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आपा की बात पर आपे से बाहर 

by
Mar 7, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Mar 2015 12:39:38

स्मिता मिश्रा
हर समाज व पंथ में कुछ ऐसी कुरीतियां व रीति-रिवाज प्रचलित होते हैं जो भेदभाव को बढ़ाते हैं। गतिशील समाज की पहचान ऐसी कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष करने की क्षमता से होती है। लेकिन इस्लाम में व्याप्त इन कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करना तो दूर अपने अंदर झांकने की कोशिश से भी कट्टरपंथी तत्वों में कैसी बौखलाहट दौड़ जाती है उसकी झलक हाल ही में दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में देखने को मिली।
दो हफ्ते पहले जब वितस्ता पब्लिकेशंस की ओर से मुझे एक किताब के विमोचन कार्यक्रम के संचालन का आग्रह किया गया तो मैंने सोचा, पहले की तरह यह भी राजनीति से जुड़ी कोई पुस्तक होगी। लेकिन जब किताब मेरे हाथ में आई तो मुझे काफी हैरानी हुई। जानी-मानी लेखिका नूर जहीर की लिखी पतली सी किताब को मैंने पहले से अंतिम पन्ने तक पढ़ डाला। किताब में इतनी दिलचस्पी होना स्वाभाविक था। किताब का शीर्षक 'डिनायड बाय अल्लाह' अपने आप में काफी कुछ कह रहा था। वास्तव में किताब ऐसी कुरीतियों का कच्चा चिट्ठा थी जो अल्लाह के नाम पर शरियत की व्याख्या करने वाले इस्लाम के मजहबी गुरु या मौलाना की मदद से चलती चली आ रही हैं।
पुस्तक के विस्तृत अध्ययन से दो कड़वी सचाइयां सामने आती हैं। पहली, शरियत के अंतर्गत कई ऐसे रीति-रिवाज हैं जो महिलाओं को सम्मानपूर्वक जीवन के हक से वंचित करती हैं। मगर उससे भी ज्यादा चिंताजनक सचाई यह है कि मौलिक रूप से महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान को सुरक्षित रखने के मकसद से बनाए गए रिवाजों की भी मौलानाओं ने अपनी सुविधा और लालच के चलते कुछ इस तरह व्याख्या की है कि वे महिलाओं के मानवाधिकारों पर भयंकर कुठाराघात करते हैं। सबसे ज्यादा चिंताजनक बात जो इस पुस्तक से उभरकर सामने आई, वह यह है कि कई रिवाजों का प्रचलन अतीत के मुकाबले आज के तथाकथित उन्नत समाज में कई गुणा ज्यादा देखने को मिल रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह मौलानाओं में बढ़ता भ्रष्टाचार है। वहीं दूसरी ओर महिलाओं को सुरक्षा देने के नाम पर प्रचलित इन तमाम रिवाजों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत जिसने भी की उसके साथ समाज ही नहीं, उसके परिवार ने जो सलूक किया उससे आइंदा आवाज उठाने वालों के हौसले भी पस्त कर दिए।
अपनी बेबाकी के चलते पहले से ही कट्टरपंथियों के निशाने पर रहीं लेखिका नूर जहीर ने पुस्तक मेले के कार्यक्रम में अपनी बात रखते हुए कहा कि इस्लाम के नाम पर अपनी जेब गर्म करने वाले मौलानाओं के भरोसे इन कुरीतियों के खत्म होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। इस बात को दोहराते हुए वह सबसे पहले भारतीय हैं और भारत का संविधान उनका सबसे बड़ा रक्षक। जहीर ने दो टूक कहा कि समान आचार संहिता ही मुस्लिम महिलाओं का मानवाधिकार और सम्मान सुनिश्चित कर सकती है। मगर कट्टपंथी तत्वों में इन कटु सचाइयों को समझना तो दूर, सुनने का भी धैर्य नहीं था। लिहाजा, विमोचन में अपनी बात रखने आए काजी-ए-शरियत मौलाना कामिल के समर्थकों ने कार्यक्रम में बवाल खड़ा कर दिया। लेखिका का दोष केवल इतना था कि कार्यक्रम खत्म होने से पांच मिनट पहले पहुंचे मौलाना साहब ने जब शरियत के हवाले से पत्नी को पीटने को जरूरी बताए जाने की वकालत की तो नूर जहीर ने इसका विरोध किया।
अगर नूर जहीर इस किताब को लिखकर चौतरफा परेशानियों से घिर गई हैं तो किताब के प्रकाशक वितस्ता प्रकाशन (2/15, अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली-110002, फोन-011-23263522, 23283024) की मुखिया रेणु कौल वर्मा उनसे भी ज्यादा मुसीबतों का सामना कर रही हैं। जब सभी प्रकाशकों ने नूर को टका सा जवाब दे दिया तो रेणु ने उसे छापने की हिम्मत की। बकौल रेणु, 'एक महिला होने के नाते मैं उस पुस्तक में लिखी सचाइयों से इतनी चिंतित हुई कि मुझे लगा इसे दुनिया के सामने लाना मेरा प्रकाशक धर्म है। लेकिन हमें हैरानी है कि मुस्लिम समाज के जाने-माने चिंतक और तथाकथित प्रगतिशील लोगों ने कार्यक्रम में बोलने से इनकार कर दिया। देश के शीर्ष मीडिया घरानों ने पुस्तक की समीक्षा तो दूर उसे लेने से भी इनकार कर दिया।'
कहानी यहीं खत्म नहीं होती। हाल ही में वाम विचार रखने वाले नेताओं ने नूर जहीर के साथ खडे़ होने के बजाय उनके दक्षिणपंथी विचार वाले लोगों से किताब प्रकाशित करवाने को लेकर उंगली उठाई। जहीर का समर्थन करना तो दूर किताब से किनारा करने के लिए उन्होंने दशकों तक वाम विचार के प्रति नूर जहीर की सेवाओं को भी पल भर में भुला दिया। ल्ल

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