अंग्रेजी राज के विरुद्ध डटकर लिया लोहा
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अंग्रेजी राज के विरुद्ध डटकर लिया लोहा

by
Mar 14, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Mar 2015 14:19:00

.मा. गो. वैद्य
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम आज दुनियाभर में विख्यात है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि संघ को सही मायने में सब लोग समझते हैं। संघ को उसके यथार्थ रूप में समझना वैसे आसान भी नहीं है। कारण, विद्यमान या प्राचीन संस्थाओं या संगठनों के किसी भी नमूने में संघ जस का तस नहीं बैठता है। संघ कैसा है? इसका सही उत्तर है संघ, संघ जैसा ही है। संस्कृत काव्यशास्त्र में 'अनन्वय' नाम का अलंकार है। उसके उदाहरण के रूप में एक श्लोक बताया जाता है। वह है-
गगनं गगनकारं सागर: सागरोपम:।
रामरावणयोर्युद्धं रामरामवणयोरिव।।
अर्थात् आकाश का आकार आकाश के समान ही। समुद्र, समुद्र जैसा ही। और राम-रावण युद्ध राम-रावण युद्ध के समान ही। संघ भी केवल संघ के समान ही है। संघ के लिये कोई भी उपयुक्त उपमान नहीं है।
जन्म से ही देशभक्त
इस संघ के संस्थापक हैं डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार। जन्म से ही देशभक्त, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं है। पूर्वसंचित के कारण, अनेक लोग जन्म से ही असाधारण कतृर्त्व वाले होते हैं। जैसे विख्यात गणितज्ञ रामानुजम्। आद्य शंकराचार्य के बारे में किसी ने अपने गुरु से पूछा था कि केवल आठ वर्ष की आयु में शंकराचार्य को चारों वेदों का ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ होगा? गुरु का उत्तर था, 'सम्भवत: बचपन में शंकराचार्य की प्रतिभा पर्याप्त विकसित नहीं थी, इसलिये उनको चार वेदों का ज्ञान होने में आठ साल लगे'। डॉ. हेडगेवार भी ऐसे ही बचपन से देशभक्त व्यक्तित्व के धनी थे। प्राथमिक तीसरी कक्षा का छात्र। 8-9 साल की उम्र। इंग्लैंड की रानी और हिंदुस्थान की साम्राज्ञी विक्टोरिया के राज्यारोहण को साठ वर्ष पूरे होने का अवसर था। सभी स्कूलों में मिठाई बांटी गयी। बाल केशव हेडगेवार को भी वह मिली। किन्तु उसने उसे मुंह में न डालकर कूड़ेदान में फेंक दिया। कारण, अपने देश पर राज करने वाले विदेशी शासक का गौरव उसे मान्य नहीं था।
वन्देमातरम् का उद्घोष
यह उत्कट देशभक्ति निरन्तर बनी रही। मैट्रिक क्लास का निरीक्षण करने के लिये केशव के कक्षा में मुख्याध्यापक और एक सरकारी इंस्पेक्टर आने वाले थे। केशव की अगुआई में सभी छात्रों ने निश्चय किया कि 'वन्देमातरम्' की घोषणा से उनका स्वागत करेंगे। यह उस जमाने की बात है जब 'वन्देमातरम्' बोलना एक अपराध माना जाता था। इंस्पेक्टर के कक्षा में प्रवेश करते ही सभी छात्रों ने 'वन्देमातरम्' के नारे लगाकर उसका स्वागत किया। इंस्पेक्टर आगबबूला हुये और लौट गये। मुख्याध्यापक की डांट-फटकार पड़ी और यह अपराध करने वाले को कड़ी सजा देने का आदेश दिया गया। इंस्पेक्टर के चले जाने के बाद मुख्याध्यापक कक्षा में आये और पूछताछ की कि इस विद्रोह का नेता कौन है? कोई भी मुंह खोलने को तैयार नहीं था। आखिर पूरी क्लास को स्कूल से निकाल दिया गया। कुछ दिन बीत गये। तब अभिभावक चिन्तित हुए। वे मुख्याध्यापक से मिले और मुख्याध्यापक ने उनको बताया कि छात्रों को क्षमायाचना करनी होगी, तभी उनको प्रवेश मिलेगा। किन्तु कोई भी छात्र क्षमायाचना के लिये तैयार नहीं था। फिर एक मध्य मार्ग निकाला गया कि मुख्याध्यापक एक-एक छात्र से पूछेंगे कि 'तुमसे गलती हुई ना'? जो छात्र केवल सिर हिलाकर 'हां' का संकेत देगा उस छात्र को फिर से प्रवेश मिलेगा। सभी छात्रों ने ऐसा ही किया और फिर से प्रवेश प्राप्त किया। एकमात्र अपवाद था केशव। केशव हेडगेवार को स्कूल से निकाल दिया गया। फिर यवतमाल और पुणे जाकर केशव ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की।
कलकत्ता में डाक्टरी शिक्षा
मैट्रिक के बाद केशव हेडगेवार की इच्छा हुई कि डाक्टरी की शिक्षा ग्रहण की जाए। इस हेतु केशव ने कलकत्ता जाने का फैसला किया। मुंबई नागपुर से नजदीक था। किन्तु केशव ने कलकत्ता को ही चुना। क्यों? क्योंकि वह क्रांतिकारियों का गढ़ था। उस गढ़ में क्रान्तिप्रवण केशव ने प्रवेश किया और यहां तक प्रगति की कि क्रान्तिकारियों कि जो 'अनुशीलन समिति' नाम की सवार्ेच्च केंद्रीय समिति थी, उसका वह अन्तरंग सदस्य बना। क्रान्तिकारियों की सारी गतिविधियों में उसने भाग लिया। उनकी शिक्षा भी प्राप्त की। 1914 मे केशव ने डाक्टरी में एल. एम. एंड एस. की उपाधि प्राप्त की और 1916 के प्रारम्भ में वे डॉ. केशवराव हेडगेवार बनकर नागपुर आये।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
विदेशी शासकों को हटाना और अपने देश को स्वतन्त्र करना उनका बचपन से प्रण रहा था। उनके ध्यान में आया कि केवल क्रान्तिकारियों के क्रियाकलापों से डरकर अंग्रेज यहां से भागने वाले नहीं हैं। उनके मन में विचार उभरा कि जब तक स्वतंत्रता के लिये सामान्य जनमानस में आकांक्षा पैदा नहीं होगी तब तक क्रान्तिकारियों की बहादुरी का परिणाम नहीं दिखेगा। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आन्दोलन में शामिल हुये। उस समय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस के शीर्ष नेता थे। उनकी स्फूर्तिप्रद घोषणा थी कि 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और वह मैं लेकर रहूंगा'।
डाक्टरी पास करने के बाद दवाखाना खोलना डॉ. हेडगेवार का उद्देश्य ही नहीं था। अत: वे प्राणपण से कांग्रेस के आन्दोलन में कूद पडे़। गांव-गांव जाकर बड़े जोशीले भाषण दिए। तब अंग्रेज सरकार ने उन पर भाषण न देने का आदेश लागू किया। किन्तु डक्टर हेडगेवार ने उस आदेश को न मानते हुए अंग्रेजी शासन के विरुद्ध जनजागरण का अपना अभियान जारी रखा।
(लेखक रा. स्व. संघ के प्रवक्ता रहे हंै)

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