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प्रशांत बाजपेई
इतिहास का महत्व तभी है जब वह निष्पक्षता के साथ कहा जाए। जैसा था, वैसा ही वर्तमान में समाज के सामने प्रस्तुत हो। एक प्रसंग है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता डॉ़ केशवराव बलिराम हेडगेवार और राष्ट्र के स्वाधीनता संघर्ष के संबंध का। यह एक व्यक्तित्व के विकास की कहानी है और उस व्यक्तित्व में से विश्व के सबसे बड़े और कार्यशैली में भी सबसे अलग संगठन के प्रादुर्भाव की। राजनीतिक विद्वेषों और वैचारिक पूर्वाग्रहों के चलते संघ के इस पक्ष पर लगातार स्याही पोतने का प्रयास किया गया। लेकिन कागजों को काला करने से इतिहास नहीं मिटता। 'स्वतंत्रता कैसे प्राप्त होगी' इस यक्ष प्रश्न और उसके चारों ओर घूमती डॉ़ हेडगेवार के जीवन की घटनाओं का निचोड़ संघ के रूप में सामने आया था। हां, इसके लिए जो रास्ता उन्होंने चुना था वह उस समय प्रचलित सभी धाराओं से एकदम भिन्न था।
वर्ष1971 के भारत-पाक युद्ध में हमारी शानदार जीत के शिल्पकार फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का एक किस्सा है, जिसे उन्होंने अपने शब्दों में इस प्रकार बयान किया है -'पूर्वी पाकिस्तान में याहिया खान की फौज ने लोगों पर बहुत जुल्म किया। भारत में शरणार्थी आने लगे। 27 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने कैबिनेट बैठक बुलाई। मुझे भी बुलाया और कहा कि कुछ करना पड़ेगा। मैंने पूछा कि क्या करना पड़ेगा? उन्होंने कहा 'पूर्वी पाकिस्तान में फौज ले जाओ।' मैंने कहा – 'मैं तैयार नहीं हूं। आप बोल रही हैं चले जाओ, एैसे कैसे चला जाऊं ? मेरे 'सब फॉर्मेशन्स' कहां-कहां हैं, उनको एकत्र करना पड़ेगा। योजना बनानी पड़ेगी, उसके लिए प्रशिक्षण देना पड़ेगा। मैं बिल्कुल तैयार नहीं हूं़…। काफी नाराज थीं मेरे से मेम साहब। मगर फिर मान गइंर्। मैंने कहा जब तैयार हो जाऊंगा आपको बता दूंगा़.़.। मैंने आला से आला तैयारी की, जवानों को प्रशिक्षण दिया, रणनीति बनाई और फिर मुझे कोई शक नहीं था कि यह लड़ाई जीतूंगा और बहुत जल्दी जीतूंगा।' सैम बहादुर ने अगले सात महीने तैयारियों में बिताए। तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से रक्त रंजित खबरें और राजनीतिक दबाव आते रहे और वह अचल धैर्य से तैयारियां करते रहे। इतिहास गवाह है कि जब दिसंबर 1971 में मानेकशॉ के जवानों ने सीमा पार की तो सिर्फ 13 दिनों में पाकिस्तान अपने घुटनों पर आ गया। उसके क्षेत्रफल का 50 प्रतिशत और आबादी का 55 प्रतिशत हिस्सा टूट कर एक अलग देश बन गया। मानेकशॉ का उपरोक्त वीडियो 'यू ट्यूब' पर उपलब्ध है। वे आगे कहते हैं कि भारत-चीन युद्ध में हमारी नाकामी का बड़ा कारण था कि फौज के अंदर राजनीतिक हस्तक्षेप हो रहा था और जनरलों में नेहरू से यह कहने की हिम्मत नहीं थी कि फौज तैयार नहीं है, नहीं तो फौज कभी न हारती।
1971 से सात दशक पहले देश की स्वाधीनता के बारे में चिंतन करते हुए स्वामी विवेकानंद ने कुछ ऐसे ही शब्द कहे थे। भगिनी निवेदिता की सहयोगी, कुमारी क्रिस्टीन ग्रींस टाइडिल से स्वामी जी ने कहा था 'मैने क्रांति की योजना बनाने और बंदूकों के निर्माण का लक्ष्य लेकर पूरे भारत में भ्रमण किया है। इसीलिए मैंने हीरम मैक्सिम से मित्रता बनाई। किन्तु भारत अभी जड़वत् पड़ा हुआ है। इसीलिए मैं सर्वप्रथम ऐसे कार्यकर्ताओं का दल खड़ा करना चाहता हूं, जो ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर लोक शिक्षण का कार्य करें और राष्ट्र में नव चेतना का संचार करें? जिस समय स्वामी विवेकानंद ने ये विचार व्यक्त किए, उस समय नागपुर में एक किशोर, केशव के मन में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध क्रांति के विचार हिलोरें मार रहे थे। हालांकि ढाई दशक बाद केशव को भी स्वामी जी के निष्कर्ष पर ही पहुंचना था।
बाल्यकाल में ही घोर विपन्नता में पल रहे केशव को विद्यालय में विदेशी साम्राज्ञी विक्टोरिया के जन्म दिवस पर बांटी गई मिठाई स्वीकार्य नहीं थी। सीताबर्डी के किले पर लहराता 'यूनियन जैक' उन्हें खटकता था और वह अपने मित्रों के साथ उसे उतार फेंकने की योजनाएं बनाया करते थे। बच्चों की इस योजना की खबर अंगे्रजों से पहले माता-पिता को लग गई और नन्हा क्रांतिकारी दल अभिभावकों द्वारा धर लिया गया। 1904 में, 15 वर्ष की आयु में केशव ने बम बनाना सीख लिया। वे स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार करते एवं तिलक पैसा फंड जिसका निर्माण स्वदेशी विचारधारा एवं उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए किया गया था, के लिए धन संग्रह करते। 16 वर्ष की आयु में उन्होंने हम उम्र किशोरों में राष्ट्रीय विषयों पर जागृति लाने के लिए एक चर्चा मंडल प्रारंभ किया। नाम था, देशबंधु समाज। देशबंधु समाज की एक गुप्त शाखा भी थी- समर्थ शिवाजी समाज, जिसका काम क्रांतिकारी विचार रखने वाले युवाओं में तालमेल बिठाना और क्रांति कार्य के लिए शस्त्र इकट्ठे करना था। 1907 की बात है केशव नागपुर के नील सिटी स्कूल में पढ़ रहे थे। उस समय ब्रिटिश सरकार ने 'रिस्ले सर्कुलर' जारी किया जिसमें वंदेमातरम् जैसे नारों को दंडनीय अपराध करार दिया गया। विद्यालय निरीक्षक जब केशव की कक्षा में वार्षिक निरीक्षण के लिए पहुंचे तो सभी छात्रों ने उठकर जोरदार आवाज में वंदे मातरम् कहकर उनका स्वागत किया। फिर तो कक्षा दर कक्षा इसकी शृंखला चल पड़ी। मामला तूल पकड़ गया। स्कूल प्रशासन पर भारी दबाव आया। विद्यालय प्रबंध समिति के चेयरमैन सर विपिन कृष्ण बोस ने अगले दिन सभी छात्रों को माफी मांगने की हिदायत दी। उनके शब्द समाप्त होते ही फिर वंदे मातरम् का नारा विद्यालय में गूंज गया। केशव की कक्षा के सभी छात्र निलंबित कर दिए गए। केसरिया हवाओं ने नागपुर का वातावरण गर्म कर दिया। छात्रों ने दो महीने तक हड़ताल की। केशव के नेतृत्व में जुलूस और प्रभात फेरियां निकलने लगीं। छात्रों के माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित हो उठे। मां-बाप और शिक्षकों के दबाव में छात्र माफी मांगने को तैयार हो गए। परंतु अकेले केशव ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। भरी सभा में साफ-साफ कह दिया कि मैं यह अपराध एक नहीं अनगिनत बार करूंगा, हर सजा स्वीकार है। अंत में परिणाम हुआ कि केशव को विद्यालय से निष्कासित कर दिया गया। लेकिन आग सुलग चुकी थी। नागपुर के छात्रों ने अंग्रेजों के कृपापात्रों, सरकारी अफसरों और गोरी चमड़ी वालों को सड़कों पर वंदे मातरम् कह कर चिढ़ाना शुरू कर दिया। नागपुर मध्य-प्रांत में आता था। मुख्य आयुक्त रेसिनलैंड क्राडोक ने पुलिस महानिरीक्षक क्लीवलैंड को पत्र लिखा ' पुलिस नागपुर में छात्रों की गुंडागर्दी से जिस प्रकार निपट रही है उससे मैं बिलकुल संतुष्ट नहीं हूं। ऐसे ही चलता रहा तो हमारे सभी सम्माननीय लोग डरकर नागपुर से भाग जाएंगे।
मध्य प्रदेश के बालाघाट के निकट रामपायली में केशव के चाचा आबाजी हेडगेवार रहते थे। केशव वहां जाते रहते थे। वहां हमउम्र साथियों की टोली भी बना रखी थी। 1908 में केशव ने यहां की पुलिस चौकी पर बम फेंका। प्रमाणों के अभाव में बच निकले, लेकिन दो महीने बाद गांव में होने वाले दशहरे के आयोजन में जब केशव जनमानस के सामने मुखर हुए तो पुलिस को मौका मिल गया। दशहरे में होने वाले सीमोल्लंघन उत्सव को समझाते हुए केशव ने कहा 'अपनी सीमाओं को पार करना हमारा कर्तव्य है। परतंत्र रहना सबसे बड़ा अधर्म है। आज विदेशी दासता के विरुद्ध उठ खड़े होना, अंग्रजों को सात समुद्र पार भेज देना ही सीमोल्लंघन का वास्तविक अर्थ होगा। आज रावण वध का तात्पर्य अंग्रेजी राज का अंत करना है।' केशव और उनके दो साथियों, भगोरे एवं डबीर को विद्यालय से निकाल दिया गया। केशव पर राजद्रोही भाषण देने का मुकदमा चला, गिरफ्तार कर लिए गए। परंतु भण्डारा जिले के प्रतिष्ठित समाज ने बीच-बचाव कर मामले को रफादफा किया और उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए यवतमाल भेज दिया गया। यवतमाल में केशव के नामांकन के कुछ ही दिन बाद वहां की पुलिस चौकी के पास बम फटा।
केशव ने अपनी राष्ट्र निष्ठा एवं संगठन क्षमता तथा मेधावी बुद्धि से समस्त राष्ट्रवादी नेताओं का दिल जीत लिया था। सबने मिलकर उनका नाम कलकत्ता के नेशनल मेडिकल कॉलेज में लिखवा दिया। इसके पीछे के उद्देश्य को रामलाल बाजपेई ने अपनी जीवनी में इस प्रकार लिखा है 'श्री केशवराव बलिराम हेडगेवार, रा.स्व.संघ के संस्थापक को श्री दाजीसाहब बुटी द्वारा कुछ आर्थिक मदद दिलाकर शिक्षा की अपेक्षा पुलिन बिहारी दास (कलकत्ता के क्रांतिकारी) के मार्गदर्शन में क्रांति एवं संगठन को मजबूत करने के लिए भेजा।वे बंगाल में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं संगठित क्रांतिकारी दल अनुशीलन समिति से जुड़ गए, जिसमें अरविंद घोष, विपिन चंद्र पाल, प्रतुल गांगुली, नलिनी किशोर, त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती जैसे नामी क्रांतिकारी जुड़े थे। त्रैलोक्यनाथ ने अपनी आत्मकथा 'थर्टी इयर इन प्रिजन' में लिखा है – जब हेडगेवार नेशनल मेडिकल के छात्र थे, तब बंगला में लिखी गई प्रसिद्ध पुस्तक 'बंगलार विल्पवाद' के लेखक नलिनी किशोर गुह भी वहां पढ़ रहे थे। गुह ने ही हेडगेवार, नारायणराव सावरकर एवं अन्य छात्रों को समिति में प्रवेश दिलाया था।' उनका छद्म नाम था कोकेन। वे क्रांतिकारियों के विश्वासपात्र बने और उच्च प्रतिष्ठित क्रांतिकारी कहलाए। वे मोतीलाल घोष और डॉ़ आशुतोष मुखर्जी जैसे लोगों के निकट रहे और रासबिहारी बोस और विपिन चंद्र पाल के भी संपर्क मंे आए। 'आर्म्ड स्ट्रगल फॉर फ्रीडम' में बाल शास्त्री हरदास ने लिखा है – 'हेडगेवार ने अपने सात्विक चरित्र, प्रतिबद्धता और संगठन कौशल से नौजवान क्रांतिकारियों का दिल जीत लिया था और उनके प्रति भक्तिभाव रखने वाले देशभक्तों की एक बड़ी संख्या थी।' इसी प्रकार जी़ वी. केतकर ने उनके बारे में लिखा 'हेडगेवार बंगाल एवं मध्य प्रांत की क्रांतिकारी गतिविधियों के बीच कड़ी का भी काम कर रहे थे। सन् 1910 से 1915 के बीच बड़ी मात्रा में पिस्तौल एवं अन्य शस्त्र बंगाल से मध्य प्रांत भेजे गए थे। हेडगेवार जब भी नागपुर आते थे तब अपने साथ छिपाकर शस्त्र लाया करते थे।' सितंबर 1914 में 70़ 8 प्रतिशत अंक प्राप्त करके मेडिकल की डिग्री प्राप्त की। क्रांति कार्य अध्ययन के आड़े नहीं आया।
1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया। ब्रिटिश सेना के चिकित्सा विभाग में चिकित्सकों की भारी कमी थी। क्रांतिकारियों ने सेना के अंदर घुसपैठ कर के 1857 जैसा विद्रोह भड़काने की ठानी। 1915 में डॉ़ हेडगेवार ने भी इसके लिए आवेदन किया जो बिना कारण बताए लौटा दिया गया। दरअसल 1914 में भारत की ब्रिटिश सरकार के 'क्रिमिनल इंटेलिजेंस ऑफिस' ने बम और दूसरे विस्फोटक बनाने में निपुण राजनीतिक अपराधियों की एक सूची जारी की थी, उसमें डॉ़ हेडगेवार का भी विस्तृत उल्लेख था। नागपुर में लंबे समय तक क्रांतिकारी संगठन का कार्य करने के बाद धीरे-धीरे उन्हें महसूस होने लगा कि जन-जन तक राष्ट्रीय चेतना को पहुंचाए बिना इक्का-दुक्का क्रांतिकारी घटनाओं के द्वारा स्वाधीनता प्राप्ति संभव नहीं है। अत: उन्होंने सार्वजनिक संगठनों की ओर रुख किया और अपने क्रांति कार्य को जिस प्रकार फैलाया था, उसी प्रकार चुपचाप समेट लिया।
जब परिवार की ओर से विवाह के लिए दबाव आया तो उन्होंने दृढ़ता के साथ आजीविका उपार्जन और विवाह, दोनों से इन्कार कर दिया। इस निर्णय को समझाते हुए अपने चाचा को उन्होंने लिखा -'मेरे मन में प्रश्न उठता है – क्या हम अंगे्रजों को परास्त नहींं कर सकते हैं? और इसका समाधान मुझे राष्ट्र के लिए सर्वस्व न्योछावर करने में दिखाई पड़ रहा है। मेरे मन, तन, बुद्धि, विवेक, आत्मा सब में एक ही बात का बोध है कि यदि राष्ट्र को संगठित करने, राष्ट्रीयता का प्रसार करने, लोगों में हीनता का भाव दूर करने का कार्य किया जाए तो जीवन का इससे बड़ा सकारात्मक सदुपयोग और कुछ भी नहीं हो सकता है।
यह सत्य है कि विवाहित रहकर भी नारायणराव, विनायकराव सावरकर, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी आदि देशभक्तों ने राष्ट्र के लिए अथक कार्य किया है। परंतु मेरे मन की बनावट भिन्न है। मैं विवाह के लिए बिलकुल भी प्रेरित नहीं हो पा रहा हूं। मुझे हर क्षण सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्वों का बोध होता रहता है और मैं अपने एक शरीर, एक आत्मा और एक मन को बांट नहीं सकता हूं। मैं विवाह करके किसी कन्या को मेरी बाट जोहने के लिए छोड़ना नहीं चाहता हंू, न ही घर में अंधेरा करके सामाजिक दायित्वों में मग्न रहने की मेरी इच्छा है।'
क्रांतिकारी जीवन के बाद शुरू हुए सार्वजनिक जीवन के नए अध्याय में डॉ़ हेडगेवार के व्यक्तित्व में जुझारू पत्रकार, सक्षम सामाजिक नेतृत्व, समन्वयक, प्रखर राष्ट्रवादी, यशोलिप्सा रहित, आत्मविलोपी कुशल संगठक, दूरदर्शी, विवेक आदि गुणों के दर्शन होते हैं। मई 1921 में उन पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ। आधार था, अक्तूबर 1920 में काटोल एवं भरतवाड़ा की सभा में दिए गए उनके भाषण। अपना मुकदमा लड़ते हुए जब अदालत में उन्होंने कहा 'मैंने अपने देशवासियों में मातृभूमि के प्रति उत्कट भक्तिभाव जाग्रत करने का प्रयत्न मात्र किया। मैंने उनके हृदय पर यह अंकित करने का प्रयास किया कि हिंदुस्थान हिंदुस्थानियों का है। यदि एक हिंदुस्थानी राजद्रोह किए बिना राष्ट्रभक्ति के ये तत्व प्रतिपादित नहीं कर सकता तथा भारतीय एवं यूरोपीय लोगों में शत्रु-भाव पैदा किए बिना वह इस सत्य का बयान नहीं कर सकता, यदि स्थिति इस हद तक पहुंच चुकी है तो यूरोपीय लोग तथा वे जो अपने आप को भारत सरकार कहते हैं, उन्हें सावधान हो जाना चाहिए कि अब उनके वापस चले जाने की घड़ी आ गई है।
दुर्भाग्य से पराए लोग हमारी मातृभूमि पर शासन कर रहे हैं। सरकारी वकील साहब, आपसे मेरा सीधा प्रश्न है कि क्या ऐसा कोई कानून है, जिसके तहत एक देश के लोगों को दूसरे देश के ऊ पर राज्य करने का अधिकार प्राप्त होता है? क्या आप मेरे प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं? क्या इस तरह की बात प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध नहीं है? यदि यह बात सत्य है कि एक देश के लोगों को दूसरे देश पर शासन करने का अधिकार नहीं है तो अंग्रेजों को हिंदुस्थानियों को अपने पैरों के नीचे कुचलकर उनपर शासन करने का अधिकार किसने दिया है? अंग्रेजों ने भारत के लोगों को गुलाम बनने के लिए बाध्य किया है एवं बलपूर्वक अपने आप को शासक घोषित किया है। क्या यह न्याय, नैतिकता एवं धर्म की हत्या नहीं है? 19 अगस्त को अदालत ने फैसला सुनाते हुए टिप्पणी की कि डॉ़ हेडगेवार के मूल भाषण की अपेक्षा अपनी सफाई में दिया गया भाषण अधिक राजद्रोहपूर्ण है। फिर उन्हें जमानतदार देने को कहा गया। डॉ़ हेडगेवार ने जमानतदार देने से स्पष्ट मना कर एक वर्ष कारावास में रहना स्वीकार कर लिया।
'1857 के स्वातंन्न्य समर के असफल रहने का कारण क्या था? बिना पूरी तैयारी के समय के पूर्व क्रांति की शुरुआत। अनेकानेक महान आंदोलन यशस्वी होकर इतिहास का हिस्सा बन गए, क्योंकि समाज की तैयारी नहीं थी।' इस प्रकार के विचार डॉ़ हेडगेवार के मन को मथ रहे थे। अत: क्रांतिकारी जीवन एवं एक सत्याग्रही कार्यकर्ता के रूप में वर्षों कार्य करने के बाद डॉ़ हेडगेवार इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि समाज को सक्षम बनाए बिना किसी भी प्रकार के आंदोलन का कोई दूरगामी परिणाम निकलने वाला नहीं है। इसके लिए चरित्रवान नवयुवकों की सज्जन शक्ति तैयार करके उसे समाजोन्मुख करना ही एक मात्र समाधान है। फलस्वरूप 1925 की विजयादशमी को रा.स्व.संघ का जन्म हुआ। संघ की स्थापना के बाद उन्होंने इस नवनिर्मित संगठन को सभी तत्कालीन राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखते हुए पुष्पित और पल्लवित करने का काम किया। डॉ़ हेडगेवार और उनके सहयोगियों समेत सभी के मन में भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति का ध्येय धधक रहा था, परन्तु उसकी आंच को छिपा कर, पहले पूरी तैयारी कर लेने का संकल्प लेकर वे निरंतर संगठन के कार्य में ही लगे रहे। परंतु कभी-कभी निर्लिप्तता के इस आवरण में से संघ के संगठन के पीछे का उनका उद्देश्य झलक ही जाता था। एक स्थान पर वे कह गए 'संघ पर दोषारोपण किया जाता है कि वह राजनीतिक मामलों में अपना हाथ नहीं बंटाता, परंतु हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए कि गुलाम राष्ट्र के लिए राजनीति का अस्तित्व भी नहीं रह सकता। अत: हमें प्रचलित राजनीतिक झमेलों से किसी प्रकार से संबंधित रहने का कोई कारण नहीं है।' जब 1930 में लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का लक्ष्य स्वीकार किया गया तब डॉ़ साहब गद्गद हो उठे। उन्हांेने कांग्रेस को बधाई दी और संघ की सभी शाखाओं को निर्देश दिया कि 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाए। यह भी ध्यान देने योग्य है कि जहां एक ओर डॉ़ हेडगेवार ने संघ के स्वयंसेवकों को सब ओर से ध्यान हटा कर संगठन कार्य में मन लगाने को कहा वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत स्तर पर क्रांतिकारियों की तथा राष्ट्रीय आंदोलनों में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सहायता करते रहे। यह अंग्रेजों को खटक रहा था और उसी को वह तक रहे थे। गुप्तचर संघ कार्यकर्त्ताओं का पीछा करते रहते। उस समय की सरकार की खुफिया रपट में निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया कि संघ का वास्तविक उद्देश्य स्वतंत्रता की प्राप्ति है और संघ के कार्यकर्ता इस उद्देश्य के लिए चुपचाप शक्ति इकट्ठी करने में लगे हैं। उक्त दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखा हुआ है। 6 अपै्रल 1930 को जब महात्मा गांधी ने दांडी में नमक कानून तोड़कर सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया तब देशभर में आंदोलन शुरू हो गए। मध्य प्रांत में यह आंदोलन जंगल सत्याग्रह के नाम से चला। 12 जुलाई 1930 को अस्थाई रूप से सरसंघचालक का दायित्व छोड़कर वे जंगल सत्याग्रह में शामिल हुए एवं नौ माह का सश्रम कारावास भोगा। संगठन को आंदोलन से दूर रखकर एवं स्वयं उसमें भाग लेने के पीछे उनका क्या उद्देश्य था, ऐसा करके वे स्वयंसेवकों को क्या सिखाना चाहते थे, इसका पता उनके इन शब्दों से चलता है – 'इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वर्तमान आंदोलन स्वतंत्रता प्राप्ति की अंतिम लड़ाई है। इस आंदोलन के बाद निर्णायक लड़ाई होगी और हमें सर्वस्व त्यागकर उसमें कूदने के लिए तैयार रहना चाहिए।' आने वाले वर्षों में वे संगठन के लिए अपनी देह को गलाते रहे। उनका अनुमान था कि 1940 के आसपास दूसरा विश्वयुद्ध होगा, तब तक संगठन को इतना सशक्त हो जाना चाहिए कि मौके का लाभ उठाते हुए देश को स्वतंत्र कराया जा सके। उनका अनुमान सटीक निकला, 1940 आते-आते विश्व युद्ध चल रहा था। संघ का काफी विस्तार भी हुआ था, लेकिन देश की आवश्यकताएं उससे भी अधिक कहीं विस्तृत थीं। डॉ़ साहब इससे असंतुष्ट थे। रात-दिन के कठोर परिश्रम से देह जर्जर हो चुकी थी। अर्धबेहोशी की हालत में उनके मुंह से ये शब्द निकले 'देखो 1940 का वर्ष आ गया, इस युद्ध के पहले ही अपने संगठन का बलशाली होना आवश्यक था।' इसी देह में मातृभूमि को स्वतंत्र देखने की उनकी इच्छा पूरी न हो सकी। परंतु उनके द्वारा लगाया गया संघ रूपी पौधा निरंतर प्रगति करते हुए वटवृक्ष बन गया। स्वामी विवेकानंद की चेतावनी और डॉ़ हेडगेवार की चिंता सत्य सिद्ध हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का काल भारत की स्वतंत्रता लेकर आया, लेकिन देश तैयार नहीं था। आजादी मिली, लेकिन खंडित हो कर। जबकि जड़ों से जुड़ने की प्यास एवं अस्मिता की पहचान आज भी शेष है। जुलाई 1930 को कहे गए उनके ये शब्द आज भी अपना औचित्य बनाए हुए हैं।
'जेल जाना आज देशभक्ति का लक्षण बन गया है, पर जो मनुष्य दो वर्ष जेल में रहने के लिए तैयार है उसे ही यदि कहा जाए कि घर-बार से दो वर्ष की छुट्टी लेकर देश में स्वातन्त्र्योन्मुख संगठन का काम करो तो कोई भी तैयार नहीं होता। ऐसा क्यों होना चाहिए? ऐसा लगता है कि लोग यह बात समझने के लिए तैयार नहीं कि देश की स्वतंत्रता साल-छह महीने काम करने से नहीं, बल्कि वर्षानुवर्ष सतत् संगठन करने से ही मिलेगी। इस मौसमी देशभक्ति को छोड़े बिना, यद्यपि देश के लिए मरने की सिद्धता तो चाहिए ही, पर उससे भी अधिक देश की स्वतंत्रता के लिए संगठन का कार्य करते हुए ही जीने का निश्चय किए बिना देश का भाग्य नहीं पलटेगा। यह वृत्ति युवकों में उत्पन्न करना तथा उनका संगठन करना यही संघ का ध्येय है।'
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