|
9 अप्रैल, 1989 को रा.स्व.संघ के आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की 100वीं जयंती पर पाञ्चजन्य ने अमृत अंक प्रकाशित किया था। यहां हम उस अंक में प्रकाशित पूज्य बालासाहब देवरस व रज्जू भैया जी के आलेख और श्री दत्तोंपत ठेंगड़ी की डॉ. हेडगेवार पर लिखी कविता प्रकाशित कर रहे हैं।
बाला साहब देवरस
परमपूजनीय डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार जी ने राजनीतिक और सामाजिक सभी क्षेत्रों में कार्य करने के बाद जो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले, उनमें एक कार्यकर्ता निर्माण करने के सम्बंध में था। इस सम्बंध में सबसे प्रमुख बात उन्होंने यह पाई कि लोग देश सेवा को यदाकदा और यथासंभव करते रहने का विचार करते हैं। डॉ. जी का मत था कि जिस प्रकार हम खाना-पीना आदि दैनिक जीवन का व्यवहार करते हैं उसी प्रकार हमें देश का विचार रोज करना चाहिए, यानी देश सेवा हमारे दैनिक जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनना चाहिए। उनके इस निष्कर्ष में से दैनिक संस्कार की पद्धति का जन्म हुआ जिसे हम शाखा कार्य कहते हैं। संस्कार की इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए जीवन में त्याग और अनुशासन निर्माण करने की बात सामने आई और दैनिक शाखा के कार्यक्र्रमों में खेलकूद, व्यायाम, समता, बौद्धिक, घोष आदि आयोजित होने लगे। इसी में से शिविर, शिक्षण वर्ग, सम्मेलन, एकत्रीकरण आदि कार्यक्रम विकसित हुए।
हम अपने देश का विचार रोज करेंगे और उसके लिए आवश्यक गुणों का विकास स्वयं करते रहेंगे- परमपूज्य डॉक्टर जी की यह शिक्षा सम्पूर्ण जीवन और जीवन के प्रत्येक दिन करते रहने के लिए प्रेरणादायी बनी। स्वयंसेवक निश्चय करने लगे कि इस कार्य को तन-मन-धन पूर्वक करेंगे। ऐसा निश्चय जीवन भर निभाने की प्रतिज्ञा हुई। प्रतिज्ञा विधि प्रारम्भ हुई। यह अपना कार्य है, इसलिए इसमें लगने वाला धन भी हम ही समर्पित करेंगे। सार्वजनिक चंदे का तरीका इसीलिए स्वीकार नहीं किया गया और ध्वज के समक्ष गुरुदक्षिणा समर्पण की। अत्यंत उदात्त विधि भी संस्कार का महत्वपूर्ण अंग बनकर पालन की जाने लगी.
इन कार्यक्रमों के माध्यम से संस्कार ग्रहण करने वाले दैनिक शाखा के स्वयंसेवक सहज ही अपने मित्र-परिवार को भी शाखा में लाने के लिए उत्सुक हुए और उन्हें इस बात के लिए प्रेरणा मिलती रही कि हम अपने हिन्दू समाज के सभी घटकों को शाखा में लाकर इन संस्कारों में दीक्षित करेंगे। इस कार्य की गति को तेज करने के लिए प्रचारक के नाते स्वयंसेवक विभिन्न स्थानों पर जाने लगे। इसी उद्देश्य से परमपूजनीय डॉक्टर जी ने मुझे सन् 1939 में कलकत्ता भेजा। मैं जब कलकत्ता गया तो वहां शाखा बिल्कुल छोटी अवस्था में थी। यहां तक कि ध्वज-प्रार्थना भी मेरे जाने के बाद प्रारंभ हुई। देशभर के बड़े-बड़े लोग डॉक्टर जी के सम्पर्क में थे। सभी विचारधाराओं के अच्छे-अच्छे लोग उनसे सम्बंधित थे। इनमें एक नाम था उत्तर प्रदेश के बाबू पद्मनाथ जी का। बाबू पद्मनाथ जी जहां जाते थे संघ के कार्य के बारे में पूछताछ और आवश्यक सहायता करते थे। उनकी रुचि स्वयंसेवकों को सैनिक जैसा अच्छा शिक्षण देने में विशेष थी। वे कलकत्ता भी आते थे। मैं जब कलकत्ता पहुंचा तो कार्यालय में सात-आठ पेटियां बंद पड़ी रखी हुई थीं। इनमें लांग-बूट भरे थे। ये पेटियां सेना के माल की नीलामी में से बाबू पद्मनाथ जी ने खरीदी थीं और कलकत्ता भिजवा दी थीं। उनकी इच्छा थी कि कलकत्ता में शाखा के लिए घोष पथक तैयार हो। कलकत्ता पहुंचने पर विभिन्न लोगों से सम्पर्क करने के लिए प्रयत्न आरम्भ किया। इसी सिलसिले में मैं डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी से मिला। सन् 1939 मैं डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी पहली बार सार्वजनिक जीवन में आए। वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने। उन्हें भारत का सबसे कम आयु का कुलपति होने का गौरव प्राप्त हुआ था। मैं डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी से मिलने गया। उनसे करीब एक-डेढ़ घंटे तक बातचीत हुईं। संघ के बारे में उन्हें जानकारी दी। वे बहुत उत्सुकता से सब पूछताछ करते रहे। अंत में उन्होंने मुझे कहा कि 'मैं तुम्हारी संघ शाखा देखना चाहता हूं।'
यह सुनकर जहां मुझे प्रसन्नता हुई वहीं बड़ी चिंता भी हुई। कारण, शाखा का स्वरूप छोटा था। इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने के बाद यदि शाखा इतनी छोटी दिखाई दी तो वे क्या सोचेंगे? यही चिंता मुझे सता रही थी। इसीलिए मैंने उनसे कहा कि 'एक महीने बाद मैं आपको संघ शाखा में ले जाऊंगा।'
यह वचन देकर मैं लौटा और तैयारी में जुट गया। हम सब स्वयंसेवकों ने तय किया कि डॉ. मुखर्जी जब संघ शाखा में आएं तब उन्हें 'गार्ड ऑफ ऑनर' (अतिथि प्रणाम) दिया जाए। इसके लिए अच्छा संचालन और गणवेश आदि जरूरी थी। खूब दौड़धूप हुई। एक महीने में एक सौ स्वयंसेवक तैयार हो गए। इसी में बाबू पद्मनाथ जी द्वारा भेजे गए लांग बूट भी उपयोग में आए। मुख्य समस्या बैंड (घोष) पथक की थी। उन दिनों दिल्ली के श्री जगदीश अब्रोल कलकत्ता में पंजाब नेशनल बैंक में काम करते थे। उन्हें बिगुल बजाना आता था। इसलिए उनका उपयोग हुआ और घोष की कमी को भी पूरा कर लिया गया।
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को संघ का सही परिचय देने के लिए शाखा का यह स्वरूप सफल रहा और वे संघ कार्य में आगे चलकर बहुत सहायक हुए।
टिप्पणियाँ