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वर्ष: 9 अंक: 41
7 मई 1956
पाञ्चजन्य के पन्नों से
विगत शती में प्रवासियों की सुध लेने वाले कम ही लोग थे। जो विदेशी पादरी उनकी सेवा करने लगते थे, वे अपना उल्लू सीधा करने के लिए ही ऐसा करते थे। पादरियों की 'सेवाओं' के परिणामस्वरूप ही अनेक देशों में सम्पूर्ण भारतीय 20-25 साल में ईसाई बना दिए जाते थे। मारीशस के समीपस्थ फ्रेञ्च द्वीप रेयिन्या में आज ढ़ूंढने पर भी हिन्दू नहीं मिलते। जो वृद्ध लेखक उस द्वीप के बारे में ग्रन्थ लिख रहे हैं, वे मानते हैं कि उनके यौवन काल में कुछ लोग थे, जो अच्छे हिन्दू थे। एक लेखक ने हाल ही में अपने एक ग्रन्थ में उन दिनों की चर्चा करते हुए बताया है कि मकर संक्रान्ति के अवसर पर हिन्दू किस तरह आंनदोत्सव मनाते थे।
इस शती के प्रारम्भ में आर्य समाज ने विदेशों में धर्मप्रचार करने का निर्णय किया।
विदेशों में भारतीय प्रचारक
सर्वप्रथम ऐसे प्रचारक विदेशों में पहुंचे जिनकी भारत में तूती बोल रही थी। स्व. भाई परमानन्द दक्षिण अफ्रीका तथा अमरीका के उन देशों में, जहां प्रवासी बसे हुए हैं, गये। उनके प्रवचनों से लोग जगे।
इधर मारीशस में स्व. डॉ. चि. भारद्वाज का शुभागमन हुआ। उन्होंने ही आंग्ल भाषा में सत्यार्थ प्रकाश को अनूदित किया था।
प्रवासभर में मातृभाषा हिन्दी का प्रचार होने लगा। लोग धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने लगे। प्रवासियों की आंखें खुलीं वे समझ गए कि आज की परम्परा को कायम रखकर ही वे अपने तत्व की रक्षा कर सकेंगे। जब कभी उन दिनों आर्य समाज का कोई मेला लगता था, उसमें लोग अच्छी संख्या में सम्मिलित होते थे। सनातन धर्म का भी प्रचार होने लगा। मारीशस और अफ्रीका को वेदाचार्य श्री पं. रामगोविंद त्रिवेदी जैसे विद्वानों का स्वागत करने का सौभाग्य मिला।
भारत में पं. बनारसी दास चतुर्वेदी और स्व. स्वामी भवानीदयाल प्रवासियों में दिलचस्पी ले रहे थे। वे इस बात को पसंद नहीं करते थे कि प्रवासी-प्रवासी में झगड़ा-टंटा हो। उन्होंने समझ लिया था कि समाज सनातन के झगड़े से शासक फायदा उठाते रहेंगे।
एक बार दोनों वर्ग शास्त्रार्थ करने के विचार से मारीशस के किसी नगर में एकत्र थे। उस समय अंग्रेज शासकों ने धक्का दे-देकर एकत्र हुए लोगों को उस स्थल से हटाया। हिन्दुओं का खूब अपमान किया गया। श्रेष्ठ कोटि के प्रवासियों को सूझा कि भारत में न सही तो कम से कम प्रवास में उदारता से काम लेना चाहिए।
पिछले दशकों में कहीं पर भी न शास्त्रार्थ हुआ, न झगड़ा-टंटा। इतने में सदियों से सुप्त भारत माता की मुक्ति हुई और प्रवास में आशा बंधी कि भारत की ओर से सब प्रकार का प्रोत्साहन मिलेगा।
स्वतंत्र भारत और प्रचार
भारत सरकार ने कहीं दूतों को भेजा तो कहीं कमिश्नरों को। जहां-जहां प्रवासी नहीं हैं, वहां-वहां दूतों ने अपने देश के संबंध में बहुत सी बातों का प्रचार किया। प्रवास में तो पहले से ही लोग तथ्य और आंकड़ों से परिचित थे, क्योंकि वहां भारतीय पत्र-पत्रिकाओं के बहुत से पाठक थे। धर्म-प्रचार में सम्मिलित होने वाले मातृभाषा से प्रेम करके भारत का नाम रोशन करने वाले, भारतीय धर्म का तत्व समझने वाले लोग धनहीन ही होते हैं।
कांग्रेसियों द्वारा डाकुओं को प्रश्रय!
मंत्री द्वारा गंभीर आरोप: गौतम गुप्ता चकचक
मुख्यमंत्री को कार्यसमिति में न रखे जाने की मांग
28 व 29 अप्रैल को लखनऊ में हुई उ. प्र. कांग्रेस कमेटी की बैठक सामान्य बैठक न होकर कांग्रेस के विभिन्न गुटों की अखाड़ेबाजी कही जा सकती है। जिस प्रकार एक गुट ने दूसरे गुट पर आरोप और लांछन लगाए उसे देखकर शायद विरोधी दल के सदस्य भी हतप्रभ रह जाते। व्यक्तिगत प्रत्यालोचना को भी खुलकर स्थान दिया गया।
प्रथम दिवस योजना मंत्री श्री चंन्द्रभानु गुप्ता तथा भूतपूर्व मंत्री मोहनलाल गौतम के बीच काफी तड़क-भड़क रही। तड़क-भड़क तब शुरू हुई जबकि एक प्रस्ताव पर बोलते हुए श्री गौतम ने सरकार पर आरोप लगाए ,''यद्यपि हम कहते हैं कि प्रथम पञ्चवर्षीय योजना के फलस्वरूप सर्वाधिक प्रगति हुई है तथपि वास्तव में ऐसा नहीं है। ''
श्री गौतम ने आगे कहा ,'' जहां तक शिक्षा की प्रगति का सम्बन्ध है। उ.प्र. बीसवां राज्य है। प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों की संख्या में भी कमी
हुई है।
भारतीय चिंतन ही मूल चिंतन
पाश्चात्य तत्वज्ञान का इतिहास केवल ढाई हजार वर्ष का है। स्थूल रूप में तो प्राचीन तत्वज्ञान के कालखण्ड का इतिहास एक हजार वर्ष का, मध्ययुगीन का एक हजार वर्ष का और अर्वाचीन पांच-साढ़े पांच सौ वर्ष का है। भारत में तत्वचिंतन वैदिक काल में नासदीय सूक्तों से प्रारंभ हुआ और तब से वह चिन्तन-गंगा अखण्ड समृद्ध होती रही है। यह कुल कालखण्ड कितने वर्षों का होगा, निश्चित करना होगा। पश्चिमी चिन्तन का बड़ा भाग प्राप्त परिस्थिति की प्रतिक्रिया के रूप में है। भारतीय चिंतन का अधिकांश भाग परिस्थितिनिरपेक्ष मूलभूत चिंतन का है। अत: उसमें शाश्वतता अधिक है। विशेषत: इस विषय में अनुसंधान होने की आवश्यकता है कि पश्चिम में जिस प्रकार तत्वज्ञ की एक विशेष श्रेणी मानी गई है और तत्वज्ञान के संबंध में विचारों को विज्ञान के साथ जोड़ा गया है, उसी प्रकार भारत में क्या कभी हुआ था? पश्चिम का विचार सदैव खण्डकरण पद्धति का रहा है। वे खण्डश: ही विचार करते हैं। हमारे विचार में सदैव समग्रता रही है। इसका परिणाम विचारकों की श्रेणियां निश्चित करने पर भी हुआ है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन खंड-1 तत्व जिज्ञासा
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