ध्येय है और मैंने अपने जीवन को उस ध्येय के साथ एकरूप भी कर दिया है, अतएव वैयक्तिक सुखोपभोग और पारिवारिक जीवन के लिए अवकाश कहां?
जहां सदा महाशिवरात्रि का उपवास विराजता हो वहां जीवनसर्वस्व संघ को दे देना यह महान त्याग ही है। हमारे तत्व के साक्षात् प्रतीक हमारे नेता का सारा जीवन आर्थिक कठिनाइयों में ही बीता। एक बार उनसे मिलने के लिए घर पर आये हुए एक सज्जन जब चलने की जल्दी करने लगे तो उन्होंने चाय के लिए आग्रह कर उन्हें ठहरा लिया। पन्द्रह मिनट तक भी जब चाय के दर्शन न हुए तो वह सज्जन चलने के लिए पुन: उद्यत हो गये। लोक-लज्जा के कारण एक बार चाय का वचन दे, बिना चाय पान करवाये आगत सज्जन को वे कैसे जाने दे सकते थे? स्वयं अन्दर गये तो पता लगा कि वहां ठण्डे पानी के सिवाय और कुछ भी नहीं। घर में केवल भाई की स्त्री थी। बाजार से चीज लाने वाला कोई छोटा बच्चा भी नहीं था। तुरन्त बाजार स्वयं गये और चाय, चीनी ले आये और फिर थोड़ी देर में चाय आई। परन्तु यह व्यक्ति भी बड़ा चतुर था, तुरन्त वास्तविकता को ताड़ गया। उसको पता नहीं था कि डॉक्टर जी का घर कैसे चलता है कारण डाक्टरजी हमेशा बालक के समान हंसते हुए प्रसन्नचित ही मिलते थे।
वाणी में असामान्य माधुर्य
उन्होंने वाणी की उग्रता के स्थान पर असामान्य माधुर्य का प्रयत्नपूर्वक प्राप्त किया कतृर्त्ववान व्यक्ति की वाणी में उग्रता स्वाभाविक ही है और संघ कार्य आरंभ करने से पहले डाक्टरजी में यह उग्रता बहुत थी। उनके भाषण अत्यन्त तेजस्वी और उत्तेजक होते थे। 1921 में उनके एक भाषण की उग्रता के कारण उनपर अभियोग भी चला। उस अभियोग में अपनी सफाई में जो भाषण उन्होंने दिया था, वह इतना उग्र था कि न्यायाधीश महोदय ने कहा कि ऌ्र२ िीाील्लूी ्र२ ेङ्म१ी २ी्रि३्रङ्म४२ ३ँंल्ल ँ्र२ २स्रीीूँ. संघ में दिये गये उनके अनेकों भाषणों में ओज है परन्तु उग्रता और उच्छृंखलता नहीं। असामान्य माधुर्य है परन्तु कोई भी मधुरता का उन्होंने प्रयत्नपूर्वक अभ्यास किया था, क्योंकि उन्होंने समझ लिया था कि राष्ट्रोद्धार का कार्य वाणी की मधुरता के बिना नहीं चल सकता।
अजातशत्रु- परमपूजनीय डॉक्टर जी
वह श्रेष्ठ चरित्र इतना उच्च था कि शत्रु भी उनकी किसी बात पर उंगली न उठा सकते थे, किन्तु ठीक उसके विपरीत उनके हृदय में डॉक्टर जी के लिए आदर का स्थान था।
एक ओर निरन्तर कष्टों के घेरे में पड़े हुए डॉक्टर जी और उस पर संघ कार्य की चिन्ता। एक व्यक्ति के बारे में कितनी चिन्ता करनी पड़ती है, कितना कष्ट उसको संगठन में बनाये रखने के लिए उठाना पड़ता है इसकी कल्पना हमें कहां? कारण कार्य का सम्यक दर्शन हमें नहीं हुआ। संघकार्य रचनात्मक कार्य है। उसमें एक-एक व्यक्ति के स्वभाव गुण का विचार कर प्रेम की छाया में दिनरात उसे बढ़ाना होता है। इसी एकमात्र चिन्ता में उनका जीवन व्याप्त था, परन्तु फिर भी ऐसा मालूम पड़ता था मानो आनन्द उनके हृदय में से फूट फूटकर निकलता हो, उनके पास जो रोता हुआ गया, हंसता हुआ
ही लौटा। नैसर्गिक रूप से तो वे इस महान कार्य के सर्वोच्च स्थान पर आरूढ़ हो ही चुके थे। स्वयंमेव मृगेन्द्रता के सिद्धांत के अनुसार इच्छा न रहते हुए भी हमारे सरसंघचालक के पद पर वे आसीन हो गये। इसकी प्राप्ति के लिए न उनमें तिलमात्र लालसा थी और न ही इसकी स्थिरता के लिए कोई विधान बना डालने का रंचमात्र भी विचार। वे तो इसी भावना से कार्य करते थे कि जब तक इस महान उत्तरदायित्व को सम्हालने वाला और कोई तैयार नहीं होता तब तक ही कार्य को स्वयं उठाने का उनका संकल्प था और अन्य कोई उसके योग्य बन भी न सका। अपने इन महागुणों के कारण ही वे आज के युग प्रवर्तक बन गये। मैं नेता हूं और बाकी मेरे अनुयायी हैं। ऐसा कोई भाव उन्हें छू भी नहीं
गया था-
दीर्घ जीवन की मुझे इच्छा नहीं,
मेरा कार्य ही मेरा अस्तित्व है।
उनके जीवन में रहस्य था तो यही कि उनका व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन दोनों एक थे- अंगूर के समान अन्तर्बाह्य एक सा। परिपूर्ण अमृतमय चारित्र्य, ध्येय में प्रखर निष्ठा, अहोरात्रि अविश्रांत कार्य यही थी उनकी परम निधि। अस्वस्थ होकर भी विश्राम वे न करते थे। लोग कहते थे कि आपका जीवन शीघ्र ही समाप्त हो जायेगा, किन्तु जीने की उन्हें तनिक भी चिन्ता
न थी। वे कहा करते थे कि मेरा अस्तितव तो मेरा कार्य ही है। इससे भिन्न किसी अस्तित्व की मैं कल्पना नहीं कर सकता। अस्वस्थता में जबकि शरीर साथ नहीं देता था तब भी रात-रात भर जागकर एक-एक को बुलाकर वे बातचीत करते रहते थे। विश्राम लेने का अवकाश उन्हें कहां था? वे कहा करते थे कि, मुझे जो मर्ज है उसकी दवा मैं जानता हूं। जो होना होगा सो हो जायगा। उसका मैं कुछ भी नहीं कर सकता। जो होना था वही हुआ भी। जीवन की परवाह न की। सारी जवानी कार्य करने में गई और यौवन में ही कतृर्त्व की प्रखर अग्नि में शरीर भी स्वाहा
हो गया।
दीक्षान्त मंत्र
सम्पूर्ण जीवन में संघ व्याप्त हो कार्य करते-करते कभी भ्रम हो जाता है कि चारों ओर के इस कोलाहल में मेरी क्षीण वाणी कौन सुनेगा? यह धरणा व्यर्थ है। सब सुनेंगे और अवश्य सुनेंगे। यदि मेरे शब्दों के पीछे त्याग, तपस्या और चारित्र्य हैं तो मैं ही हूं इसीलिए लोग सिर झुकाकर सुनेंगे यह विश्वास कार्यकर्ता में होना
ही चाहिए।
जब सब दूर का वातावरण था, अपने कहलाने वाले जब पागल थे, तब उस एक पुरुष की वाणी सबने सुनी और सुननी ही पड़ी। आज तो हम लाखों की संख्या में वही वाणी बोल रहे हैं। लोग कैसे नहीं सुनेंगे? इस बात के पीछे उनका अटल विश्वास, निष्ठा, तपस्या, पराक्रम, परिश्रम और श्रेष्ठ चारित्र्य था इसीलिए लोगों को उनकी वाणी को सुनना ही पड़ा। जिसने अपने जीवन को होम में जला दिया। संघ को तेज प्रदान किया, हम में भी उस महापुरुष का तेज होना चाहिए।
(पुस्तक 'राष्ट्र साधना' से साभार)

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