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क्या है स्वस्तिक? क्या स्वस्तिक आयार्ें का धर्म चिन्ह है या अनायार्े का? स्वस्तिक शब्द की भारतीय व्याख्या के आधार पर समस्त विश्व इसे 'मंगलकारी, शुभंकर व भाग्यशाली धर्म चिन्ह' के अर्थ में स्वीकार करता आ रहा है, परन्तु आज तक विदेशी तो क्या भारतीय विद्वान भी स्वस्तिक शब्द का मूल अर्थ तथा व्युत्पत्ति नहीं समझ सके। बस, इसे एक धार्मिक चिन्ह कह दिया जाता है। कैसे, क्यों, किसका, क्या इत्यादि प्रश्नों के उत्तर किसी के पास नहीं हैं। शब्दकोष में स्वस्तिक का एक अर्थ 'मंगल चिन्ह' तथा दूसरा 'व्यभिचारी' है। दोनों ही विरोधाभासी हैं। कोई मंगलकारी, व्यभिचारी' कैसे हो सकता है? इसलिए 'व्यभिचारी' अर्थ को भुला दिया गया।
कालान्तर में भारत से विश्व के विभिन्न देशोें तक विस्तारित होने वाले मानव समूह अपने साथ भारतीय धर्म-ज्ञान तथा धर्म-चिन्ह स्वस्तिक को भी लेकर गए थे। यूरोप का एक भी ऐसा देश नहीं जहां खुदाई किए गये प्राचीन कालीन पाषाण-शिल्प तथा अस्थि-कलशों पर स्वस्तिक चिन्ह न मिले हों। ऐसे अस्थि कलश नदियों के तलों तथा दूरस्थ स्थानों पर उसी प्रकार से मिले हैं जैसे आज भी पाकिस्तान के घरों व खण्डहरों में मिलते हैं। अफ्रीका के मिस्र, सूडान, इथोपिया, केन्या व अन्य कई देशों में 7000 वषार्ें से भी अधिक प्राचीन स्वस्तिक चिन्ह पाये जाने के प्रमाण हैं। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण एशिया तथा अमरीका की होपी तथा नवाजो सभ्यता मे भी स्वस्तिक चिन्ह विभिन्न खोजों में पाये गये हैं। फिर 'मानव का मूल स्थान अफ्रीका' का ढिंढोरा क्यों पीटा जाता है? क्या भारतीय मूल की संस्कृत भाषा के स्वस्तिक चिन्ह को तथाकथित अफ्रीका के आदि मानवों ने पूरे संसार में फैलाया था?
संस्कृत शब्द 'स्वस्तिक' तीन शब्दों के योग से बना है। स्व+अस्त+इक, जिनका अर्थ क्रमश: 'अपने आप, खुद से, अन्तर्जात, स्वयं + फेंका हुआ, छोड़ा हुआ, त्यागा हुआ, क्षिप्त + जाना, बार-बार जाना, घूमना, चले जाना, भागना, शीघ्र जाना' होता है। इस प्रकार वह, जो अपने आप को फेंकती हुई शीघ्रता से चली जाती/ जाता है। यह शब्द एक पहेली है। पचास वर्ष पहले से प्राचीन काल तक पहेली हल करना विद्वत्ता का मानदण्ड था, इसलिए विश्व के सभी प्राचीन साहित्यिक लेख तथा धर्मग्रन्थ पहेलियो से भरे पड़े हैं। आज पहेलियां पूछने तथा हल करने का प्रचलन लगभग समाप्त हो गया है। इस प्रकार 'स्वस्तिक का अर्थ है- 'आकाशीय विद्युत'। स्वस्तिक चित्र मे बनी केन्द्र से चारों ओर निकलती हुई रेखायें बिजली को चारों दिशाओं मंे फैलती या फेंकती हुई दर्शाती हैं। प्रारम्भ काल में ये रेखाएं विद्युत की भांति लहरदार थीं। धीरे-धीरे इस चित्र को कलात्मक करते हुए कोणात्मक रूप दिया गया। समस्त विश्व में पूजे जाने वाला स्वस्तिक (विद्युत) का चिन्ह किस धर्म से सम्बन्धित था? आरम्भ में सूर्य की पूजा करने वाले आर्य धीरे-धीरे सूर्य (अग्नि) की धूप और गर्मी से दु:खी होने लगे। अधिकांश आयार्े ने अग्नि के दूसरे रूप ठण्डक तथा पानी देने वाली बिजली को अपना ईश्वर मान लिया। उन्होंने आकाशीय विद्युत के समान्तर प्रतीकों जैसे बिजली की गर्जना के लिए गरजने वाला शेर, विद्युत आकृति के लिए स्वस्तिक तथा त्रिशूल, बादल के पर्यायवाची सर्प के सभी शब्दों को अपने नए धर्म में प्रमुखता से स्थापित किया। आज विद्युत के ये सभी प्रतीक शेर, सर्प, त्रिशूल, स्वस्तिक विश्व की प्रत्येक प्राचीन संस्कृति तथा सभ्यता में पाये जाते हैं। दोनों ही पूर्व एवं पश्चिम मुखी स्वस्तिक शुभ हैं।
वर्तमान विश्व मे विद्युत (अग्नि) धर्म को मानने वाले 95 प्रतिशत लोग हैं। शेष 5 प्रतिशत सूर्य पूजक आयार्ें ने विद्युत धर्म मानने वालों को अनार्य तथा बर्बर नाम दिया, जिसका अर्थ है- बल खाता हुआ, हकलाने वाला (बिजली भी रुक-रुक कर या हकलाने की स्थिति में गरजती है।) भारत में बौद्घ, जैन तथा पौराणिक सनातन धर्म, येरुशलम के तीनों धर्म, यूरोप के अनाम प्राचीन धर्म, मिस्र व अफ्रीका के प्राचीन धर्म, चीन, जापान, रूस तथा एशिया के सभी विद्युत (अग्नि) धर्म हैं। इटली, फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल के प्राचीन आर्य धर्म ईसाइ मत के आने से पहले ही अनार्य संप्रदाय अपना चुके थे, जबकि भारत में रामायण तथा सिख आर्य धर्म बने रहे। -नरेन्द्र पिपलानी
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