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.डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
जम्मू-कश्मीर में अन्तत: पीडीपी और भाजपा की साझा मोर्चा सरकार लगभग दो महीने की जद्दोजहद के बाद बन ही गई। कुछ लोग इसे पीडीपी-भाजपा की साझा सरकार न कह कर कश्मीर और जम्मू की पहली बार बनी साझा सरकार भी कहते हैं। शुरू से ही राज्य में जम्मू और लद्दाख संभाग के लोग लगभग सभी मसलों पर एक स्वर से ही बोलते रहे हैं, इसलिये इसे जम्मू-लद्दाख और कश्मीर की साझा सरकार भी कहा जा सकता है। दरअसल राज्य के दोनों संभागों, कश्मीर और जम्मू में विधानसभा के चुनावों में, राजनीतिक पंडित अपनी भाषा में जिसे 'वोटिंग बिहेवियर' कहते हैं, वह परस्पर विरोधी था। जम्मू-लद्दाख में लोग इस आशा में उत्साह से वोट दे रहे थे कि राज्य में पहली बार जम्मू केन्द्रित सरकार बनानी है। 1947 से लेकर आज तक जम्मू कश्मीर में जो भी सरकार बनती आई है, वह कश्मीर की सरकार मानी जाती थी, जिसमें जम्मू व लद्दाख के भी कुछ लोग शामिल कर लिये जाते थे। नेशनल कान्फ्रेंस मोटे तौर पर कश्मीर संभाग की ही पार्टी मानी जाती है और शेख अब्दुल्ला और उनके परिवार को इस बात की बधाई देनी चाहिये कि उन्होंने अपनी पार्टी के इस चरित्र और पहचान को कभी छिपाने की भी कोशिश नहीं की। शुरू के अनेक साल तो नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस एकाकार होकर ही चलते रहे। बाद में जब दोनों अलग भी हुए, तो कांग्रेस कश्मीर घाटी में अपने लिये कोई स्थान नहीं तलाश सकी। इसलिए उसने जम्मू संभाग की ओर रुख किया। लेकिन जम्मू का स्वभाव और मनोविज्ञान कांग्रेस से मेल नहीं खाता था और न ही कांग्रेस जम्मू संभाग के लोगों के मन का प्रतिनिधित्व कर सकी थी। यही कारण था कि जम्मू संभाग से सीटें प्राप्त करने के बाद भी, पहले कांग्रेस और कालान्तर में सोनिया कांग्रेस, उन सीटों के बल पर राज्य में कश्मीर केन्द्रित सरकार बनाने में ही सहायता करती थी।
सोनिया कांग्रेस के इस छल के बाद, जम्मू संभाग के लोगों को, नई स्थितियां देख कर लगा कि इस बार यदि जम्मू एकजुट हो जाता है तो राज्य में पहली बार जम्मू केन्द्रित सरकार या फिर कश्मीर और जम्मू-लद्दाख की परस्पर समानता के आधार पर गठित सरकार संभव हो सकती है। इसलिये मतदाताओं ने अत्यन्त उत्साह से 'पोलिंग बूथों' के आगे कतारें लगा दीं। लेकिन कश्मीर घाटी में माहौल कुछ दूसरी प्रकार का था। भाजपा ने जिस तेजी से राज्य में अपना प्रचार शुरू किया था और 'मिशन 44' का जितना हल्ला मचा उससे कश्मीर घाटी के राजनीतिक दलों में भय व्याप्त हो गया कि 1947 के बाद पहली बार राज्य की सरकार में से पहल घाटी के हाथ से छिन सकती है। यह भय और भी बढ़ गया जब भाजपा ने कश्मीर घाटी की भी लगभग सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिये और उनमें से भी दो-तीन को छोड़ कर सभी मुसलमान ही थे। पीपुल्स कान्फ्रेंस के सज्जाद लोन से भाजपा का समझौता ही नहीं हुआ बल्कि लोन ने सार्वजनिक रूप से मोदी की तारीफ के पुल बांधने शुरू कर दिये। भाजपा के घाटी में घुस आने का भय केवल राजनीतिक दलों को ही नहीं सता रहा था बल्कि पाकिस्तान, हुर्रियत कान्फ्रेंस और आतंकवादियों को भी यह डर सता रहा था।
आज तक जम्मू-कश्मीर में होता यह आया था कि केन्द्र में सत्तारूढ़ सरकार अपने तरीके से राज्य में उसी पार्टी को जीतने का अवसर देती थी, जिससे उसके अपने राजनैतिक हित सधते थे। इस रवायत में अपवाद केवल मोरारजी देसाई और अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में हुये विधानसभा चुनाव ही कहे जा सकते हैं। नरेन्द्र मोदी के काल में इस बार इस प्रकार की धांधली की न तो आशंका थी और न ही संभावना। इसलिये कश्मीर घाटी में आम आदमी को विश्वास हो गया था कि वे जिस प्रकार मतदान करेंगे उसी प्रकार के नतीजे मतदान मशीन से बाहर निकलेंगे। आम मतदाता की आशा और आतंकवादियों के मन में भाजपा को लेकर भय, इन दोनों ने मिल कर कश्मीर घाटी में भी मतदाताओं की कतारें लम्बी कर दीं। इस बार सुरक्षा बलों ने खास ध्यान रखा कि पाकिस्तान कोई गड़बड़ी न खुद कर सके और न ही अपने आतंकवादी गिरोहों द्वारा करवा सके। उसका कुल मिलाकर नतीजा यह हुआ कि राज्य में आशातीत मतदान हुआ।
लेकिन यह कहने में कोई गुरेज नहीं करना चाहिये कि जम्मू संभाग और कश्मीर संभाग में 'वोटिंग बिहेवियर' एक दूसरे के विपरीत ही था। कुछ लोगों ने इसे उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव भी कहा। जम्मू-कश्मीर के आधारभूत मुद्दों पर भाजपा और पीडीपी के विचार परस्पर विरोधी हैं। लेकिन त्रिशंकु विधानसभा परिणामों का यह लाभ अवश्य हुआ कि जब दोनों संभागों के प्रतिनिधि बात करने के लिये बैठे तो वे समान धरातल पर बैठ कर बात कर रहे थे। पीडीपी को 28 विधानसभा सीटें मिलीं थीं और भाजपा को भी कश्मीर घाटी में अपने सहयोगी पीपुल्स कान्फ्रेंस को मिलाकर 28 सीटें ही मिली थीं। इन 28 में भाजपा के विद्रोही उम्मीदवार पवन गुप्ता की सीट भी शामिल है। बातचीत की मेज पर बैठे दोनों पक्षों में से कोई एक पक्ष संख्या के लिहाज से कमजोर हो और दूसरा ताकतवर, तो उन दोनों में समझौते होते हैं, मित्रता नहीं। लेकिन जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और भाजपा समान ताकत से बातचीत कर रही थीं, इसलिये समझौते की बजाय मित्रता की दिशा में पहल हो रही थी। ध्यान रखना चाहिये समझौते विवशता में होते हैं और मित्रता हृदय से होती है। लेकिन प्रश्न यह है कि मित्रता करने के लिये बैठे दोनों पक्ष उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव हों तो मित्रता का आधार क्या हो सकता है? राजनैतिक दलों में यह आधार न्यूनतम सांझा कार्यक्रम होता है। उसी को तैयार करने में इतना समय लगा। यह जम्मू कश्मीर राज्य के दोनों पक्षों में परस्पर बर्फ पिघलने का संकेत है। न्यूनतम सांझा कार्यक्रम की पहली शर्त ही यह होती है कि जिन मुद्दों पर दोनों पक्ष सहमत नहीं हैं, उनको फिलहाल न छेड़ा जाये (छोड़ा जाये नहीं) और जिन प्रश्नों या समस्याओं पर दोनों पक्ष सहमत हैं उनके आधार पर सरकार चलाई जाये।
भारतीय जनता पार्टी और पीडीपी ने फिलहाल इसी न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर सरकार चलाने का निर्णय किया है। दोनों पक्षों में, जम्मू-लद्दाख और कश्मीर घाटी में, हिन्दुओं और मुसलमानों में एक बार परस्पर विश्वास बन जाता है, संदेह और संशय समाप्त हो जाता है, तो यह सरकार राज्य के ही नहीं बल्कि देश के इतिहास में एक नये अध्याय की शुरुआत कर सकती है। इस अध्याय को पंडित जवाहर लाल नेहरु ने शुरू करने की कोशिश की थी लेकिन इसके लिये उन्होंने एक पक्ष के तुष्टीकरण या फिर उसे लालच देने का सहारा लिया था। इसलिये वह प्रयोग असफल ही नहीं हुआ बल्कि और नई समस्याओं को जन्म दे गया। सरदार पटेल इस असफल हो रहे प्रयोग को फिर से पटडी पर ला सकते थे, लेकिन उनकी बहुत जल्दी ही मृत्यु हो गई। इसको पटरी पर लाने का एक नया प्रयोग डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने किया था, लेकिन उनकी श्रीनगर जेल में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। अब नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में भाजपा ने एक बार फिर उसी प्रयोग को प्रारम्भ किया है।
इस बार सकारात्मक पहलू यह है कि भाजपा न तो तुष्टीकरण को हथियार बना रही है और न ही लालच को। वह बराबर के आसन पर कश्मीर घाटी के लोगों द्वारा बिना किसी भय या छल कपट के माहौल में किये गये मतदान के प्रयोग से निकले परिणाम के आधार पर, जम्मू-लद्दाख व कश्मीर घाटी के लोगों के बीच एक सेतु निर्माण का कार्य कर रही है, जिसकी सफलता की आशा की जानी चाहिये। जो सेतु 1947 में बनना चाहिये था, उसके अब बनने की आशा की जा सकती है। लेकिन इसके लिये बहुत सूझबूझ और धैर्य चाहिये। प्रश्न केवल इतना ही है कि क्या मुफ्ती मोहम्मद यह धैर्य दिखा पायेंगे?
पाकिस्तान में हड़कम्प
जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा की साझा सरकार के गठन से अलगाववादी और पाकिस्तान झुंझला गए हैं। 5 फरवरी को कश्मीर दिवस मनाने के बहाने सीमा के उस पार पाकिस्तान और उग्रवादी, कट्टरवादी संगठनों ने वही पुराना राग अलापा कि 'कश्मीर की एक इंच भूमि पर भी अपना दावा नहीं छोड़ंेगे। हमें कश्मीर दिवस इस तरह मनाना चाहिए जिससे हमारे सैकड़ों-हजारों कश्मीरियों का सपना साकार हो।' असल में पाकिस्तान और उसके द्वारा पोषित अलगाववादी जम्मू-कश्मीर में जनता द्वारा बड़ी संख्या में मतदान में भाग लेने और अब चुनी हुई गठबंधन सरकार के आसीन होने से हताश है। पाकिस्तान के अखबारों और टीवी चैनलों में सरकार के शपथ ग्रहण के बाद सबसे गर्मागर्म चर्चा इसी बात की है कि 'भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य में हिन्दू राष्ट्रवादी सरकार में प्रवेश कर गए'। तथाकथित विश्लेषकों ने इसे कश्मीरी मुसलमानों और हिन्दुओं के धुव्रीकरण से जोड़ा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की उदारवादिता को ही पाकिस्तान के लेखक और पत्रकार पचा नहीं पा रहे। पाकिस्तान इस्लामी कार्ड खेलकर मुख्यमंत्री सईद पर सीमा के बहाने दबाव बनाने के अभियान में जुट गया है। राज्य में चुनी हुई सरकार में भाजपा की सहभागिता और उसे केन्द्र सरकार के सहयोग को पाकिस्तानी पचा नहीं पा रहे हैं।
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