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मुद्दा- सोच वही है, बरेली हो या मोसुल

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Nov 22, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Nov 2014 16:25:36

 

दिल्ली के बवाना गांव में पंचायत ने तय किया कि मुहर्रम का जुलूस उनके गांव से नहीं निकलेगा। गांव वालों के विरोध के कारण हैं। उनके अनुसार जुलूस उनके गांव के मुसलमान नहीं निकालते, वह दूसरे गांव से शुरू हो कर उनके गांव के बीच से होता हुआ अगले गांव में जाता है। मुहर्रम के जुलूस में शामिल लोग गुंडागर्दी करते हैं। स्त्रियों पर छींटाकशी की जाती है, उनका बाहर निकलना असम्भव हो जाता है। जुलूस में शामिल लोग राह चलते दुकानों से सामान उठा लेते हैं। स्थानीय मुसलमान इसे मान गए और बात समाप्त हो गयी। ये कोई 'इस्लाम की हार और हिंदुत्व की जीत' नहीं थी, मगर मीडिया इसे यही रंग देने में जुट गया। मीडिया के महारथियों को बिल्कुल अंदाजा नहीं है कि मुहर्रम,चेहल्लुम, ईदुल-मिलादुल नबी के जुलूस क्या चीज हैं? इनके निकलते समय वातावरण कैसा होता है?
आंखन देखी बताने के लिए, हम तीन लोग दैवयोग से मुहर्रम वाले दिन बरेली से बीस-बाईस किलोमीटर दूर फरीदपुर कस्बे के सफर पर थे। फरीदपुर दिल्ली-लखनऊ राष्ट्रीय राजमार्ग पर बरेली से सामान्य स्थिति में अधिकतम पच्चीस-तीस मिनट की दूरी का कस्बा है। दैवयोग से बल्कि इस्लामयोग से हमें अपनी कार होते हुए भी पहुंचने में ढाई घंटे से अधिक लगे। कारण था कि छह लेन के राष्ट्रीय राजमार्ग पर कई हिस्सों में मुहर्रम के जुलूस निकल रहे थे। हर जुलूस में दो-ढाई सौ लोग पुलिस की निगरानी में ताजिये उठाये जा रहे थे। इतनी भीड़ के लिए छह में से एक लेन पर्याप्त थी। अधिकतम एक तरफ की तीन लेन प्रयोग की जा सकती थीं और दूसरी तरफ से यातायात निकाला जा सकता था।
किन्तु मुहर्रम के कारण समय रुक गया था, रोक दिया गया था। जगह-जगह ट्रक रुके खड़े थे। हर जुलूस में दसों लोग लाठियों से लैस थे जो निकलने वालों को रोक रहे थे। डंडों से कार के बोनट, शीशे खटखटाये जा रहे थे। लग रहा था कि मुगलिया भेडि़या-धसान और पिण्डारियों का युग वापस लौट आया है। छोटी कारें बिल्कुल दायें किनारे से, मौका पा कर, दामन संभाले, पल्ला बचाये, लगभग सर ढके, सतर चाल में ऐसे निकल रही थीं जैसे घर के बाहरी हिस्से में खानदान के बड़े-बूढ़े बैठे हों और बहुएं दबे पैर घूंघट निकाले जाने की विवशता में गुजर रही हों। सात-आठ किलोमीटर तक कार धीरे-धीरे पंजों के बल दुबकी हुई चलती रही और हम यह सब तब तक देखते रहे जब तक फरीदपुर छह किलोमीटर नहीं रह गया।
अब अंतिम बम फटा। आगे जाम लगा हुआ था। समाजवादी पार्टी की सरकार की पुलिस ने रास्ता बंद कर दिया था। ट्रकों, कारों को बाजू लगाने के लिए कहा जा रहा था। छोटी कार वालों ने स्थानीय निवासियों से पूछ कर बायीं ओर एक कच्चा रास्ता ढूंढ निकाला, जो एक सूखी नहर के किनारे धूल उडाता हुआ जा रहा था। उसने हमें शेष छह किलोमीटर को चौदह किलोमीटर में बदल कर फरीदपुर के बाहरी सिरे पर निकाला। मैं रास्ते भर और लौटते समय भी इसी सोच में डूबा रहा कि इक्कीसवीं सदी में भारत को किस दिशा में ले जाया जा रहा है? समाज को किस ओर खदेड़ा जा रहा है? अगर बल्कि अगर की कोई गुंजाइश नहीं है, यह तथ्य है कि जुलूस में शामिल मुट्ठीभर लोगों ने अखिलेश यादव सरकार तथा प्रशासन के सक्रिय समर्थन से राष्ट्रीय राजमार्ग को घंटों के लिए बंद कर लिया था,तो जिस समय इस मन:स्थिति के लोगों के हाथ में डंडों की जगह तलवारें,बरछे थे,बादशाह की फौजों का समर्थन था, उस समय हमारे पूर्वज कैसे जिये होंगे?
सम्पूर्ण भारत के प्रत्येक प्रतिष्ठित मंदिर का मुस्लिम इतिहास की पुस्तकों में उल्लिखित ध्वंस, हमारी माताओं-बहनों को गुलाम बना कर मध्य एशिया के बाजारों में बेचे जाने के मुस्लिम इतिहासकारों की किताबों में गौरवपूर्ण उल्लेख, देश की लूट के आज भी आश्चर्यचकित कर देने वाले ऐतिहासिक वर्णन, काफिरों के सरों के मीनार बनाये जाने के 'पराक्रम' के दावे, हर मुस्लिम शासक का 'गाजी' (इस्लाम के लिए काफिरों के खिलाफ लड़ने वाला योद्घा) की उपाधि धारण करना अर्थात सारा मुस्लिम इतिहास हमारे लिए भयानक घृणा से पटा पड़ा है।
अफगानिस्तान, जो आज इस्लामी आतंक का एक प्रमुख गढ़ बना हुआ है, चीन के खोजी यात्रियों ने वहां के हिन्दू शाही राज-वंश का गुणगान किया है, वहां भी इस्लाम ने इसी तरह से अपना विस्तार किया था। ईराक के यजीदी, जो आज भी गरुड़, मयूर की पूजा करते हैं, जिनके मंदिरों में मूर्तियां आज भी होती हैं, इसी तरह आतंक का शिकार बनाये गए थे। सदियों से हमारे इन बिछड़े बंधुओं ने कितनी कठिनाई से छिप-छिपाकर अपनी मूल संस्कृति को बचाये रखा। ये सार्वजनिक रूप से नमाज पढ़ने लगे मगर घरों में पूजाघर बनाते रहे। छिपकर मंदिरों में पूजा करते रहे और अपने पूर्वजों से जुड़े रहे, मगर आज इक्कीसवीं सदी में इस्लाम ने पेट्रो डॉलर की ताकत से लैस होकर और अमरीका की सस्ती गैस और सस्ते पेट्रोल की चाह ने हजारों साल पुराने इस समाज का बेहद बुरा हाल कर दिया। यजीदी लड़कियों को जंजीरों से बांधकर बेचने के लिए ले जाये जाने के वीडियो देखे जा सकते हंै। उनकी नीलामियां मीडिया को याद नहीं दिला रहीं कि अतीत में भारत में भी ऐसा ही होता रहा है। भारत पर पहले मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद बिन कासिम ने यहां से चालीस हजार लड़कियां और बच्चे गुलाम बनाये थे, जिनका पंद्रह प्रतिशत हिस्सा खलीफा को भेजा गया था और शेष लोगों को अपने हरमों में भरा या बाजारों में बेचा गया था। सम्पूर्ण मुस्लिमकाल में भारत गुलामों को पकड़ने का बड़ा केंद्र बना रहा है। इतिहास अपनी जगह मगर क्या मीडिया को आज भी जगह-जगह स्थापित होते मदरसे नहीं दिखाई देते? क्या इन टी़वी. के महारथियों को मस्जिदों का फैलता हुआ जाल दिखाई नहीं देता? क्या इन लोगों को असम, बंगाल, बिहार के सीमांत जिलों का हाल नहीं मालूम?
इन सारे कामों का प्रारम्भ इसी तरह होता है। छोटी-छोटी मांगों से बात शुरू होती है जो बाद में सुरसा के मुंह की तरह फैलती जाती है। इसी सामान्य इस्लामी तकनीक का प्रदर्शन अभी सीमा पर पाकिस्तान ने किया था। जोरदार गोलाबारी केवल यह जानने के लिए की गयी थी कि मोदी के नेतृत्व में कितना दम है और उसे कितना दबाया जा सकता है? मगर इस बार की धुआंधार जवाबी गोलाबारी ने उनको समझा दिया कि दिन बदल गए, हवा बदल गयी। नतीजा, इस्लामी तोपें ठंडी पड़ गयीं। -स्वामी विनय चैतन्य

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