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.डा. सतीश चन्द्र मित्तल
नि:संदेह पं. जवाहरलाल नेहरू भारत की स्वतंत्रता के महान संघर्षकर्ता ही नहीं, अपितु स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने लगभग 17 वषोंर् (अर्थात 5025 दिनों तक अपने ढंग से 'आइडिया ऑफ इंडिया' को स्वरूप दिया। उन्होंने अपने घोषणाओं में' 208 अध्यादेशों, विशद् संसदीय कानूनों, अपनी धारणाओं एवं कल्पनाओं के अनुसार भारत के भविष्य का निर्माण किया। उनके ही मार्गदर्शक सिद्धांतों तथा विचारों को उनके परिवार के सदस्यों-इंदिरा गांधी, राजीव गांधी व सोनिया गांधी ने अपनाया ही नहीं बल्कि सत्ताधारी कांग्रेसियों ने भारत के भविष्य का आधार बनाया।
पं. नेहरू के 'आइडिया ऑफ इंडिया' को उनके द्वारा लिखे मुख्य ग्रन्थों 'सोवियत रूस', 'ग्लिम्पसेज' ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री', आत्मकथा, 'द डिस्कवरी ऑफ इंडिया', उनके भाषणों तथा उनके पत्र व्यवहार से भली-भांति समझा जा सकता है। उनके चिंतन मनन को समझने में उनका पारिवारिक परिवेश, मानसिक रचना तथा विचारों का प्रवाह जानना भी महत्वपूर्ण होगा। यह सर्वविदित है कि पं. नेहरू का बचपन तथा शिक्षाकाल मुगलिया ठाट-बाट से पूर्ण तथा अंग्रेजियत के वातावरण से पूर्ण था। 1890 से 1900 ई. तक घर के प्रत्येक सदस्य को अंग्रेजी में ही बोलने की हिदायत थी, उन्हें लगभग 22 वर्ष (1889-1912 ई.)तक भारतीय वातावरण से प्रयत्नपूर्वक दूर रखा गया था। उनके घर में धर्म औरतों का काम समझा जाता था। वे 1905 ई. में इंलैण्ड चले गए थे तथा हेरो, कैम्ब्रिज तथा इनर टेम्पल में वैरिस्टरी उत्तीर्ण कर 1912 में भारत लौटे थे। भारत आते ही उन्होंने स्वयं में पूरब-पश्चिम का विचित्र मिश्रण किया। पं. नेहरू के प्रसिद्ध जीवनी लेखक माइकल ब्रीचर ने लिखा कि वे हिन्दू होकर हिन्दुत्व से कटे थे (नेहरू पॉलिटिकल बायोग्राफी, पृ.3)। स्वयं उन्होंने अपने को हिन्दू होना 'संयोग' ही माना। विश्व प्रसिद्ध नास्तिक नेता रस्क डिकेन्स ने उन्हें नास्तिक लिखा (देखें, द गॉड डिल्यूजन, पृ. 66
1912 ई. में भारत आने पर उन्होंने पहली बार बांकीपुर के कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया जो उन्हें 'पिकनिक पार्टी' सी लगी। 1916 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में उनकी पहली बार गांधी जी से भेंट हुई। वे उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए पर उनके दर्शन से नहीं (आत्मकथा पृ. 508) वस्तुत: दोनों के चिंतन में तो जमीन-आसमान का अंतर था। वे राजनीति में पिछले द्वार से आए। वे चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने परन्तु चारों ही बार कांग्रेस संगठन के विरोध, असहमति तथा गांधी जी के व्यक्तित्व के प्रभाव से।
नेहरू का चिंतन
मोटे रूप से नेहरू के 'आइडिया ऑफ इंडिया' को उनके इतिहास चिंतन तथा उनके समकालीन समाजवाद, राष्ट्रवाद तथा सेकुलरवाद के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। जहां तक पं. नेहरू की इतिहास विषयक जानकारी है वह सामान्यत: पाश्चात्य इतिहासकारों के अनुरूप है। वे भी विश्व तथा भारतीय इतिहास सम्बंधी भ्रांतियों तथा विसंगतियों से अछूते नहीं हैं। उनके विचार मुख्यत: उनकी दो पुस्तकों 'ग्लिम्पसेज ऑफ वर्ल्ड हिस्टी' तथा 'द डिस्कवरी ऑफ इं़डिया' 'ग्लेम्पसेज' में उन्होंने अपने विचार अपनी पुत्री इन्द्रिरा को 1192 पत्रों के रूप में दिए हैं, जिन्हें इन्दिरा के लिए एक 'कारसपोण्डेंस कोर्स' कहा जा सकता है। यह कटु सत्य है कि पं. नेहरू को न भारत के अतीत से कोई लगाव था और न ही कोई गौरव। बल्कि अनेक बार वे इसके प्रति रूढि़वादी थे तथा चिढ़ते थे। उनके अनुसार विश्व की प्राचीनतम सभ्यता मिस्र की है जो लगभग सात सौ हजार वर्ष ई. की है। भारत सभ्यता के विकासक्रम में पं. नेहरू के विचार से दूसरे सोपान में आता है जो 3500 वर्ष ई. पूर्व का है। वे मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा को भारत की प्राचीनतम सभ्यता मानते थे जहां द्रविड़ों का सभ्य समाज रहता था। उनके अनुसार भारत पर आर्यों ने आक्रमण किया। वे भारत के प्राचीन ग्रंथों को इतिहास का अंग नहीं मानते। रामायण तथा महाभारत के 'इलियड' या 'औडेसी' की भांति काल्पनिक तथा काव्य ग्रन्थ मानते हैं। वे यूरोपीय इतिहास में वर्णित अनेक मिथकों की भी, भारतीय इतिहास में कल्पना करते हैं। वे भारत की भाषाओं को संस्कृत की पुत्री नहीं मानते ('ग्लिेम्पसेज'… देखें 14, 1931 का पत्र) वे इतिहास में केवल कल्हण की राजतरंगिणी को महत्व देते हैं जो कश्मीर के इतिहास को दर्शाती हैं, परम्पराओं की आलोचना करते हैं। मुसलमान आक्रमणकारियों की प्रशंसा करते हैं। सामान्यत: सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों की आलोचना करते है। पं. नेहरू भारत के भविष्य के निर्माण में मार्क्स व लेनिन के समाजवाद से अत्यधिक समायोजित तथा प्रभावित थे। वे 1927 ईं. में अपनी सोवियत रूस की यात्रा में समाजवाद की प्रगति को देखकर भौंचक्के हो गए। (देखें नेहरू की पुस्तक 'सोवियत रूस' 1927) विशेषकर वहां की पंचवर्षीय योजना तथा वहां की विशाल परेड को देखकर। इसकी नकल उन्होंने भारत में भी योजनाओं तथा 26 जनवरी की परेड से की। परन्तु वे वहां के अधिनायकवादी तंत्र को गहराई से नहीं देख पाए। जिसमें जनता से दमन, दबाव तथा दहशत से काम लिया जाता था। इसी कारण कालान्तर में भारतीय पंचवर्षीय योजनाएं आंशिक रूप से ही सफल हुईं। भारत का विकास भी, उन्हें समाजवाद के विकास में लगा। उन्होंने इन्दिरा को अपने पत्रों में बार-बार लेनिन की महान क्रांति 1917 की वोल्शेविक क्रांति का बखान किया जिसने उनके अनुसार रूस की गरीबी व कठिनाइयों को नष्ट कर डाला। उन्होंने घोषणा की कि समाजवाद के बिना वास्तविक स्वतंत्रता नहीं हो सकती। उनके प्रयत्नों से 1934 ईं. में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टा का गठन हुआ पर वे उसके सदस्य नहीं बने। 1936 में उन्होंने लखनऊ कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में समाजवाद का यशोगान किया।
भारतीय जनसमाज ने पं. नेहरू की इच्छानुसार भारत के भविष्य को स्वीकार न किया। पहले सुभाषचन्द्र बोस ने पं. नेहरू को एक लम्बा पत्र लिखकर उनके समाजवादी विचारों को नकार दिया था। गांधी जी भारत का भविष्य 'रामराज्य' या ग्राम स्वराज में देखे रहे थे। डा. अम्बेडकर को उनके विचार स्वीकार न थे। पं. नेहरू की तीव्र इच्छा के विपरीत भारतीय संविधान की उद्देशिका में समाजवाद से प्रभावित न थे। प्रो. आर. सालोवास्की ने पं. नेहरू को एक व्यक्तिवादी समाजवादी बताया जो भारत की सबसे बड़ी बुर्जआ पार्टी के नायक थे। रूस के प्रसिद्ध इतिहासकार औरिष्ट मार्टीशन ने पं. नेहरू को व्यक्तित्व को एक पेचीदा उलझन तथा अन्तर्द्वंन्द्व से परिपूर्ण, अस्थिर तथा विवादास्पद बताया (देखें जवाहरलाल नेहरू एण्ड हिज पॉलिटिकल व्यूज, मास्को) पंडित नेहरू के वामपंथी मित्रों ने जिन्हें प्राय: वे अपना सहयोगी समझते थे उनके विचारों की आड़ में मार्क्सवादी विचारों का प्रचार तो किया पर साथ न दिया। रही-सही कसर1962 ई. में चीन द्वारा भारत की शर्मनाक हार ने पूरी कर दी। अत: उन्हें स्वयं निराशा हुई।
राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में भी पं. नेहरू पाश्चात्य राजनीतिक राष्ट्रवाद से प्रभावित थे। उन्होंने कभी भारत में युगों से प्रचलित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को स्वीकार नहीं किया बल्कि इसकी कटु आलोचना की। उन्होंने प्राय: राष्ट्रवाद को अन्तरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा तथा भूल गए कि राष्ट्रवाद के अभाव में अन्तरराष्ट्रवाद खोखला तथा आधारहीन है। वे अंग्रेजों की भांति भारत को एक बनता हुआ राष्ट्र मानते थे। सम्भवत: उन्होंने अपनी एक पु्स्तक का नाम इसीलिए 'द डिस्कवरी ऑफ इंडिया' रखा था। उनका मत था कि राष्ट्रीयता संघर्षशील देश में एक स्वस्थ शक्ति होती है, लेकिन देश के स्वतंत्र होने के पश्चात वही राष्ट्रीयता प्रतिक्रियावादी और विकीर्ण बन सकती है।
पं. नेहरू का सेकुलरवाद अर्थात् धर्मनिरपेक्षवाद पूर्णत: ब्रिट्रिश तथा अमरीकियों के चिंतन पर आधारित था। उन्होंने कभी भारतीय पंथनिरपेक्षता के सिद्धांतों की ओर देखने का प्रयास नहीं किया। वे धर्म को रिलीजन ही समझते थे। इस सन्दर्भ में उनका चिंतन गांधी जी के बिल्कुल विपरीत था। जहां गांधी जी अपने को हिन्दू कहलाने का गौरव तथा इसके अभाव में मृत्यु तक का आलिंगन करने को आतुर थे तथा हिन्दू धर्म को अपने श्रद्धेय कार्यों का प्रेरक तथा मार्गदर्शक मानते थे, पं. नेहरू को अपने जीवन में हिन्दू शब्द से ही 'एलर्जी' थी। वे आत्मा, परमात्मा, धर्म, संस्कृति, परम्परा आदि शब्दों से क्षुब्ध होते थे। मार्क्स तथा लेनिन धर्म को अफीम की पुडि़या कहते थे तो वह धर्म को जहर मानते थे। उन्होंने ग्लिम्पसेज…में एक स्थान पर लिखा/धर्म मनुष्य को अंधेरे में रखता है, सोचने की दृष्टि कम करता है, दूसरे के प्रति क्रूर तथा असहिष्णु बनाता है, हजारों लोग मारे जाते हैं तथा अनेक अपराध किए जाते हैं। उनके अनुसार धर्म में राजनीति का प्रयोग नैतिक अवमूल्यन तथा मस्तिष्क को रूढि़वादी बनाता है। (ग्लिम्पसेज …. भाग तीन पृ. 434) संक्षिप्त में पं. नेहरू ने पाश्चात्य चिंतन तथा दर्शन के आधार पर हिन्दू प्रतिरोध, मुस्लिम तुष्टीकरण तथा मिश्रित संस्कृति की वकालत में भारत का भविष्य देखा। प्रसिद्ध इतिहासकार बी. आर नन्दा का विचार है कि भारतीय संस्कृति यहां तक कि अकबर के काल में भी मिश्रित संस्कृति न थी। अत: पं. नेहरू कभी भी भारतीय संस्कृति को न अनुभव कर सके जो सर्वदा भारत की आत्मा रही है।
नेहरू के उत्तराधिकारी
ताशकन्द में लालबहादुर शास्त्री की रहस्यमय मृत्यु के उपरान्त श्रीमती इन्दिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं। उनका भी पालन पोषण विलासिता में हुआ था। पिता पं. नेहरू उनकी शिक्षा बिना पाश्चात्य शिक्षा के अधूरी समझते थे। अत: उन्हें कुछ समय के लिए विदेश भी भेजा गया। उन्होंने राष्ट्र के नाम अपने पहले ही सम्बोधन में सेकुलरवाद की दुहाई दी। वस्तुत: जो काम पं. नेहरू न कर सके वह इन्दिरा ने कर दिखाया। भारत में पनपते राष्ट्रवाद के दमन के लिए देश में क्षुद्र स्वार्थवश आपातकाल की घोषणा की। 25 जून 1975 को इन्दिरा सरकार ने जयप्रकाश नारायण पर राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें कारागार में डाल दिया। मुस्लिम तुष्टीकरण को बढ़ावा मिला। 31 अक्तूबर, 1984 को इन्दिरा गांधी की हत्या के दिन भारतीय संविधान परम्पराओं को शर्मनाक ढंग से उल्लंघन कर उसी दिन शाम को राजीव गांधी को देश का प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। दुर्भाग्य से न राजीव गांधी को भारत की राजनीति का किंचित भी ज्ञान था और न ही कोई रुचि। स्वाभाविक है कि हिन्दू प्रतिरोध तथा मुस्लिम तुष्टीकरण बढ़ा। राजीव गांधी ने मुसलमानों को खुश करने में शाहबानो प्रकरण द्वारा उच्चतम न्यायालय के आदेशों का भी आदर नहीं किया।
पुन: 2004-2013 तक कांग्रेस का शासनकाल रहा। सोनिया गांधी की सरकार ने नेहरू तथा इन्दिरा गांधी के विचारों का ब्रह्म वाक्य के रूप में प्रयोग किया। मुसलमानों के लिए एक अलग मंत्रालय, 15 सूत्री कार्यक्रम, बजट में विशेष सुविधाएं, आरक्षण, हज यात्रा से आयकर में छूट तथा सरकारी छूट दी गई। सच्चर कमेटी तथा रंगनाथ आयोग की सिफारिशों को प्रोत्साहन दिया। असम में बंगलादेश के लाखों मुसलमान घुसपैठियों के प्रति उदारनीति, कश्मीर में तीन वार्ताकारों की रपट पर लीपा-पोती आदि कायोंर् ने देश की राष्ट्रीय स्थिरता के लिए खतरा पैदा कर दिया।
2014 के चुनाव की अपमानजनक हार के पश्चात अब राहुल गांधी 'आइडिया ऑफ इंडिया' पर पुन: बहस की बात कर रहे हैं। चिंतन का विषय है कि क्या चुनावी वोट बैंक की राजनीति से देश के भविष्य से खिलवाड़ किया जा सकता है? देश की नई पीढ़ी को इस पर गंभीरता से चिन्तन करना होगा कि राष्ट्रहित, राष्ट्र का भविष्य तथा राष्ट्र निर्माण पहले है, शेष सभी मुद्दे-सभी प्रश्न बाद में है।
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