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पश्चिम में आज एक कंपन है। इस्लामी कट्टरपंथ का बुखार यूरोप को अपनी चपेट में लेता जा रहा है। 'लॉ ऑफ लैंड गो टू हेल', 'शरिया फॉर यूरोप', 'बुचर दोज़ हू इन्सल्ट इस्लाम' जैसे नारे यूरोप की सड़को पर सुने जा सकते हैं। आतंकी घटनाएं, दंगे-फसाद, यातायात रोककर सड़कों पर सामूहिक नमाज़, शहर-शहर में हलाल बनाम हराम के विवाद आए दिन की बात हो रहे हैं। 'ऑनर किलिंग' के मामले और इस्लामिक स्टेट से जुड़ने वालों की संख्या बढ़ रही है। स्वाभाविकत: यूरोप का मूल निवासी घबराया हुआ है, और इसलिए यूरोप के देश अब रोकथाम के बारे में सोचने लगे हैं। फरवरी के अंतिम सप्ताह में ऑस्ट्रिया की संसद ने वहां के मुसलमानों के लिए एक अलग कानून बनाया। इस कानून के अनुसार ऑस्ट्रिया के इस्लामी संगठनों को विदेशों से वित्तीय अनुदान लेने पर रोक लगा दी गई है। साथ ही कुरान के जर्मन भाषा में तैयार जर्मन प्रारूप को अनिवार्य कर दिया गया है। ऑस्ट्रिया के सबसे लोकप्रिय राजनीतिज्ञ और विदेश मंत्री, 28 वर्षीय सेबेस्टियन कुर्ज का वक्तव्य है कि 'हम ऑस्ट्रिया में ऑस्ट्रियन इस्लाम चाहते हैं। दूसरे देशों द्वारा थोपा गया इस्लाम नहीं।' मुसलमान ऑस्ट्रिया की आबादी का 6 प्रतिशत हैं जिनमें से ज्यादातर तुर्की से आए अप्रवासी श्रमिक हैं।
सारे यूरोप में प्रतिक्रियाओं का बाजार गर्म है। एक नई प्रतिरक्षात्मक सोच आकार ले रही है जिसके अनुसार पहला कदम है स्थानीय मुस्लिम समाज में विदेशी प्रभाव को रोकना। दरअसल सारी दुनिया में अनेक मुसलमान देश अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए इस्लाम के अपने-अपने प्रकार का प्रचार करने में लगे हैं। इनमें सऊदी अरब, कतर, तुर्की, ईरान आदि शामिल हैं। पाकिस्तान सऊदी अरब-छाप इस्लाम का उपयोग अपने रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कर रहा है। उसके खेल का मैदान अपनी ज़मीन से होकर भारत, अफगानिस्तान, नेपाल और बंगलादेश से लेकर बर्मा तक फैला है। सऊदी अरब अपनी अकूत संपत्ति, विश्वव्यापी तेल संबंधों और उनके कारण उपजी रणनीतिक साझेदारियों तथा वहाबी अथवा सलाफी इस्लाम की जन्मभूमि होने के कारण विश्वव्यापी इस्लामी कट्टरपंथ की आग को तेजी से भड़का रहा है। इस छाया युद्घ में तेल से मिलने वाला पैसा हथियार है और दुनिया में गहरा रही वहाबी जड़ंे उसका हासिल है।
वहाबी या सलाफी विचार पैदा हुआ था आज से 750 वर्ष पूर्व अरब में जन्मे इब्न-तैमिया नामक इस्लामी आलिम के साथ। मंगोल हमलावर अरब तक पहुंचे और उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया लेकिन अपनी कुछ पुरानी मंगोल परंपराओं को भी बनाए रखा। तैमिया ने इसे इस्लाम में हो रही मिलावट कहकर इसके खिलाफ आक्रामक एवं हिंसक रुख अपनाया। उसने ऐसे मुसलमानों के विरुद्घ हिंसक जिहाद का फतवा या तकफीर जारी करना शुरू किया। तैमिया की विचारधारा को अट्ठारहवीं सदी में मुहम्मद इब्न-अब्द-अल-वहाब (1703-1792) ने अपनाया और उसका अरब में प्रचार किया। उसी के नाम पर यह तथाकथित 'शुद्घ इस्लाम' का आक्रामक प्रचार करने वाली विचारधारा वहाबी कहलाई। मोहम्मद वहाब का सउदी राज्य के संस्थापक मोहम्मद बिन सऊद के साथ समझौता हुआ जिसमें ये तय हुआ कि वे दोनों मिल कर अरब प्रायद्वीप के लोगों को 'वास्तविक इस्लाम' की ओर लाएंगे। 'ए हिस्ट्री ऑफ सऊदी अरब' के अनुसार प्रथम मुलाकात में सऊदी शासक मोहम्मद बिन सऊद ने वहाब से कहा 'ये नखलिस्तान आपका है, अपने शत्रुओं से मत डरो। अल्लाह की कसम है कि यदि सारे नज़्द (सऊदी अरब में रहने वाले लोग) भी आपको बाहर निकालना चाहें तो हम ऐसा नहीं होने देंगे।' वहाब ने उत्तर दिया, 'आप मुखिया और बुद्घिमान व्यक्ति हैं। मैं चाहता हूं कि आप मुझसे वादा करें कि आप काफिरों के खिलाफ जिहाद करेंगे, बदले में आप उम्मा के मुखिया होंगे और मैं मज़हबी मामले देखूँगा।'' इस प्रकार वहाबी विचारधारा सऊदी अरब की शासकीय सोच और औजार बन गई और जब बीसवीं शताब्दी में अरब की जमीन तेल उगलने लगी तब नवधनाढ्य अरब देशों ने वहाबी विचार को दुनिया में अपने प्रभाव के विस्तार का जरिया बना लिया।
वहाबी विचार की मारक क्षमता को समझने के लिए एक छोटी सी मिसाल। पैगंबर मोहम्मद के देहांत के बाद कुरान की आयतों को संकलित करने का काम शुरू हुआ जो तीसरे खलीफा तक चलता रहा। बारहवीं सदी में तैमिया ने इसकी अपने तरीके से व्याख्या करते हुए कहा कि कुरान आसमान से उतरी किताब है। ये हमेशा से थी। इसे मानव निर्मित कहना कुफ्र है। इब्न तैमिया ने घोषणा की, कि कुरान को मानव निर्मित कहने वाला या तो माफी मांगे अथवा मौत के घाट उतार दिया जाएगा। तैमिया के चेले वहाबी उसके शब्दों पर कायम हैं। शब्दों के इस हेर फेर से बड़ी समस्या खड़ी होती है। कुरान में कई आयतें ऐतिहासिक संदभार्ें में हैं जिनमें सशस्त्र जिहाद की बात कही गई है। यदि वहाबी विचार को मान लिया जाए तो काफिरों की गर्दनें उड़ाने वाली वे आयतें आज भी जस की तस लागू हो जाएंगी। वहाबी आज की दुनिया को मध्यकालीन चश्मे से देख रहे हैं। संकट ये है कि दो अति धनाढ्य देश सऊदी अरब और कतर, जहां वहाबी या सलाफी संप्रदाय राज्य का मज़हब है, इसे दुनिया में पूरी ताकत के साथ फैलाने में लगे हैं। इस निर्यात को पूरी तरह समझने के लिए सऊदी अरब के जीवन, शासन, प्रशासन में थोड़ा सा झांकना अच्छा रहेगा।
सऊदी अरब विशाल सऊद परिवार की राजशाही और वहाबी विचार में जकड़ा हुआ एक बंद समाज है। यहां का सरकारी-मजहबी पाठ्यक्रम बच्चों को सिखाता है दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक सलाफी अथवा वहाबी मुसलमान, जो कि अल्लाह के चुने हुए लोग हैं, जो जीतने वाले लोग हैं और जो जन्नत में जाएंगे। और शेष हारे हुए, धिक्कारे हुए लोग हैं, जिनमें दूसरे मुसलमान, यहूदी, ईसाई और अन्य गैर मुसलमान हैं जो जहन्नुम में जाने वाले हैं। गैर सलाफी या गैर वहाबी मुसलमानों को ये पाठ्यक्रम केवल नाम का मुसलमान बतलाता है जो कि नफरत के काबिल हैं। इसीलिए सऊदी अरब का मुसलमान सारी दुनिया के शेष मुस्लिमों को हेय दृष्टि से देखता है। यही कारण है कि भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि कहीं का भी मुसलमान सऊदी अरब जाकर अरब लोगों की नौकरी तो कर सकता है लेकिन किसी अरब लड़की से शादी करना तो दूर, सोचने की भी हिम्मत नहीं कर सकता। अरबी मुसलमानों द्वारा वहां रह रहे दूसरे अप्रवासी मुसलमानों के साथ किए जा रहे अपमानजनक एवं अमानवीय व्यवहार के वीडियो इंटरनेट पर बहुलता से उपलब्ध हैं। नफरत का जहर बच्चों के खून में घोला जा रहा है। नौंवीं कक्षा में पढ़ाई जा रही हदीस की बानगी देखिए – ''फैसले का दिन (कयामत का दिन) तब तक नहीं आएगा जब तक मुसलमान यहूदियों से लडें़गे नहीं और यहूदियों को कत्ल नहीं करेंगे। और जब यहूदी किसी पेड़ या पत्थर के पीछे छिप जाएगा तो वह पेड़ या पत्थर चीख उठेगा कि 'ओ मुसलमान! ओ अल्लाह के गुलाम! मेरे पीछे एक यहूदी छिपा है। आओ और इसे कत्ल कर दो। केवल वही पेड़ चुप रहेगा जो यहूदी पेड़ होगा।' सऊदी अरब में विद्यालय जाने वाले 14 वर्षीय बालकों को ये पढ़ाया जा रहा है। मज़हब् ाी पाठ्यक्रम तय करने वाले लोग सरकार के द्वारा चुने गए और सरकार से तनख्वाह पाने वाले लोग हैं। सरकारी पाठ्यक्रम कहता है कि दुनिया के 95 प्रतिशत मुसलमान कहने भर के मुसलमान हैं। इस वक्तव्य को आप वॉशिंगटन की मोहम्मद इब्र सऊद यूनिवर्सिटी द्वारा छापी गई किताबों में भी देख सकते हैं। सऊदी अरब में टीवी, सरकारी चैनल, पुस्तकालयों में पाई जाने वाली किताबें, सरकारी और निजी विद्यालय, सभी केवल सलाफी विचार को ही मान्यता देते हैं। यहां सलाफियों के अतिरिक्त कोई और इतिहास अथवा मजहबी शिक्षा नहीं दे सकता। शियाओं के खिलाफ अपमानजनक या हिंसक टिप्पणी भी कोई अनोखी बात नहीं।
ओसामा-बिन-लादेन सऊदी शासक वर्ग के खिलाफ हो गया था। इसलिए वे उसकी निंदा करते हैं लेकिन वे उसकी विचारधारा की निंदा नहीं करते। गौरतलब है कि ओसामा बिन लादेन का मानस किसी मदरसे में नहीं, सऊदी अरब के शिक्षातंत्र में गढ़ा गया था। वहां के मजहबी नेता भी कभी तालिबान अथवा लादेन के खिलाफ नहीं बोले। महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक हैं। विडंबना है कि ये सोच, ये विचार लेकर सऊदी अरब के विश्वविद्यालय दुनिया के देशों में अपनी शाखाएं खोल रहे हैं। वहाबी उपदेशक नफरत का जहर बोते घूम रहे हैं।
सऊदी सरकार दुनिया में सलाफी इस्लाम के फैलाव के लिए हर साल करोड़ों डॉलर खर्च कर रही है। सऊदी अरब के मजहबी विश्वविद्यालय दुनिया भर में मस्जिदें स्थापित कर रहे हैं और दुनिया भर के मुसलमान छात्रों को सऊदी अरब आकर सलाफियत सीखने और सलाफी (बहाबी) बनने के लिए मोटी छात्रवृत्तियां दे रहे हैं। वे हर वर्ष हजारों सलाफियों को विश्व भर में भेज रहे हैं। विभिन्न भाषाओं में करोड़ों किताबें छाप कर मुफ्त बांटी जा रही हैं। बड़े-बड़े सेमिनार आयोजित किए जा रहे हैं। इन प्रयासों का आकार और दायरा समझने के लिए अमरीका एक अच्छा उदाहरण है। आज अमरीका की 80 प्रतिशत मस्जिदें वहाबियों के नियंत्रण में हैं। 1970 से आज तक इन प्रयासों के अंतर्गत 75 बिलियन डॉलर खर्च किए गए हैं। 19 अगस्त 2004 को वॉशिंगटन पोस्ट के रिपोर्टर डेविड बी ओट्टावे ने अपनी खोजी रपट में लिखा कि सऊदी सरकार के इस्लामी मामलों के मंत्रालय द्वारा 3684 वहाबी मिशनरियोें को अमेरिका में प्रचार करने के लिए वेतन दिया जा रहा है। इसी प्रकार एशिया और अफ्रीका में काम करने वाले वहाबी प्रचारकों पर सऊदी दूतावासों से अधिक धन खर्च किया जा रहा है। ओट्टावे की रिपोर्ट कहती है कि अमरीका स्थित सऊदी दूतावास में 40 सदस्यीय इस्लामी मामलों का विभाग स्वतंत्र रूप से कार्य कर रहा है। ऐडवर्ड एल मोर्से नामक तेल विश्लेषक ने ओट्टावे को बतलाया कि 2,00,000 बैरल तेल की कीमत जितनी राशि प्रतिदिन सलाफियत के प्रचार के लिए अलग रख दी जाती है।
वहाबी मस्जिदें सऊदी सरकार द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त संगठनों, जैसे मुस्लिम वर्ल्ड लीग, वर्ल्ड एसोसिएशन फॉर मुस्लिम यूथ आदि के साथ जुड़कर अपनी गतिविधियों को आगे बढ़ाती हैं। तबलीगी जमात ने भी यूरोपीय देशों में अपनी पकड़ जमा ली है। अमरीका में इसका मुख्यालय न्यूयार्क स्थित में अल-फतह मस्जिद में है। 14 जुलाई 2003 न्यूयॉर्क टाइम्स में एफबीआई की अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद की शाखा के डिप्टी चीफ माइकल जे़ डीमबाक का बयान छपा कि ''अमरीका में तबलीगी जमात की अच्छी खासी उपस्थिति है। अल-कायदा रंगरूटों की भर्ती के लिए उसका इस्तेमाल कर रहा है।'' भारत और पाकिस्तान में सक्रिय तबलीगी जमात को सऊदी अरब वित्तीय पोषण देकर उसका उपयोग कर रहा है।
ये दूसरे पश्चिमी देशों एवं एशिया तथा अफ्रीका में भी गतिविधियां चल रही हैं। इसमें दुनिया के इस्लामीकरण और सलाफियत के गुपचुप फैलाव के लिए छद्म आवरणों का निर्माण भी शामिल है। इसके लिए जटिल सांगठनिक ढांचों का जाल बिछाया गया है। इसमें मस्जिदें, सामुदायिक समूह, विद्यालय, अस्पताल, सेवा संगठन, मानव अधिकार समूह, कानूनी सहायता समूह, अकादमिक संस्थान, इस्लामी थिंक टैंक और बड़े-बड़े प्रकाशक तथा मीडिया समूह शामिल हैं। ये सभी पुर्जे आंतरिक रूप से एक दूसरे से संबद्घ भी रहते हैं, और वैश्विक तथा स्थानीय स्तर पर तालमेल बिठाकर काम करते हैं। उपरोक्त साधनों का उपयोग कर के राजनैतिक प्रभाव भी बढ़ाया जाता है। आवश्यकता के अनुसार जातीय, भाषायी या वामपंथी अथवा अन्य समूहों से गुपचुप समझौते कर लिए जाते हैं। पश्चिमी देशों में पूंजीवाद विरोधी या ज़ायनिस्ट (यहूदी) विरोधी तबके के साथ गठजोड़ कर लिए जाते हैं। इसके लिए दीर्घकालीन रणनीति बनाकर संभावित सहयोगियों के बीच घुसपैठ भी की जाती है।
चिंता की बात ये है कि भारत में भी वहाबी हवा जोर पकड़ रही है। गुप्तचर ब्यूरो की रपट के अनुसार पिछले वर्ष भारत में 25,000 वहाबी उपदेशक आए। सऊदी अरब से भारी मात्रा में पैसा भी आ रहा है। पिछले 3 वर्षों में वहाबियों ने लगभग 1700 करोड़ रूपए प्राप्त किए हैं। उत्तर से दक्षिण तक स्थानीय भाषाओं में छपा वहाबी साहित्य मुफ्त बांटा जा रहा है। सार्वजनिक स्थानों पर दाढ़ी एवं बुर्के पहले की तुलना में कहीं ज्यादा दिख रहे हैं। कहीं-कहीं पर, विशेष तौर पर दक्षिण में अरबी वेशभूषा के प्रति झुकाव भी देखा जा रहा हैं। अरबी जीवनशैली इस्लाम का प्रतीक बन रही है। हाल ही में अपने को सेकुलर कहने वाले कुछ दलों के प्रत्याशी चुनावों में अरब की विशेष पहचान कफिया (सिर पर पहना जाने वाला सफेद कपड़ा) पहन कर प्रचार करते देखे गए। खुफिया सूत्रों के अनुसार करोड़ों रुपए खर्च कर के वहाबी विश्वविद्यालय और मस्जिदें खड़ी की जा रही हैं। पुरानी मस्जिदों को वहाबी नियंत्रण में लाने के लिए भी सैकड़ों करोड़ों रुपए उड़ेले जा रहे हैं। कश्मीर से लेकर केरल तक वहाबी अपना नियंत्रण स्थापित करने में लगे हैं। जमात अहले हदीस ने सबसे पहले कश्मीर में अपना आधार बनाया। आज कश्मीर में लगभग 400 मस्जिदें वहाबियों द्वारा संचालित हो रही हैं। गत वर्ष की रिपोर्ट के अनुसार महाराष्ट्र में 40 और केरल में 75 मस्जिदों पर वहाबियों का
नियंत्रण है।
अच्छी बात ये है, कि वहाबियों के तंग नजरिए और अति कट्टर जीवन शैली के कारण मुस्लिमों के अंदर भी इनका खासा विरोध है। लेकिन नयी उम्र के किशोर और युवा इनका आसान निशाना हैं। इस बारे में लोगों को सावधान करने और भारत को कट्टरता के इस ज्वार से बचाने के लिए निरंतर उपाय करने की आवश्यक्ता है। हमारे देश में पत्ते काटने और जड़ सींचने की परंपरा रही है। हम आतंकी गतिविधि को गंभीरता से लेते हैं, लेकिन आतंक के पीछे के विचार को हल्के में उड़ा देते हैं। अब बदलाव का समय आ गया है। नजरिए पर नजर रखिए तो असलहे पर नजर रखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
महिलाएं : दोयम दर्जे की नागरिक
सऊदी अरब में महिलाओं के पास पहचान पत्र नहीं हैं। वे एक वस्तु की तरह पिता द्वारा अपने पति को स्थानांतरित हो जातीं हैं। यदि किसी महिला को शल्य चिकित्सा की आवश्यकता हो तो वह जरूरी कागजों पर हस्ताक्षर तक नहीं कर सकती। उसे अपने बेटे, पति अथवा पोते का मुंह देखना पड़ेगा। वह कार नहीं चला सकती। व्यापार अथवा नौकरी नहीं कर सकती। शासन, प्रशासन का हिस्सा नहीं बन सकती। दम घोंटने वाला परदा तो है ही। सर कलम करने की सार्वजनिक सजाएं आम हैं। इस व्यवस्था का सवार्ेच्च आदर्श है सारी दुनिया पर इस्लाम का झंडा लहराना। – प्रशांत बाजपेई
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