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सूर्यनारायण राव
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज एक सुविख्यात संगठन है। कई दशक पहले बीबीसी ने इसे उस वक्त का सबसे व्यापक गैर सरकारी स्वयंसेवी संगठन बताया था, जो भारत में हिन्दू-एकजुटता के लिए कार्यरत है। तबसे रा.स्व. संघ का व्याप कई गुना बढ़ गया है। इसके बावजूद संघ विचार परिवार से बाहर बहुत कम लोग हैं जो इस सुगठित संगठन के संस्थापक यानी डॉ. केशवराव बलिराम पंत हेडगेवार के बारे में जानते हैं।
डॉ. हेडगेवार जन्म से ही प्रखर देशभक्त थे, उनकी यह उत्कट देशभक्ति उस वक्त सबके सामने आ गई जब वे मात्र 8 साल के थे। बालक केशव ने ब्रिटिश रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण की 60वीं वर्षगांठ पर बंटी मिठाई फेंक दी थी। कालांतर में अनेक अवसरों पर उनकी यह राष्ट्रनिष्ठा परिलक्षित हुई। उनके अंदर इस बात को लेकर जबरदस्त मंथन चलता रहता कि भारत माता किसी भी कीमत पर विदेशी दासता से मुक्त होनी चाहिए। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए उन्होंने हर तरह के आंदोलन में भाग लिया, चाहे वह क्रांतिकारी आंदोलन हों, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस हो या हिन्दू महासभा। उन्होंने एक अखबार भी शुरू किया था। वे उस वक्त जिस भी गतिविधि में भाग लेते उसमें पूरे नि:स्वार्थ भाव से समर्पित रहते। उन्हें न यश की कामना थी, न नाम की, न धन की। वे डाक्टरी की पढ़ाई करने कलकत्ता गए तो उसमें भी उनकी पहली इच्छा उस वक्त की ब्रिटिश राजधानी में क्रांतिकारियों के बारे में जानने और उनके साथ जुड़ने की थी। डाक्टरी की डिग्री लेने के बाद उन्होंने एक दिन के लिए भी डाक्टरी नहीं की। हालांकि उनका जीवन पैसे के अभाव में ही गुजरा, कई बार तो परिस्थितियां बेहद कठिन हो जाती थीं। उनका पूरा जीवन देश के लिए समर्पित था और उनके अन्दर इसके लिए काम करने की उत्कट इच्छा थी।
कलकत्ता से लौटने के बाद, उन्होंने नागपुर और उसके आसपास समाज में काम करते हुए 1922 में प्रांतीय कांग्रेस में संयुक्त महासचिव का पद ग्रहण किया। उनकी वाणी में एक ओज था, उनके शब्द लोगों को आकर्षित करते थे और युवाओं में जोश जगाते थे। इसीलिए अंग्रेज सरकार ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें अदालत में ला खड़ा किया, जहां उन्होंने पूरी दमदारी से अपने बचाव में दलील दी। मुकदमा सुनने बाले जज ने कहा, 'उनका वह सार्वजनिक भाषण उतना द्रोहकारी नहीं था जितनी उनकी यह बचाव की दलील है।' बचाव में रखे गये अपने तर्कों के बाद डॉ. हेडगेवार ने छोटा सा भाषण भी दिया, जिसमें प्रमुख बात थी- 'भारत भारतीयों का है, इसलिए हम स्वतंत्रता की मांग करते हैं…। हमें पूर्ण स्वतंत्रता से कम कुछ भी नहीं चाहिए, और जब तक हम यह प्राप्त नहीं कर लेंगे हम शांति से नहीं बैठ सकते…।' जज ने उन्हें एक साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। एक साल बाद उनके जेल से रिहा होने पर मोतीलाल नेहरू सहित कई प्रमुख नेता उन्हें लेने पहुंचे थे। इस अवसर पर मोतीलाल ने भाषण भी दिया था जिसके जवाब में डाक्टर साहब ने बहुत छोटी, परंतु धारदार बात कही- 'हमें आज देश के सामने उच्चतम नैतिक आदर्श रखने होंगे। सम्पूर्ण स्वतंत्रता से कुछ भी कम हमें स्वीकार नहीं होनी चाहिए… चाहे मौत भी सामने आकर खड़ी हो जाए तो भी हम अपने पथ से नहीं डिगेंगे। हमें अपने मन में अंतिम लक्ष्य की लौ सदा जलाए रखनी होगी और चुपचाप संघर्ष करते रहना होगा…'।
डॉ. हेडगेवार कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े थे। उन्होंने राजनीतिक और सामाजिक, दोनों तरह के संगठनों के कार्यकर्ताओं में बहुत ज्यादा अनुशासनहीनता अनुभव की। इसे दूर करने के लिए उन्होंने कांग्रेस के भीतर ही एक अनुशासनबद्ध स्वयंसेवी दल गठित करने की कोशिश की। कुछ लोगों को यह पसंद नहीं आया अत: इस प्रयोग के इच्छित परिणाम नहीं आए। उस दल में स्वार्थ की भावना बहुत गहरी थी, वैचारिक दृष्टि से भी डाक्टर साहब कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से असंतुष्ट थे। इन अनुभवों पर उन्होंने गहन चिंतन किया और कुछ मौलिक प्रश्नों के जवाब तलाशने की कोशिश की, जैसे भाई-बंधुत्व के इतने वर्षों में क्या कभी मुसलमानों ने हमारी कोशिशों पर सकारात्मक दृष्टिकोण दिखाया? क्या उनमें हिन्दू समाज के प्रति कोई प्रेम पैदा हुआ? क्या उन्होंने सहिष्णुता तथा जियो और जीने दो की हिन्दू परंपरा के प्रति वैसा ही बर्ताव दिखाया? क्या उन्होंने कभी हमारे साथ मिलकर भारत माता को श्रद्धा अर्पित करने में तनिक भी इच्छा दर्शायी? ऐसा क्यों है कि संख्या में कम होते हुए भी मुसलमान पूरी निर्भयता के साथ हिन्दुओं पर हमले कर रहे हैं और बहुसंख्यक हिन्दू अपने को बचाने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं? क्या यह शर्म की बात नहीं है? ऐसा क्यों है?
डाक्टर साहब समझ चुके थे कि हिन्दुओं में एकजुटता और आत्म सम्मान की कमी ही सारी व्याधियों की जड़ है। अत: इसका एकमात्र समाधान था हिन्दुओं में आत्मसम्मान, संगठन और साहस का भाव जगाना। मुसलमानों या अंग्रेजों के बाहरी खतरे से बढ़कर हिन्दू समाज को आंतरिक मनमुटाव और अनुशासनहीनता क्षीण करती जा रही थी। इससे डाक्टर साहब सबसे अधिक चिंतित थे।
1925 में ऐसे वातवरण के बीच बहुत कम राष्ट्रीय नेता थे जिन्होंने हिन्दुओं को संगठित करने की आवश्यकता को भीतर तक महसूस किया था। कुछ अन्य नेताओं ने तो डाक्टर साहब के प्रयासों को 'साम्प्रदायिक', 'बचकाने' आदि तक कहकर उनका मजाक उड़ाया। लेकिन डाक्टर साहब पर इन सब चीजों का कोई असर नहीं हुआ। उन्हें उस काल की घटनाओं के विशद विश्लेषण के बाद जो मिशन ध्यान में आया उसकी उपयोगिता पर पूरा विश्वास था। उनके मन में और गहरे सवालों के जवाब तलाशने का मंथन चल रहा था। जैसे, हमारेे देश की वास्तविक प्रकृति क्या है, जिसकी स्वतंत्रता के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं? इसके लक्षण क्या हैं? हमारे राष्ट्रीय पतन और गुलामी का मूल कारण क्या है?
डाक्टर साहब ने इतिहास में गहरे झांकते हुए कुछ मौलिक सचाइयों को रेखांकित किया था। जैसे, हमारा राष्ट्र एक प्राचीन राष्ट्र है जो दुनिया के दूसरे देशों के अस्तित्व में आने से पहले से मौजूद है। जब पश्चिम के ज्यादातर आधुनिक देश जंगलों से बाहर भी नहीं आए थे और दुनिया में ईसा या मोहम्मद के बारे में सुना तक नहीं गया था, तब हमारा देश विज्ञान, कला, वाणिज्य, दर्शन और आध्यात्मिकता के क्षेत्र में चहुंओर सम्मान पाता था और यह सब यहां के मूल निवासियों, जिन्हें हम हिन्दू के नाते जानते हैं, के अथक प्रयासों और त्याग की वजह से ही संभव हो पाया था। यही वजह है कि इस धरती को हिन्दुस्थान कहा जाता है जिससे स्पष्ट है कि यह हिन्दू राष्ट्र है।
राणा प्रताप हो या शिवाजी, विद्यारण्य या गुरुगोविंद सिंह, स्वामी विवेकानंद या महर्षि अरविंद, लोकमान्य तिलक हों या गांधी, राष्ट्रीय पुनरोत्थान को समर्पित सभी विभूतियों ने इस हिन्दू राष्ट्र के विचार को गहराई से समझकर मुगल और ब्रिटिश आक्रांताओं, दोनों से लोहा लिया था। इन सबने उसी हिन्दू भाव को जाग्रत करके लोगों से आगे आने का आह्वान किया था।
डाक्टर हेडगेवार का मानना था कि अगर ब्रिटिश प्रभुत्व और मुस्लिम अलगाव, इन दोनों खतरों का सामना करना है तो इसका एकमात्र प्रभावी मार्ग है हिन्दुओं को जाग्रत करके संगठित करना और उनमें राष्ट्रभक्ति की भावना को गहराई से समाविष्ट कराना। हमारे राष्ट्रीय जीवन के इस मौलिक तथ्य की समझ ही डाक्टर हेडगेवार द्वारा संस्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वैचारिक अधिष्ठान बनी।
अत: संघ का मिशन है देशवासियों में राष्ट्रीय चरित्र और संगठन का वास्तविक भाव जगाकर उनमें नई ऊर्जा पैदा करना। जात-पात, अस्पृश्यता आदि सभी समाजिक बुराइयां दूर करके हमारी राष्ट्रीय संस्कृति के सनातन मूल्यों का विकास करना जरूरी है। यही व्याधियां थीं जिन्होंने पिछली कई सदियों तक हमारे देश को अस्थिर और ऊर्जाहीन बनाये रखा था। उन्होंने तय किया कि पहले समर्पित और निष्ठावान कार्यकर्ताओं का एक दल बनाकर उन्हें उदासीन हिन्दू समाज को जगाने हेतु प्रशिक्षित किया जाए। ऐसे देशभक्त, अनुशासित और जाग्रत व्यक्ति ही विदेशी बेडि़यों को उतार फेंकने में सक्षम होंगे और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए प्रभावशाली आधार तैयार कर सकेंगे। डाक्टर साहब ने दब्बू और ऊर्जाहीन हिन्दू को एक प्रखर, सक्रिय और प्रभावशाली हिन्दू में रूपांतरित करके उसे एकजुट संगठन में लाने के इस चुनौती भरे काम का बीड़ा उठाया। उन्होंने गंभीरता से विचार किया कि निष्ठावान और समर्पित कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने का व्यावहारिक तरीका क्या हो सकता है। कुछ शुरुआती प्रयोगों और सावधानीपूर्वक गंभीर चिंतन के बाद उनके दिमाग में एक अनूठी योजना आई कि एक ही स्थान या क्षेत्र के कुछ प्रमुख लोग जातिगत और ओहदे के भेद भुलाकर एक खास जगह खास वक्त पर रोजाना मिलें। उस एक घंटे के दौरान कुछ सरल सी गतिविधि चलाई जाए जो आपसी प्रेम, सौहार्द और विश्वास के वातावरण में अनुशासन रखते हुए शरीर, मन, बुद्धि को प्रशिक्षित करे। इसमें किसी में कोई मन-भेद न हो, जोश दिलाने वाले खेल और शारीरिक व्यायाम, देशभक्ति के सामूहिक गीत, राष्ट्रीय विभूतियों पर लघु चर्चा सत्र और एक सामूहिक प्रार्थना हो, जिसके अंत में भारत माता की जय का उद्घोष हो। इस एक समूह की बैठक को 'शाखा' नाम दिया गया और इसमें भाग लेने वाले हर व्यक्ति को 'स्वयंसेवक' यानी समाज का स्वयं से प्रेरित नि:स्वार्थ सेवक। ऐसी शाखाएं देश में धीरे धीरे हर शहर, गांव के हर इलाके तक पहंुचें। शाखा का आरम्भ भगवा ध्वज आरोहित करने के बाद उसे प्रणाम करने से होता है और अंत प्रणाम के बाद ध्वज को उतारने के साथ।
हर व्यक्ति को रोज एक खास स्थान पर एक खास वक्त पर व्यक्तिगत रूप से कुछ प्राप्ति हुए बिना एकत्र बुलाना कोई आसान काम नहीं था। लेकिन डॉ. हेडगेवार में गजब की प्रतिबद्धता थी और इसीलिए उन्होंने इसका एक अनूठा तरीका अपनाया। वे हर रोज स्वयंसेवकों के घर जाते, उनके खाली वक्त में उनके साथ कुछ वक्त बिताते, हाल-चाल पूछते। डाक्टर हेडगेवार का दुलार, प्रतिबद्धता, देशभक्ति इतनी पारदर्शी थी कि हर कोई उनके प्रति आकर्षित होता था और पूरी निष्ठा से उनका अनुगमन करता था। शाम को भी वे हर एक के घर जाकर उसे शाखा पर साथ लेकर आते थे। धीरे धीरे शाखाओं पर अच्छी संख्या होने लगी, स्वयंसेवकों में उत्साह बढ़ता गया। डाक्टर साहब हर स्वयंसेवक को बारीकी से देखते थे, उसमें विकसित होने वाले सकारात्मक गुणों को परखते थे, उसके प्रशिक्षण को और सुघड़ बनाते थे। वे 15 से 18 वर्ष की आयु के स्वयंसेवकों पर खास ध्यान देते थे, खुद उनको वैचारिक रूप से मजबूत बनाते थे, उन्हें शाखा चलाने के लिए प्रशिक्षित करते थे।
डाक्टर हेडगेवार का खुद का जीवन स्वयंसेवकों के सामने आवश्यक दृष्टि की प्रेरणा जगाने का एक जीता-जागता आदर्श था। उनमें व्यक्तिगत संपर्क का असाधारण गुण था, वे हर एक के साथ जीवंत संवाद बनाए रखते थे। इस वजह से वे सबके प्रिय बन गए थे।
साधारण स्वयंसेवकों को समर्पित और प्रभावशाली कार्यकर्ता बनाने के लिए उन्होंने एक खास तरह की प्रशिक्षण कक्षाओं की व्यवस्था तैयार की थी। एक हफ्ते का प्राथमिक लघु पाठ्यक्रम और उसके आगे तीन साल तक हर साल एक महीने का प्रशिक्षण वर्ग। इस तरह से प्रशिक्षित और तैयार स्वयंसेवक संगठन की रीढ़ बने। आज संघ और इसके आनुषांगिक संगठनों का हिमालय से कन्याकुमारी तक, हर शहर और हर गांव में जो विस्तार दिखता है उसके पीछे ऐसे ही तपोनिष्ठ स्वयंसेवकों की मालिका है। आज स्वयंसेवक लगभग 1.5 लाख सामाजिक सेवा कार्यों में संलग्न हैं, घने जंगलों में रह रहे वनवासियों से लेकर शहरों और गांवों में रहने वाले शोषित, वंचित वर्ग तक की सेवा में जुटे हैं। पिछले कुछ दशकों के दौरान राष्ट्रीय पुनरुत्थान की प्रक्रिया में संघ कार्य में विशेष गति आयी है। हिन्दू राष्ट्र के दर्शन का लगातार विस्तार हो रहा है और ज्यादा से ज्यादा देशवासी इसके आह्वान पर उठ खड़े हो रहे हैं। कल तक जिनका स्वर कमजोर और दबा हुआ था उन्होंने इस भूमि के मौलिक हिन्दू चरित्र के पक्ष में बोलना शुरू कर दिया है। हिन्दू मनोवृत्ति एक बहुत ही सकारात्मक तरीके से गजब के बदलाव से गुजर रही है। संघ ने समाज के सभी वर्गों के उच्चतम और श्रेष्ठतम लोगों के दिलों को छुआ है। रूपान्तरण के उपकरण के तौर पर गढ़े गए स्वयंसेवक आम तौर पर हर उस क्षेत्र में कामयाब साबित हुए हैं जिसमें वे गए हैं। वे राष्ट्र के समग्र पुनरोत्थान के लिए अनथक जुटे हुए हैं। ये सब मिलकर सामाजिक बदलाव के एक महत्वपूर्ण आयाम की ओर इशारा करते हैं। संघ के इन बढ़ते कदमों को कोई रोक नहीं सकता, क्योंकि ऐतिहासिक प्रारब्ध इसके साथ है, इसे इसकी अंतिम और वैभवशाली परिणति तक पहंुचाने में उसका संबल प्राप्त है। डाक्टर हेडगेवार मुख्य रूप से कर्मयोगी थे, व्यावहारिक ज्ञान का ऐसा मूर्तरूप थे जो असंभव को संभव बना देने की क्षमता रखते थे। व्यक्ति निर्माण की दैनिक शाखा की पद्धति के माध्यम से चारित्रिक रूप से संस्कारी और अनुशासनबद्ध स्वयंसेवक तैयार करके हमारे प्राचीन राष्ट्र को बांटने वाली व्याधियों को दूर करने के बाद एक प्रखर और संगठित हिन्दू समाज खड़ा करना डाक्टर हेडगेवार का अपनी मातृभूमि को सबसे बड़ा और अनूठा योगदान है। उन्होंने ऐसा शक्तिशाली और संगठित हिन्दू तैयार किया है जो इस प्राचीन हिन्दू राष्ट्र को परम वैभव के शिखर पर ले जाने में सक्षम है।
(लेखक रा. स्व. संघ के वरिष्ठ प्रचारक हैं और अ.भा. सेवा प्रमुख रहे हंै)
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